खबर प्लांट करके विमर्श को बदलकर राजनैतिक संकट से पार पाने का हुनर पहले भी दिखाया जाता रहा है। 1982 में जब विपक्षी ट्रेड यूनियनों के संयुक्त आवाहन पर ऐतिहासिक भारत बंद हुआ था तो उसका इंपैक्ट खत्म करने के लिए उसी दिन आकाशवाणी के रात पौने नौ बजे के मुख्य समाचार बुलेटिन के ठीक पहले इंदिरा गांधी ने महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री अब्दुल रहमान अंतुले को इस्तीफा सौंपने के लिए दिल्ली तलब कर लिया था।
नतीजतन अगले दिन के अखबारों की लीड में भारत बंद की बजाय यही खबर दिखाई दी थी। यह हुनर इस दौर में बावजूद इस कहावत को जानते हुए भी कि काठ की हांडी एक ही बार चढ़ती है, बार-बार आज़माया जा रहा है।
कर्नाटक के चुनाव के समय अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में लगी मुहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर हटवाने के लिए भाजपा के एक सांसद ने पत्र लिख मारा और एक योजनाबद्ध प्रयास के तहत इस मुद्दे ने ऐसा तूल पकड़ा कि कर्नाटक विधानसभा के चुनाव का एजेंडा इसी पर सेट हो गया।
हाल में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान सहित पांच राज्यों में जब विधानसभा चुनाव होने वाले थे तो अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की विवादित स्थल पर शुरुआत करने के लिए गर्मा-गरम अल्टीमेटम के दौर शुरू हो गये थे।
मीडिया में ऐसी खबरे प्लांट की जाने लगी थी कि इन राज्यों के चुनाव परिणाम आने के दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस मामले में निर्णायक कदम उठाने के लिए कटिबद्ध हो चुके हैं। इस हवा ने मध्यप्रदेश और राजस्थान में भाजपा की जितनी बुरी तरह मिट्टी पलीत होने वाली थी, उसको काफी हद तक टाल दिया।
लोकसभा चुनाव का असर
अब लोकसभा चुनाव का रण सज रहा है तो इस हुनर की बानगी फिर देखने को मिल रही है। कॉंग्रेस का ट्रंप कार्ड कही जाने वाली प्रियंका गांधी ने पार्टी के महासचिव की कुर्सी संभालने के बाद जब उत्तर प्रदेश में तीन दिन का प्रवास शुरू किया तो पहले दिन लखनऊ में उनका रोड शो मीडिया में सबसे बड़ी सुर्खी के रूप में छाया रहा।
हालांकि इसके पीछे यह भी था कि कॉंग्रेस ने पूरी दरियादिली के साथ प्रियंका के शानदार कवरेज के लिए मीडिया मैनेजमेंट किया था। यह क्रम जारी रह पाता इसके पहले उत्तर प्रदेश की घबराई सरकार ने उनके दौरे के दूसरे दिन इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ के वार्षिकोत्सव समारोह में जा रहे समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव को एयरपोर्ट पर नज़रबंद करने के ड्रामे को अंजाम दे डाला। जिससे प्रियंका इस खबर के आगे नेपथ्य में चली गईं।
पुलवामा हमले ने पलटा पासा
इसी बीच कश्मीर के पुलवामा ज़िले में 14 फरवरी को सीआरपीएफ के काफिले पर हुए आतंकवादी हमले में 44 जवानों की शहादत की खबर ने तो पासा ही पलट दिया। इस हमले को लेकर अफवाहों का बाज़ार गर्म है, जिससे संदेह के बादलों का घटाटोप छा गया है।
ऐसी अफवाहों की कोई प्रामाणिकता नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह द्वारा शहीदों की चिताएं जलने का इंतज़ार ना किया जाना और रैलियों को इस माहौल में बेधड़क संबोधित किया जाना आलोचना का विषय भी बना है।
इस घटना को लेकर भावनाओं का जो ज्वार पूरे देश में दिखाई दे रहा है उससे सरकार के लिए बेरोज़गारी में असाधारण बढ़ोत्तरी, राफेल सौदा, नोटबंदी और जीएसटी की परेशानियों जैसे सरकार के लिए असुविधाजनक मुद्दे पृष्ठभूमि में चले गये हैं।
बीबीसी की हिन्दी समाचार सेवा का कहना है कि कॉंग्रेस अभी तक शहीदों की मौत से सदमें में है जबकि बदले मंजर ने भाजपा में नये जोश का संचार कर दिया है, जिससे चुनावी तैयारियों में वह बहुत बढ़त लेती दिखाई देने लगी है।
पुलवामा हमले को लेकर सरकार पर नहीं उठे सवाल
वैसे सरकार के कौशल को सलाम करना पड़ेगा। कश्मीर में सीआरपी जवानों के हमले से उसके लिए जबावदेही के इतने सवाल खड़े होने थे कि कुछ भी बोलना उसके लिए मुश्किल हो जाता लेकिन उलटा हो रहा है।
ज़्यादातर लोगों का विश्वास है कि मोदी इस बार पाकिस्तान और कश्मीर के आतंकवादियों को सबक सिखाने के लिए कोई ना कोई बड़ी कार्रवाई करेंगे। निश्चित रूप से इसे देखते हुए सत्ता पक्ष तेज़ हरकत में आ गया है लेकिन यह हरकत चुनावी चैसर पर अपनी बाज़ी को मज़बूत करने के रूप में सामने आ रही है।
तमिलनाडु में अन्ना डीएमके और महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ गठबंधन का ऐलान आनन-फानन में संभव करके उसने अपनी कमाल की फुर्ती दिखा डाली है।
उत्तर प्रदेश में नाराज़ ओमप्रकाश राजभर को वार्ता करके मना लिया गया है। लोग हैं कि रैलियां निकालकर शहीदों के लिए आंसू बहा रहे हैं और सरकार से देश विरोधी ताकतों का जबाब देने का मुतालवा कर रहे हैं।
दूसरी ओर सरकार इस बात से बेफिक्र चुनावी चक्रव्यूह रचना में लीन हो चुकी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोगों का आश्वस्त करने के नाम पर कह रहे हैं कि उन्होंने सेना और अन्य सुरक्षा बलों को आतंकवादियों से निपटने की पूरी छूट दे दी है लेकिन ऐसी छूट देने का ऐलान तो वह पहले ही कर चुके थे अब नए सिरे से इस ऐलान को दोहराने की क्या तुक है यह वे ही जानें।
कश्मीर में उसका खुफिया तंत्र पाकिस्तान विरोधी चेहरों को उभारने के मामले में पीछे क्यों रहा?
