क्या देशभक्ति का मतलब जवानों के शहीद होने पर केंडल मार्च निकालकर सिर्फ आंखे नम करना है? क्या शहीदों के शहादत को फेसबुक और वाट्सअप पर बखारना काफी है? क्या ईंट का जवाब पत्थर से देने भर से भविष्य में ऐसे किसी भी घातक हमले से हमारे जवानों को बचाया जा सकता है?
जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में फिदाईन आतंकी हमले में 42 के करीब सीआरपीएफ के जवान शहीद हुए। सीआरपीएफ के 2500 जवानों का काफिला (कॉनवोय) जिसमें 70 गाड़ियां शामिल थीं, जम्मू से श्रीनगर जा रही थी।
जम्मू-श्रीनगर हाईवे पर इस कॉनवोय के गुज़रते वक्त एक कार में भारी मात्रा में आरडीएक्स विस्फोटक लिए घात लगाकर इंतजार कर रहे आतंकवादियों ने काफिले से अपनी कार टकराकर धमाके को अंजाम दे दिया। काफिले की 2 बसें धमाके की चपेट में आ गई और चारों ओर बस मातम का मंज़र ही दिखाई देने लगा।
जनता में काफी आक्रोश
इस हमले के बाद देश के प्रधानसेवक से लेकर तमाम विपक्षी पार्टियों के नेताओं और देश-विदेश के राष्ट्राध्यक्षों ने गहरा शोक जताया। देश की जनता में भी आक्रोश की भावना उमड़ पड़ी।
विभिन्न शहरों के सैकड़ों लोगों ने सड़कों पर केंडल मार्च और श्रद्धांजलि समारोह का आयोजन कर सीआरपीएफ के उन 42 जवानों की शहादत को सराहा और इसके ज़ाया ना जाने की कस्मे खाईं। इसके साथ-साथ सोशल मीडिया में जनता के अपरिपक्व प्रतिक्रिया की शुरुआत भी गति पकड़ने लगी।
40 के बदले 400 पाकिस्तानी सैनिकों की लाश लाने बात फैलाई जाने लगी। सहनशीलता का ढकोसला बंद कर युद्ध करने का फरमान जारी किया जाने लगा। अलग-अलग कविताओं और लेखों को सोशल मीडिया के वॉल पर चस्पा कर दिया गया और इस पूरे हमले के कारणों को पाकिस्तान और उसके द्वारा पोषित आतंकी संगठन जैश- ए-मोहम्मद तक सीमित कर दिया गया।
कश्मीर के युवाओं की क्या दिक्कत है?
जनता का गुस्से से भर जाना लाज़मी है। सरकार से उचित कदम उठाने की मांग करना और सख्त कार्रवाई के लिए आवाज़ उठाना भी सही हैं लेकिन मीडिया, सरकार और जनता किसी को भी इस सच से इंकार नहीं होगा कि भारत में ऐसे आतंकी हमले पिछले 3 दशक से होते आ रहे हैं, जिनमें हजारों मासूम लोगों ने अपनी जान गंवाई और देश के कई बहादुर जवान वीरगति को प्राप्त हुए। भविष्य में ऐसी घटनाएं नहीं होंगी या फिर घटेंगी इसमें भी गहरा संशय है।
जब संशय इन सभी सवालों पर है तो ऐसे किसी भी आतंकी हमलों के बाद आंख मूंद कर गरमाने के बजाय कुछ अन्य बिंदुओं पर भी गौर करना ज़रूरी हो जाता है। इस पूरे दु:खद घटनाक्रम में जिन आतंकियों ने वारदात को अंजाम दिए, वे किस देश के नागिरक थे?
जो वीडियो जैश-ए-मोहम्मद ने जारी किया है, उसमें आदिल अहमद डार नाम का आंतकी है जिसने इस हमले को अंजाम दिया है। आदिल डार कश्मीर का रहने वाला है। क्या कारण है कि भारत के राज्य जम्मू-कश्मीर के युवा पाकिस्तान के आतंकी संगठनों के इशारे पर इस प्रकार के दहला देने वाले धमाकों में शामिल हो रहे हैं?
देश के अनेकों हिस्सों में आतंकी हमले हुए हैं लेकिन सबसे ज़्यादा आम नागरिक और सैनिक यदि कहीं मारे गए हैं, तो वह जम्मू-कश्मीर ही है। क्या कभी देश के लोगों ने कश्मीरी लोगों से उनके बारे में जानना चाहा? इस तथ्य में कतई कोई संदेह नहीं है कि देश के ज़्यादातर नागरिक कश्मीर की समस्या को जानते ही नहीं हैं।
क्या जनता ने सरकार से कभी यह पूछा कि आप चुनाव दर चुनाव कश्मीर के भूभाग को भारत का हिस्सा बताते हैं लेकिन कभी कश्मीरियों के अपने होने की बात उन्होंने मुखर होकर की है? क्या केवल पाकिस्तान-पाकिस्तान कर देने भर से समस्या का निराकरण हो जाएगा?
पाकिस्तान को सफलता क्यों मिल रही है?
यह सत्य है कि आज़ादी के बाद से कश्मीर के भारत का अभिन्न हिस्सा होना पाकिस्तान के आंखों की चुभन का कारण है। ऐसे में यह स्वभाविक है कि पाकिस्तान इस क्षेत्र में अस्थिरता लाने की पुरज़ोर कोशिश करेगा लेकिन वह इसमें कामयाब क्यों हो रहा है? जब 4 युद्धों में भारतीय सेना उसे मात दे चुकी है तो कश्मीर के लोगों से वार्तालाप करने की जगह युद्ध का रास्ता कितना सही है?
आखिर हमारी देशभक्ति इतनी सुविधाजनक क्यों है, जिसमें हम आसान रास्तों के सहारे इसे साबित करने में जुट जाते है। पिछले साल भर से राफेल विमान के रक्षा सौदे में हुए घपले में सभी मौन धारण किए हुए हैं।
हमें यह समझना होगा कि हमारी सेना (आर्मी, बीएसएफ, सीआरपीएफ, सीआईएसएफ और पुलिस) आदि के संसाधनों की भारी कमी है, जिसके कारण उन्हें अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। रक्षा सौदे में जो पैसे लूट का हिस्सा बनते हैं, वे उन सेना के जवानों को अपनी ज़िम्मेदारियों के वक्त काम में आ सकते हैं, हम उस पर खामोश क्यों हैं?