शहरों, कस्बों या महानगरों में भीड़ वाली बसें, मेट्रो या लोकल ट्रेनों में अपनी मातृभाषा में किसी का संवाद सुनकर उसको एक नज़र देख भर लेने का सुकून बेहद ही खास होता है।
पहली दफा तो ज़हन में यही आता है कि कहीं मेरे जान-पहचान का परिचित तो नहीं? अगर वक्त की पाबंदी ना हो तो संकोच के साथ पूछ लेने की चाह, “कहां से हैं आप? भाषा तो अपने तरफ की है।”
मातृभाषा के साथ अपनी तरफ के मिट्टी के लोगों के होने का एहसास तेज़ भागती ज़िन्दगी में अकेलेपन को थोड़ी देर के लिए कम ज़रूर कर देता है।
जन्म लेने के बाद जो पहली भाषा हम सीखते हैं, उसे मातृभाषा कहते हैं। वह भाषा जो किसी भी व्यक्ति के सामाजिक एवं भाषाई पहचान बनकर ताउम्र उसके साथ रहती है, भले ही बाद में उसका प्रयोग खुद उसके द्वारा ही कम क्यों नहीं हो गई हो।
मातृभाषा पर राष्ट्रपिता के बोल
मातृभाषा को लेकर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का मत था, “मातृभाषा का स्थान कोई दूसरी भाषा नहीं ले सकती है। गाय का दूध कभी माँ का दूध नहीं हो सकता है।”
इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को प्रस्तुत करने की उनकी कोशिशों ने अनेक मातृभाषाओं के साथ लिखी जाने वाली भाषा के कब्र खोदने में कारगर साबित हुईं।
सरकारी कोशिशें भी नाकाम
आज़ादी के बाद सरकारी कोशिशों के ज़रिये कई भाषाओं को जन-समान्य में जीवित रखने के प्रयास किए गए परंतु, यह सारी कोशिशें भाषा की साहित्यिक सीमा से बाहर नहीं निकल पाती हैं।
मातृभाषा में संस्कार पाने के बाद स्कूलों, कॉलेजों और सामाजिक जीवन में कई भाषाओं को सीखने और उसमें काम करने की मजबूरी आम लोगों में अपने मातृभाषा में खुद को गौरवान्वित ही नहीं होने देती है।
मातृभाषा पर गर्व होता है
कभी-कभी तो यह भी लगता है कि अपनी मातृभाषा संग्राहलय की वह भाषा है जो अचानक सकारात्मक कारणों से सुर्खियों में आती हैं, तब होठों पर गर्व की मुस्कान और ताली बजाने का मौका भर मिल जाता है।
मातृभाषा की तन्हाई
मातृभाषा अपने ही लोगों में इतनी तन्हा होकर रह गई हैं कि आज स्वयं परिवार के सदस्यों में भी इसका प्रयोग औपचारिकता की बांट जोहती है। कमोबेश हर मातृभाषा का एक विशाल साहित्यक भंडार है, उसका अपना लोक संगीत है, उसके अपने लोक बिंब और ध्वनियां हैं।
कई दफा नई पीढ़ी के लोग बड़े-बुज़ुर्गों को मातृभाषा में बात करते देख आश्चर्य ज़रूर करते हैं। उन्हें लगता है कि उनके सामने अभी-अभी किस भाषा में बात हुई है।
इन सारे यथास्थितियों में मातृभाषा दिवस, मातृभाषा प्रेमियों के लिए उम्मीद का वह दिवस है जिसके ज़रिये आने वाली पीढ़ियों को अपनी मातृभाषा से जुड़ी सभ्यता-संस्कृति, साहित्य और लोक परंपरा से परिचय कराने का अवसर मिलेगा।
इन चीज़ों का ख्याल रखने पर एक समृद्ध भाषा को अपनों के बीच अजनबीपन के बोध का एहसास नहीं होगा। यह भी ज़रूरी है कि आज के बिज़ी शेड्यूल में भाषाई अकेलेपन की चीज़ें सामने ना आएं।
मातृभाषा के प्रति घटती अभिरुचि के दौर में यह कोशिश मातृभाषा के उत्थान में एक सहयोग ज़रूर हो सकता है।