भारत जैसे बड़े देश के लिए खोखली आक्रामकता शोभा नहीं देती। दरअसल, परिमाण से कोई बड़ा नहीं हो जाता। किसी देश और समाज का परिमाण के बड़प्पन के अनुपात में मानसिक उत्थान भी आवश्यक है जिसका अभाव विडंबनादायक है। यह सरकार पहले दिन से कहती रही है कि आक्रमण के समय रक्षा का उपक्रम करना कोई सफल प्रतिरक्षा नीति नहीं कही जा सकती।
सही बात यह है कि आक्रमण की मुद्रा अख्तियार करके ही कारगर प्रतिरक्षा संभव है। सरकार की इस सोच से असहमत नहीं हुआ जा सकता लेकिन इसके अनुपालन में गत पांच सालों में सरकार ने क्या व्यवहारिक कदम उठाये यह उससे अवश्य पूछा जाये।
इंदिरा गांधी के समय पाकिस्तान की जनरल जिया उल हक की हुकूमत भारत में एक विस्फोट कराती थी तो पाकिस्तान में उसी दिन एक दर्ज़न जगह जबावी विस्फोट हो जाते थे और सबको मालूम था कि यह विस्फोट राॅ की देन होते थे, जिसके एजेंटों का घना संजाल पाकिस्तान के चप्पे-चप्पे में फैला दिया गया था।
वर्तमान सरकार के सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल का जासूसी के महानायक के रूप में प्रस्तुतिकरण पर बहुत अधिक बौद्धिक ऊर्जा खर्च की गई लेकिन पाकिस्तान को इस तरह से पस्त करने का कोई काम पिछले पांच सालों से उन्होंने कर पाया हो इसकी कोई मिसाल ढ़ूढ़े नहीं मिलती।
पाकिस्तान की ओर से कश्मीर के अलगाववादी नेताओं को उसके सुर में सुर मिलाने के लिए फंडिंग की बात कही जा रही है लेकिन क्या भारत पाकिस्तान से फंडिंग करने में पीछे रह सकता है।
फिर अभी तक कश्मीर में उसका खुफिया तंत्र पाकिस्तान विरोधी चेहरों को उभारने के मामले में पीछे क्यों रहा। ज़िम्मेदारों को इस सवाल का जबाव भी देना चाहिए।
उनका यह कहने से काम नहीं चल सकता कि कॉंग्रेस सरकार ने भी यह काम कहां कर पाया था। चाहे कॉंग्रेस सरकार हो या भाजपा की अटल सरकार उनकी कश्मीर नीति से मोदी सरकार का दृष्टिकोण अलग है इसलिए उसे इस सवाल से दो चार होना ही पड़ेगा।
भारत जैसे ज़िम्मेदार देश में प्रतिक्रियावादी नेतृत्व की नहीं परिपक्व और दूरगामी दृष्टि की ज़रूरत है। ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद इंदिरा गांधी को आगाह किया गया था कि वे अपने सुरक्षा घेरे से सिक्ख जवानों को हटा लें पर उन्होंने यह स्वीकार नहीं किया। क्योंकि उन्हें देश की एकजुटता का ध्यान था जो इस विविधतापूर्ण देश के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए अपरिहार्य शर्त है।
उन्हें इस सिद्धांत की खातिर अपनी जान बलिदान करनी पड़ी। राजीव गांधी के लिए तो पंजाब के अलगाववादी आंदोलन को लेकर निजी प्रतिशोध से भर जाने की पूरी गुंजाइश थी क्योंकि इस अलगाववाद ने उनकी मां की हत्या कर डाली थी पर राजीव गांधी ने इसके बावजूद संत लोगों वाल से समझौता करके इस समस्या के समाधान के लिए कदम आगे बढ़ाया। फिर भले ही इसके बाद केपीएस गिल के नेतृत्व में आतंकवाद के दमन के लिए पंजाब में पुलिस द्वारा तीव्र संहारक अभियान चलाया गया तो अलगाववादी अपने मकसद के लिए उसे भुनाने में सफल नहीं हो पाये।
कश्मीर में महबूबा मुफ्ती के साथ सरकार चलाकर ऐसा प्रयोग करने की कोशिश की गई थी लेकिन दिल्ली की सरकार इस अवसर का इस्तेमाल घाटी में स्थाई शांति का वातावरण तैयार करने में नहीं कर पाई, जो उसमें कौशल की बड़ी कमी को दर्शाता है।
बहरहाल, सरकार को साम, दाम, दण्ड, भेद हर नीति में माहिर होना चाहिए। इससे उसके सामने कई विकल्प हो सकते हैं लेकिन निश्चित रूप से किसी भी समस्या का तोड़ ढूंढने की क्षमता मौजूदा सरकार अभी तक नहीं दिखा पाई है जो देश में निराशा का बड़ा कारण बन रहा है।