दिल्ली की चकाचौंध से दूर एक गांव काठी खेड़ा, जो दिल्ली से महज़ 115 किमी हापुड़ ज़िला का हिस्सा है। हममें से शायद ही किसी ने यह नाम पहले सुना होगा किन्तु आज यह जगह दुनियाभर में जिज्ञासा का विषय बना हुआ। वह जिज्ञासा भी इस बात को लेकर है जिसपर आप बात भी ना करना चाहते हो या जिसकी चर्चा मात्र से आप दूर भाग खड़े होते होंगे।
जी हां, बात हो रही है पीरियड्स की और उस दौरान उपयोग आने वाले सैनेटरी पैड की। जिसे कोई कभी कागज़ों में छुपाकर ले जाते होंगे या जिसे देख लड़कों की मंडली ने कभी मज़ाक बनाया होगा। वह देश जिसमें कई क्षेत्रों में पीरियड्स को अभिशाप माना जाता है, सैनेटरी पैड को घृणा की दृष्टि से देखा जाता है, उसी देश के एक छोटे से गांव में सैनेटरी पैड बनाने वाली महिलाओं की कहानी ने विश्वमंच पर अपनी अमिट छाप छोड़ ऑस्कर प्राप्त की है।
‘पीरियड: एंड ऑफ सेंटेंस’ वह डॉक्यूमेंट्री फिल्म है जिसे बेस्ट डॉक्यूमेंट्री शॉर्ट सब्जेक्ट कैटेगरी में अवॉर्ड प्राप्त हुआ है। दरअसल, इस कहानी की नायिका 22 वर्षीय स्नेह, जिसे 15 वर्ष की आयु में पहली बार महावारी यानि कि पीरियड्स के सामना करना पड़ा था, जानकारी के आभाव में वह बिल्कुल डर गई और उसे लगा शायद वह कोई बीमारी की शिकार हो चुकी है।
डरकर उसने अपनी माँ को यह बात ना बताकर अपनी चाची से यह बात साझा की। उसकी चाची ने उसे समझाया कि यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है अब तुम बड़ी हो गई चुकी हो। उसके जीवन में तब मोड़ आया जब एक्शन इंडिया नाम की एक संस्था ने महिला स्वास्थ्य पर कार्य करना प्रारंभ किया और काठि खेड़ा में एक पैड बनाने की फैक्ट्री लगाई।
ग्रैजुएट हो चुकी स्नेह ने भी वहां कार्य प्रारंभ किया। शरुआत में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा, वह अपने घर में भी यह कहकर कार्य करती कि वहां वह बच्चों के लिए डाइपर बनाए जाती है। आज भी गांव के लोग इस कार्य को हेय दृष्टि से ही देखते हैं।
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अमूमन देश के अधिकांश हिस्सों में आज भी महावारी यानि कि पीरियड्स को एक बड़ा अभिशाप माना जाता है। आज भी महिलाओं को इस वक्त कई आयोजनों से दूर रहना पड़ता है। एक सरल प्राकृतिक प्रक्रिया को जो मानवीय जीवन का आधार है, उसे ही हेय दृष्टि से देखा जाना एक समाज की विफलता नहीं तो और क्या है।
सरकार के कई प्रयासों के बाद भी इसके प्रति कई महिलाएं जागरूक नहीं हैं और सैनेटरी पैड का इस्तेमाल नहीं करती हैं। यहां तक कि इसपर खुलकर बात भी नहीं करती हैं।
‘पैडमैन’ जैसी फिल्मों ने भी समाज के भीतर इस मिथ्य को समाप्त करने की पूरी कोशिश की पर समस्या आज भी जस के तस बनी हुई है। अब तो सैनेटरी पैड की बदौलत एक ऑस्कर भी आ गया, मीडिया और समाज में वह उत्साह नहीं तो शायद अन्य फिल्मों में इस विषय को तवज्जो मिल रही है।
माहवारी के प्रति जागरूकता लाने के लिए अभी कई प्रयासों की ज़रूरत है। जिसे हम कल तक अभिशाप समझते थे आज वही मुद्दा विश्व मंच पर चर्चा का विषय बना, शायद निकट भविष्य में यह एक सामान्य बात हो।