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“साहब, क्या न्याय को पैसों से खरीदा जा सकता है?”

सुबह से शाम तक के सफर में भीड़ में बहुत लोग टकरा जाते हैं और बहुत बातें साझा भी की जाती हैं। यह संभव नहीं कि हर बात हमारे ज़हन में जगह बना ले लेकिन बीते दिनों एक टैक्सी ड्राइवर के साथ हुई बातचीत ने ना केवल मेरे ज़हन में जगह बनाई बल्कि कई सवाल भी खड़े कर दिए। उसके जवाब मेरे पास नहीं है या कह सकते हैं उन जवाबों को मानने के लिए मैं तैयार नहीं।

दिल्ली हाईकोर्ट जाने के लिए टैक्सी करने पर रोज़ाना की तरह सफर शुरू तो हुआ लेकिन हाईकोर्ट पहुंचते पहुंचते गुफ्तगू कुछ अनसुलझे पहलू को छू गया।

फोटो प्रतीकात्मक है। सोर्स- Getty Image

“अच्छा यह बताइये क्या न्याय को खरीदा जा सकता है”? उस ड्राइवर का यह सवाल कोई नया नहीं था लेकिन शायद ऐसा सवाल था जिसपर हम सीधा बहस करने से बचते हैं इसलिए कुछ अलग ज़रूर लगा। “खरीदने और बेचने का तो पता नहीं लेकिन आखिर तक लड़ो तो न्याय ज़रूर मिलता है”, कहकर मैंने उस सवाल में झलक रही नकारात्मकता को दूर करने की कोशिश ज़रूर की लेकिन शायद उस नकारात्मक सवाल के पीछे वजह इतनी मज़बूत थी कि मेरी कोशिश असफल साबित हुई।

“मगर ऐसा कहा जाता है ना कि देखो उस जज को खरीद लिया”, जब उस ड्राइवर ने मुझसे यह कहा तो मेरे पास “हां कहते तो हैं” कहने के सिवाय कुछ बचा नहीं था। यह कोई छुपी हुई बात नहीं है और पिछले दिनों पैसे लेते हुए रंगे हाथों जज को पकड़ा भी गया है।

“मेरे एक दोस्त ने किसी को गाड़ी से मार दिया था और फिर पैसे देकर खुद को बरी करवा लिया, बताओ जी अब उसका थोड़े ही कोई कुछ बिगाड़ पाया”। अपनी बात साबित करने के लिए उनके पास पुख्ता दलीलें थीं और इस बात से मैं इंकार भी नहीं कर सकता था क्योंकि हमने भी सुना तो है कि ऐसा होता है।

“अच्छा यह बताओ ये जो हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज हैं इनको भी खरीदा जा सकता है क्या?” यह सवाल मेरे चेहरे पर मुस्कराहट ले आया, वह शायद इसलिए कि मैं समझ चुका था कि उनको अब नीचे की अदालत में अपने दोस्त पर हो रही कर्रवाई से अंदाज़ा हो चुका है कि वहां क्या-क्या हो रहा है और क्या क्या होता है।

“हाईकोर्ट में तो मुश्किल होता है और सुप्रीम कोर्ट में तो संभव ही नहीं क्योंकि वहां तक पहुंच लगाना संभव नहीं और वैसे भी वहां तक कुर्सी में पहुंचने वाले इतने मेहनती होते हैं कि उनको खरीदने और बेचने का सोचना भी असंभव है।” अब मैं इस मुकदमे को हारने और जितने से ज़्यादा नकारात्मकता को कम करने में लग गया था, क्योंकि मुझे भी एहसास है कि आम आदमी के मन में कानून के बारे में और अदालती कर्रवाई के बारे में क्या सोच है लेकिन मैं नहीं चाहता कि उस सोच से हम इतने नकारात्मक हो जाये कि हमारा विश्वास न्याय से उठ जाये।

“मतलब अगर मेरे दोस्त का केस सुप्रीम कोर्ट तक आ जाये तो उसको सज़ा मिल सकती है?” इस सवाल पर मेरे थोड़े अलग रिएक्शन देखकर उन्होंने आगे कहा, “देखो है तो मेरा दोस्त लेकिन सामने वाले भी गरीब हैं, न्याय तो न्याय है गरीबों तक पहुंचना तो चाहिए ना?” यह सवाल उनका केवल मुझसे नहीं इस सिस्टम से था कानून व्यवस्था से था, दलील देने वाले वकीलों से था और न्याय देने की भूमिका निभाने वाले जजों से था।

“लेकिन देखो गरीब भी पैसे लेकर मामले को रफा दफा करते हैं उनको तो मालूम है कि सज़ा मिलने के बाद भी गया हुआ वापिस तो लौटने वाला नहीं”, मैंने अपनी दलीलों को जारी रखा जिसपर उसने सहमति ज़ाहिर भी की लेकिन उसका सवाल वाज़िब था कि फिर सज़ा का क्या मतलब है अगर कोई गरीब अपने परिवार वाले के सड़क पर मरने पर मारने वाले को सज़ा नहीं दिलवा सकता।

दोनों मुस्कुराते हुए सफर की मंजिल तक पहुंच गए और फिर मिलेंगे कहकर दोनों अपने-अपने नए सफर पर निकल गए लेकिन कुछ सवाल के जवाब अधूरे ही रह गए, जिनको ढूढ़ने की ज़रूरत है, क्योंकि आज भी अदालतों में जाकर न्याय मिलेगा कहकर मुकदमे डालने वाले लोग हैं, जिनको लगता है कि सामने बैठा जज भगवान बनकर उसके लिए न्याय करेगा।

समय की मांग है कि गरीबों के मन में बढ़ रही नकारात्मकता को दूर कर उनको बताये कि अगर आपके साथ कोई अन्याय करता है तो अदालत है, जो आपको न्याय दिलाए, बिना यह देखे कि आपके पास कितने पैसे हैं, बिना यह देखे कि आप किस समाज से हैं, बिना यह देखे कि आप कहां के निवासी हैं और बिना यह सोचे कि आपने जिसके खिलाफ मुकदमा किया है वह कौन है।

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