उर्दू शायरी के बेहतरीन शायरों में से एक डॉ राहत इन्दौरी अक्सर यह बात कहते हैं कि एक अच्छा शेर कहने में कभी-कभी दस महीने या उससे भी ज़्यादा वक्त लग जाता है। कोई भी अच्छा और गहरा शेर इतनी आसानी से ज़हन में नहीं आ पाता। अच्छे शेर की यही खासियत है कि वह दिलों में बस जाए और जो मज़ा पूरी किताब पढ़कर आए, वह मज़ा अकेले एक शेर ही दे दे। उदाहरण के लिए इस शेर को ले सकते हैं-
तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता
उर्दू शायरी के महानतम शायर मिर्ज़ा ग़ालिब को मोमिन खां मोमिन का यह शेर इतना पसन्द आया कि ग़ालिब अपना पूरा दीवान इस शेर के बदले दे रहे थे। जब कभी इसी तरह के बेहतरीन शेरों की सूची बनेगी तो उस लिस्ट में “शमीम शाहजहांपुरी” की एक शेर को अलग ही मुकाम हासिल होगी क्योंकि वह शेर जब “सज्जाद ज़हीर” के सामने पहुंचा था तो सज्जाद ज़हीर ने अपनी खास डायरी में इस शेर को दर्ज़ कर लिया।
मैं कि अल्फ़ाज़ की वादियों का ख़ुदा क़र्नहाक़र्न शोअलों में जलता रहा,
पत्थरों, काग़ज़ों, पेड़ की छाल पर ख़ून रोती रही हैं मेरी उंगलियाँ
शमीम शाहजहांपुरी का यह शेर उंगलियों के सफर को बहुत खूबसूरती के साथ बयान करता है कि कैसे उंगलियों ने एक कभी ना खत्म होने वाली यात्रा तय करके विश्व के बेशुमार ज्ञान को हम तक पहुंचाने का काम किया है। इन उंगलियों के ही दम से हमने साहित्य को समझा और जाना है।
जिन उंगलियों ने इस ज्ञान के खजाने को समाज तक पहुंचाया, क्या उन उंगलियों को इस समाज से कुछ मिला? इसी बात की तरफ शमीम शाहजहांपुरी अपने इस शेर के ज़रिए इशारा कर रहे हैं कि यह ज्ञान का सफर जो गुफाओं से शुरू होकर आज इंटरनेट तक पहुंच गया है, जो हर विषय को समाज तक पहुंचाने का काम कर रहा है और समाज ने हर क्षेत्र में बहुत ज़्यादा उन्नति कर ली है, क्या उन उंगलियों ने भी वहीं उन्नति की है?
जीते जी क्या कलम के जादूगरों को वह इज्ज़त मिली जिसके वह सभी, सही मायने में हकदार थे? इस बात का ज़बरदस्त उदाहरण गुरु दत्त की फिल्म प्यासा का वह दृश्य है, जिसमें समाज को लगता है कि शायर मर चुका है और मरने के बाद समाज उसे कितना अधिक महान बना देता है, जबकि वह शायर ज़िन्दा होता है और उसके जीते जी उसके भाई भी उसे पहचानने से साफ इंकार कर देते हैं। उसके मरने के बाद उससे ऐसा रिश्ता और मोहब्बत का बखान किया जाता है, जैसे उन्हें सबसे ज़्यादा मोहब्बत उससे हो।
इस दिखावे का एक और उदाहरण फिल्म बागवान है कि जब तक पिता के पास पैसे नहीं होते हैं तब तक उनकी इज्ज़त नहीं होती बल्कि उन्हें एक बोझ समझा जाता है और जैसे ही पैसे आते हैं वैसे ही दुनियाभर की मोहब्बत का दिखावा और दोहरा एखलाक शुरू हो जाता है।
शमीम शाहजहांपुरी का यह शेर समाज के इस व्यवहार को बता रहा है कि किस प्रकार समाज दोहरा रवैया और दिखावा करने में महारथ रखता है। यह शेर बता रहा है कि इन उंगलियों ने समाज को बहुत कुछ दिया लेकिन समाज ने उंगलियों को कुछ नहीं दिया और यह हाल सभी का है कि आप किसी के लिए कुछ भी कर दो हर आदमी डंक मारने के लिए तैयार बैठा है।