पिछले दिनों केंद्र सरकार ने अंतरिम बजट पेश किया, अपने अंतिम बजट में मौजूदा मोदी सरकार ने फिर इस बार लगातार चार वर्ष से चल रही परिपाटी को कायम रखते हुए खोखले वादे और जुमलों की बारिश की।
टैक्स स्लैब 2.5 लाख से बढ़कर 5 लाख करने की बात की गई, ज़रा देखें कि घटी हुई टैक्स दरें वर्ष 2020-2021 से लागू होंगी। स्मार्ट शहर तो बने नहीं किन्तु सरकार ने अगले पांच सालों में एक लाख डिजिटल गाँव बनाने का वादा किया है। मज़े की बात यह कि मोदी सरकार का कार्यकाल ही इस साल अप्रैल में खत्म हो रहा है अर्थात यह कुछ ऐसा है कि थाली अभी लो पर भोजन अगले साल परोसा जायेगा।
इसके अतिरिक्त बजट में यह भी कहा गया कि 2 हेक्टेयर से कम खेती वाले छोटे किसानों को प्रति वर्ष 6,000 रुपया सहायता निधि के तौर पर दिए जायेंगे, यानी हर माह महज़ 500 रुपए। अब ज़रा सोचिये विगत 5 सालों में सरकार की किसान-विरोधी नीतियों के कारण कर्ज़ के बोझ से दबे हुए किसानों को यह तथाकथित राहत देकर सरकार केवल अपनी पीठ थपथपा सकती है। वास्तविकता यह है कि सहायता के तौर पर दिए जाने वाले 500 रुपये प्रति माह बदहाली से त्रस्त किसानों के लिये नाकाफी हैं।
शिक्षा और रोज़गार पर सरकार का मज़ाक
खैर, बजट के हरेक बिंदुओं पर विस्तार से बात करना स्थान की कमी के कारण इस लेख में सम्भव नहीं है पर शिक्षा और रोज़गार के विषय पर सरकार ने बजट में जो रवैया अपनाया उसके बारे में चर्चा करना आवश्यक है। पूरे बजटीय भाषण में पीयूष गोयल ने रोज़गार के विषय पर सिर्फ यह कहा कि पब्लिक सेक्टर और फैक्टरियों से रोज़गार के अवसर पैदा होने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। अब युवाओं को स्वरोज़गार के अवसर तलाशने चाहिए। यानी सरकार अब यह डंके की चोट पर कह रही है कि वह अब रोज़गार के विषय पर कुछ नहीं करने वाली है, युवा अपना इंतज़ाम खुद कर ले।
एक तो देश के युवा पहले से बेरोज़गारी से त्रस्त हैं, उसपर से सरकार यह कहकर उनपर और बोझ डाल रही है कि युवाओं को खुद के लिये रोज़गार तलाशने वाला नहीं अपितु दूसरों को रोज़गार देने वाला बनना होगा। क्या यह हास्यास्पद नहीं है? ज़्यादा दिन नहीं बीते जब हमारे प्रधानमंत्री जी ने पकौड़े तलने को रोज़गार की संज्ञा दी थी।
याद कीजिये यह वही सरकार है जिसने 2014 के लोकसभा चुनावों में देश के युवाओं से हर साल 2 करोड़ रोज़गार देने का वादा किया था पर अब पांच वर्षों के बाद रोज़गार के सवाल पर अजीब बयानबाज़ी कर रही है। नैशनल सैंपल सर्वे ऑफिस के एक डेटा के अनुसार भारत में बेरोज़गारी पिछले 45 साल में सबसे ज़्यादा मोदी सरकार के दौरान रिकॉर्ड की गयी है, उसके सामने आने के बाद सरकार को काफी फज़ीहत झेलनी पड़ी रही है।
शिक्षा बजट में मामूली इज़ाफा
इस बार के बजट में शिक्षा क्षेत्र को तवज्ज़ों नहीं दी गयी है। इस बार के शिक्षा बजट में पिछले वर्ष की तुलना में मामूली इज़ाफा किया गया है, पर यह अपर्याप्त है। देशभर में शिक्षकों के दस लाख के लगभग पद खाली हैं परन्तु इन्हें भरने को लेकर सरकार ने चुप्पी ही साधी हुई है। सरकारी स्कूलों की हालत सुधारने लिए ठोस कदम के लिये चर्चा नहीं की गयी है साथ ही बुनियादी शिक्षा से महरूम लाखों बच्चों को स्कूलों में शामिल करने को लेकर कोई भी स्पष्ट दिशा निर्देश बजट में नहीं दिखता है।
उच्च शिक्षा को लेकर सरकार अपने पुराने रुख पर ही कायम है, आज जब हर तरफ उच्च शिक्षा में खर्चे बढ़ाने की मांग हो रही है तब सरकार इसे बढ़ाने की बजाय और घटा रही है। इस बजट में यूजीसी व एआईसीटीई के बजट में कटौती की गयी है। वैसे भी पहले ही सरकार यह कह चुकी है कि शिक्षण संस्थानों को अनुदान की बजाय HEFA जैसी संस्था के माध्यम से फाइनेंस दिया जायेगा, जिसका एक बड़ा हिस्सा शिक्षण संस्थानों को वापस चुकाना भी होगा।
शिक्षण संस्थानों को वित्तीय स्वायत्ता देने के नाम शिक्षा पर होने वाले खर्च से सरकार अपने हाथ खींच रही है। इन कदमों का सीधा असर फीस पर पड़ेगा, जिससे विद्यार्थियों पर आर्थिक बोझ बढ़ेगा। अगर इस तरह की परिपाटी चलती रही तो वह दिन दूर नहीं जब शिक्षा आम घरों से आने वाले छात्र-छात्राओं की पहुंच से दूर हो जाएगी।
संक्षेप में कहा जाए तो पूरे बजट का लब्बो लुआब यही था कि शिक्षा और रोज़गार के प्रश्न से सरकार जानबूझकर दूर भागती दिख रही थी। छात्र-युवाओं की बड़ी आबादी के लिए अब अस्तित्व का ही संकट पैदा हो गया है। ऐसे समय में यह आवश्यक हो जाता है कि देश में मज़बूत छात्र युवा आन्दोलन को संगठित किया जाए, जिसके केंद्र में शिक्षा वा रोज़गार का मुद्दा हो।