बहुत कुछ ऐसा था जिससे मैं अनभिज्ञ था। मैं सोचता था सैनिक ‘सैनिक’ होते हैं, उनमें भला कैसा अंतर। एक दिन इस विषय पर (एनएमओपीएस) नैश्नल मूवमेंट फॉर ओल्ड पेंशन स्कीम के राष्ट्रीय अध्यक्ष विजय कुमार बन्धु से जब चर्चा हुई, तब उन्होंने सैनिकों को लेकर कुछ ऐसी परतों को खोला जिसे सुनकर मैं दंग रह गया।
एक आज़ाद देश में ऐसा कैसे हो सकता है कि एक जवान पुरानी पेंशन का लाभ ले और एक सैनिक पुरानी पेंशन के दायरे से बाहर रहे। जी हां, ऐसे सैनिकों को अर्द्धसैनिक बलों का दर्ज़ा प्राप्ता होता है।
उन्हें वह सुख सुविधाएं प्राप्त नहीं हैं जो अन्य सैनिकों को दी जाती हैं। सोचने का विषय है कि माँ भारती पर शहादत दोनों बेटे देते हैं। ऐसे में क्या यह सम्भव है कि माँ भारती सिर्फ एक बेटे को अधिक प्यार करें। खैर, मेरे नज़रिये से ऐसा संभव नहीं है। यदि ऐसा नहीं तो यह अन्याय इन सरकारों द्वारा क्यों ?
वन रैंक वन पेंशन के लिए फिर इकट्ठे होंगे अर्धसैनिक बलों के जवान
इन्हीं तमाम प्रश्नों के उत्तर जानने हेतु मैं 3 मार्च को पैरामिलिट्री द्वारा दिल्ली में आयोजित आंदोलन में उपस्थित रहूंगा। जंतर मंतर की सरजमीं पूछेगी इन सरकारी हुक्मरानों से कि क्या देश पर शहादत देने वाले जवानों के जीवन का कोई मोल नहीं? क्या देश के जवान शहादत देने के बाद अपने परिवारों को सड़क पर भीख मांगने को छोड़ दें?
जवानों के परिवारवालों के लिए सोचना होगा
हमें खुद पर शर्म आनी चाहिए कि जवानों की शहादत के बाद उनके परिवारों को दर-दर की ठोकरें खानी पड़े। इसी कड़ी में मुझे चंद्रशेखर आज़ाद की एक घटना याद आती है।
एक बार की बात है जब चन्द्रशेखर आज़ाद से किसी ने पूछा, “पंडित जी, पार्टी का सारा फंड आप ही के पास रहता है, आपके माता-पिता गाँव में बहुत बुरी हालत में जीवन यापन कर रहे हैं। आप उनकी मदद क्यों नही करते?”
चन्द्रशेखर आज़ाद की यह बात प्रासंगिक है
इस बात पर चन्द्रशेखर आज़ाद ने 2 उत्तर दिए। पहला उत्तर दिया कि माँ-बाप सिर्फ मेरे नहीं बल्कि और भी क्रांतिकारियों के हैं। मैं उन सबके साथ धोखा नहीं कर सकता हूं।
द्वितीय उत्तर दिया कि मेरे माँ-बाप की सेवा तुम ना कर सको तो मुझे बता देना। मेरे पिस्तौल की 2 गोलियां उनके सीने में उतर कर उनकी सेवा कर देंगी।
यह द्वितीय उत्तर आज वर्तमान परिदृश्य में पूर्ण रूप से यथार्थ लगता है। परन्तु हम सभी को सोचना होगा कि उनके व उनके परिवार के लिए हम क्या कर रहे हैं?
सरहद पर तैनात रहने वालों को उचित सम्मान देना होगा
जो स्वतंत्रता आंदोलन में शहीद हो गए और जो आज सीमा पर शहीद हो रहे हैं, उन्हें आज तक वह उचित सम्मान नहीं मिला जो उनको दिया जाना चाहिए था। अनेक सैनिकों को शहादत के बाद भी गुमनामी का अपमानजनक जीवन जीना पड़ रहा है। यह शब्द उन्हीं पर लागू होते हैं-
उनकी तुरबत पर नहीं है एक भी दीया,
जिनके खून से जलते हैं ये चिराग-ए-वतन।
जगमगा रहे हैं मकबरे उनके,
बेचा करते थे जो शहीदों के कफन।।
अनेक शहीदों के परिवार गुमनामी में जी रहे हैं। अनेक क्रांतिकारियों के घर आज भी जर्जर हालत में हैं। उन्हें उम्मीदें हैं कि काश कोई आएगा जो छप्पर हटा कर एक छत दे जाएगा।
यदि ऐसा ही रहा तो विश्वास रखिए इन शहीदों की बची हुई पीढ़ी भी नितांत गरीबी में समाप्त हो जाएगी। निराशा में आशा की किरण यही है कि सामान्य जनता में उनके प्रति सम्मान की थोड़ी-बहुत भावना अभी भी शेष है।
उस आगामी पीढ़ी तक इनकी गाथाएं पहुंचाना हमारा दायित्व है। क्रान्तिकारियों व शहीदों पर लिखने के कुछ प्रयत्न हुए हैं। आज उनकी मुलभूत समस्याओं को समझते हुए उन पर अमल किया जाना बेहद ज़रूरी है।
अर्धसैनिक बलों की सुविधाओं, सेवानिवृति के बाद पुरानी पेंशन और उनको शहीद का दर्ज़ा दिए जाने जैसे विषयों पर सरकार त्वरित निर्णय लेते हुए जनमानस को एक सकारात्मक संदेश दे कि सरकार शहीदों के हित मे कितनी संजीदा है।