भारत, पाकिस्तान, आतंकवाद और कश्मीर यह वे शब्द हैं जो अक्सर अखबारों की सुर्खियों में इस्तेमाल होते हैं। इन सुर्खियों के पीछे की वजह वे लोग बनते हैं जो इंसानियत के नाम पर कलंक हैं, इसलिए लिखने का मन भी नहीं करता है।
आप समझदार हैं, खुद ही समझ गए होंगे। देश है तो दल होंगे और दल हैं तो राजनीति भी होगी, होनी भी चाहिए। इसमें कोई गुरेज़ नहीं है लेकिन हर मसले पर राजनीति तकलीफ देती है। यहां दल, जाति, धर्म, चुनाव और पद सब मामूली साबित होता है।
कोरे कपड़े पर खून के निशान सा यह दिन हमारे भविष्य की आंखों को नम करता रहेगा। इतिहास में यह तारीख भले मोहब्बत की रही हो लेकिन भारत में अब से इस दिन के मायने बदल गए हैं।
इन सबके पीछे की वजह वह मुल्क है जहां के कुछ आतंकवादियों ने हमारे जेल की रोटियां तोड़ी हैं। हम क्या वाकई इतने असमर्थ थे कि एक आतंकवादी को फांसी पर ना चढ़ा पाते या उसे देश के भीतर से निकाल वापस पाकिस्तान अपनी छाती पर बिठा ले गया ?
हम वाकई असमर्थ और मजबूर हैं क्योंकि हमारे यहां ट्रेन हम खुद रोकते हैं, बसों में आग हम खुद लगाते हैं, पाकिस्तान की जीत पर पटाखे हम खुद जलाते हैं और पाकिस्तान ज़िंदाबाद के नारे भी हम खुद लगाते हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि ऐसी चीज़ें सभी करते हैं लेकिन कुछ लोगों द्वारा तो ज़रूर ऐसा किया जाता है।
उन कुछ लोगों का कुछ भी करना साफ दिखता है। इस वक्त भारत टूट रहा है, तकलीफ में है और घाव खाया हुआ है। घाव किसी जंग का हो तो तकलीफ जायज़ है लेकिन बगैर वजह का हर घाव तकलीफ को दोगुना कर देता है।
अगली बार जब आप किसी नेता के समर्थन में नारे लगा रहे होंगे, तब इन 42 ताबूतों और इनसे जुड़े परिवारों का ख्याल ज़रूर कीजिएगा। किसी के समर्थन में या किसी के विरोध में कोई बहुत ओछा काम मत कीजिएगा।
इन जवानों की शहादत राजनीति को करीब लाई है, काश यह बगैर किसी शहादत के संभव हो पाता। ओछी राजनीति के फायदे बहुत मामूली और नुकसान बहुत भारी हैं। आज जिस प्रकार से देश का स्वर एक है, भारत को ऐसी ही बुलंद आवाज़ की ज़रूरत है।