असर (एनुअल स्टेट्स ऑफ एजुकेशन) 2018 की रिपोर्ट के प्रकाशन के साथ भारत में स्कूली शिक्षा की स्थिति पर चर्चाओं का दौर आरंभ हो चुका है। असर की रिपोर्ट चयनित गाँवों के हाउसहोल्ड सर्वेक्षण के आधार पर प्राथमिक विद्यालयों तक बच्चों की पहुंच, उपलब्धि और विद्यालयों के ढांचागत संरचना के आंकड़े प्रस्तुत करती है।
यह आंकड़े स्कूली शिक्षा की व्यक्ति और समाज के साथ अन्तः क्रिया के बारे में कुछ महत्वपूर्ण रूझान देते हैं। इस रिपोर्ट में स्कूलों में नामांकन जैसे पैमानों पर सकारात्मक वृद्धि दर्ज़ की गई है लेकिन विद्यार्थियों की उपलब्धि का कमज़ोर होना स्कूली शिक्षा की चिंताजनक हालात को दर्शाता है।
‘शिक्षा के अधिकार कानून’ का असर
उदाहरण के लिए 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों का स्कूलों में नामांकन लगभग 95 प्रतिशत है। वहीं, 11 से 14 वर्ष तक की आयु वाली 4.1 प्रतिशत लड़कियां विद्यालय नहीं जाती हैं। यह सार्थक बदलाव शिक्षा के अधिकार कानून के धरातल पर क्रियान्वित होने के परिणाम हैं।
इस वर्ष सरकारी और निजी स्कूलों में नामांकन प्रतिशत लगभग बराबर हैं। यह अर्थ लगाना कि सरकारी स्कूल, निजी स्कूलों के बदले अधिक आकर्षक हो गए हैं, जल्दबाज़ी होगी।
कुछ लोग ऐसा भी सोच सकते हैं कि जो बच्चे पहले निजी स्कूलों में जाते थे क्या अब वे सरकारी स्कूलों में आ रहे हैं? आंकड़े इस निष्कर्ष तक पहुचंने में मदद नहीं करते।
वर्ष 2018 में लगभग एक चौथाई सरकारी स्कूलों में आज भी बच्चों का नामांकन 60 और इससे कम है। इस वृद्धि में वे बच्चे शामिल हैं जो निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार ना मिलने पर स्कूल के बाहर ही रह जाते हैं।
शिक्षा का अधिकार कानून 2009 के बाद से स्कूलों की संख्या में वृद्धि, ढांचागत संरचना में सुधार और स्कूल तक बच्चों को लाने के लिए की जाने वाली पहलों के कारण सरकारी विद्यालयों में नामांकन बढ़ी है। आज भी सरकारी स्कूल ‘कुछ ना होने से कुछ होने का’ विकल्प हैं।
हालात बदल रहे हैं
स्कूल में बच्चों के नामांकन के उलट उनकी उपलब्धि के आंकड़ों को देखिए। वर्ष 2008 में कक्षा 8 में पढ़ने वाले लगभग 85 प्रतिशत विद्यार्थी कक्षा 2 की किताब पढ़ सकते थे जबकि 2018 में इनकी संख्या घटकर लगभग 73 प्रतिशत हो गई है।
इसी तरह कक्षा 8 के केवल 44 प्रतिशत बच्चे तीन अंकों में एक अंक से भाग दे सकते हैं। ध्यान रखिएगा कि बच्चों की अकादमिक उपलब्धि के संदर्भ में निजी स्कूलों के बच्चे सरकारी स्कूलों के बच्चों से बेहतर हैं।
इसके पक्ष में निजी स्कूलों की आधार-संरचना, अध्यापकों की निगरानी और आउटपुट के लिए समर्पित प्रबंधन का तर्क पर्याप्त नहीं है। निजी स्कूलों के बच्चे ऐसे परिवारों से आते हैं जिनके पास सांस्कृतिक और सामाजिक पूंजी है, जो उन्हें घर पर पढ़ने-पढ़ाने में सहयोग देती है।
सरकारी स्कूलों के बच्चों और अभिभावकों के संदर्भ में इसका अभाव है। अतः बच्चों की उपलब्धि और सीखने में एक सांस्कृतिक अंतर है जो स्कूल में प्रवेश के पहले से सक्रिय हो जाता है। इसके लिए संज्ञानात्मक कारकों के बदले गैर- संज्ञानात्मक कारकों का योगदान है जो बच्चों के नियंत्रण से परे हैं।
अमीरी और गरीबी एकमात्र कारण नहीं
असर की रिपोर्ट इशारा करती है कि शैक्षिक अवसरों की समानता व गुणवत्ता की दृष्टि से गाँवों में बसने वाला भारत ऐसी भौगोलिक इकाई बनता जा रहा है जहां शिक्षा के मूलाधिकार की प्रक्रिया और परिणाम में गहरी खाई है। अमीरी और गरीबी ही इसका एकमात्र कारण नहीं है।
जेंडर, जाति, क्षेत्र, भाषा और धर्म भी इनसे जुड़कर एक जटिल जाल बना रहे हैं जिनसे सामाजिक हाशियाकरण को भी बल मिल रहा है। इसलिए अपनी संस्थागत उपस्थिति के बावजूद हमारे स्कूल आधुनिकता के एजेंडे को पूरा नहीं कर पा रहे हैं।
‘आधुनिक शिक्षा’ के प्रति समाज यह विश्वास करता है कि इससे व्यक्ति में आर्थिक सामर्थ्य आएगा और वह लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाला नागरिक बनेगा।
जिन बच्चों ने असर-2018 में हिस्सा लिया और जिनकी उपलब्धि के आंकड़े भविष्य में उनकी असफलता की संभावना पर बल देते हैं वे आर्थिक स्वावलंबन के लक्ष्य से दूर जा रहें हैं, क्योंकि आधुनिक राज्यों में साक्षरता प्रधान रोज़गारों की ही भरमार है।
अर्थव्यवस्था के फलक पर गाँवों की जो स्थिति है उसमें यह तो स्पष्ट है कि रोज़गार और जीविका की दृष्टि से गाँव लोगों को रोक पाने में सक्षम नहीं है। गाँव से लगातार बड़ी आबादी का पलायन हो रहा है।
स्कूली शिक्षा द्वारा असफलता की ओर ढकेली जाने वाली यह आबादी जब गाँव के बाहर जाएगी तब शहर में ऐसे लोगों की भीड़ बढ़ेगी जिन्हें नौकरी की ज़रूरत है लेकिन जिनके पास आधुनिक अर्थव्यवस्था के रोज़गार की शर्तों को पूरा करने की क्षमता नहीं है।
असर की रिपोर्ट से स्पष्ट है कि ग्रामीण भारत में स्कूल जाने की उम्र वाले बच्चों के लिए स्कूल ऐसी जगह बनता जा रहा है जहां बच्चे अपने दिन का बड़ा हिस्सा तो बिताते हैं लेकिन इस संस्था की दिनचर्या का आयोजन जिस उद्देश्य से होता है उसे वे पूरा नहीं कर पा रहे हैं।
हमें मानना होगा कि सभी बच्चे स्कूल जाएं और सबको गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले। यह दो धराएं ना होकर एक दूसरे से परस्पर संबंधित और अपरिहार्य शर्तें हैं। इनमें से किसी एक को पूरा करके संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता है।
केवल शिक्षक ही ज़िम्मेदार क्यों?
कुछ वर्षों पूर्व तक बच्चों की स्कूली शिक्षा में असफलता का ठीकरा शिक्षकों के सर फोड़ा जाता था। उनकी अनुपस्थिति, वृत्तिकता, विषय और पढ़ाने के ज्ञान आदि के आधार पर आलोचना की जाती है।
इतना तो तय है कि उन्हें कटघरे में खड़ा करके हल नहीं खोजा जा सकता है। इस समस्या के समाधान के वे केन्द्रीय अभिकर्ता हैं। उन पर संदेह करने और उनके कार्यों की निगरानी के बजाय विश्वास करना होगा। उन्हें इस योग्य बनाना होगा कि समानता के लिए शिक्षा के रूपान्तरणकारी लक्ष्य में भागीदार बनें।
हमें समुदाय की भागीदारी को भी सार्थक बनाने का प्रयास करना होगा। हमें पूर्व प्राथमिक शिक्षा, बच्चों के स्वास्थ्य और पोषण की सुविधा को मज़बूत करना होगा। सीखने की विधि, सामग्री और दिनचर्या को बच्चों के संदर्भ के अनुसार अनुकूलित करना होगा।
अंततः यह स्थापित करना होगा कि समस्या ना तो बच्चे के संज्ञान में है ना ही उसकी पृष्ठभूमि में बल्कि राज्य और उसके अभिकर्ताओं को बच्चों के लिए शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित करने का सवाल है।
नोट: लेख में प्रयोग किए गए आंकड़े असर की वेबसाइट से लिए गए हैं।