1993 में जब सपा-बसपा गठबंधन हुआ था उस समय मंडल बनाम कमंडल का उत्प्रेरक माहौल था जिसकी वजह से दोनों ही पार्टियों के मूल वोट बैंक में इस प्रयोग ने ज़बरदस्त उत्तेजना पैदा कर दी थी।
हालांकि जहां तक इन पार्टियों के नेतृत्व की बात थी, उनके इरादे पाक-साफ नहीं थे बल्कि मंडल क्रांति को मटियामेट करने के लिए उन्होंने यह कदम उठाया था।
‘जनता दल’ में इसके चलते कराई गई तोड़-फोड़ में मुलायम सिंह पुनरुत्थानवादी शक्तियों के साथ खड़े हो गए थे जिसकी वजह से 1993 के विधानसभा चुनाव में उनके राजनीतिक अस्तित्व पर बन आई थी।
दूसरी ओर बसपा का उस समय स्थापित होने का दौर था जबकि बाबा साहब अंबेडकर को मरणोपरांत भारत रत्न देकर और मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू कर वी पी सिंह ने उनका मंच बीच में ही लूट लिया था।
इससे ईर्ष्या में दग्ध कांशीराम ‘देवीलाल’ और ‘चंद्रशेखर’ जैसे दलितों के प्रति दमनकारी वर्ग सत्ता के प्रतिनिधियों के साथ मंच साझा करने में गुरेज़ नहीं कर पा रहे थे।
मुलायम सिंह की गठबंधन की पहल को उन्होंने वी पी सिंह की मट्टीपलीद करने की मंशा के तहत ही कुबूल किया था। जबकि इस दौरान जिस तरह की सामाजिक क्रांति पैदा हुई थी, उसकी भ्रूण हत्या हो जाए इसकी परवाह उन्होंने नहीं की थी।
गेस्ट हाउस कांड
अंततोगत्वा यह प्रयोग कई अंतर्विरोधों की वजह से धड़ाम हो गया। ‘गेस्ट हाउस कांड’ तो एक सतही वजह थी जिसकी असलियत को लेकर बहुत से लोगों में अभी तक दुविधा की स्थिति है। वर्चस्व को लेकर मुलायम सिंह और मायावती के बीच निजी खींचतान भी इस गठबंधन के धराशायी होने का एक बड़ा कारक रही जिससे इंकार नहीं किया जा सकता है।
इन सबके बीच गठबंधन खत्म होने की सबसे बड़ी वजह यह थी कि भले ही वर्ण व्यवस्था में पिछड़ी जातियां भी तिरस्कार और भेदभाव का दंश झेलती रही हों लेकिन इस नाम पर स्वाभिमान की लड़ाई लड़ने की शिद्दत उनमें दलितों की तरह नहीं है।
वर्गीय विरोधाभास
बाबा साहब अंबेडकर की थ्योरी को अगर मान लिया जाए तो पिछड़ी जातियों के लोग अतीत में क्षत्रीय ही थे लेकिन ब्राह्मण क्षत्रीय संघर्ष के दौर में इन्हें जनेऊ के अधिकार से वंचित होना पड़ा जिसकी वजह से इनका सामाजिक दर्जा गिर गया।
बहरहाल, भारतीय समाज में कोई जनेऊ फिर से हासिल करने को तड़प रहा है, कोई जनेऊ छिन जाने के डर से भयभीत भी है। इनकी यही सोच वर्ण व्यवस्था को कमज़ोर करने की बजाय उसे मज़बूती देती है। इस ग्रन्थि ने पिछड़ों की शरणागत नियति निर्धारित कर रखी है।
इसके अलावा ज़्यादातर पिछड़ी जातियां खेतिहर हैं जिसके चलते कुलक चरित्र की क्रूरता का पुट दलितों के प्रति व्यवहार में उनका क्षत्रीयों की तरह रहता है। वर्ण व्यवस्था में संपत्ति के अधिकार से वंचित किए जाने के कारण जीवन यापन के लिए दलित पुश्तैनी तौर पर खेतिहर मज़दूर बने रहने को अभिशप्त रहे। इस वर्गीय विरोधाभास ने भी दलितों और पिछड़ों के संग को केर बेर का बना दिया।
इसलिए 1995 में गठबंधन की गांठ टूटने के बाद समूचे उत्तर भारत की तरह उत्तर प्रदेश में भी पिछड़ा तबका मंदिर सहित परम्परागत धार्मिक मुद्दों पर बहकता रहा। दलितों में उसे भी अधम चेहरा देखने की बीमारी गहराती रही।
अखिलेश जब मुख्यमंत्री बने तब वर्ण व्यवस्था के प्रति स्वामी भक्ति के संस्कार उन्हें अपनी सरकार के एजेंडे में दलित विरोधी नीतियों को प्राथमिकता देने के लिए उकसाते रहे। पदोन्नत दलित अधिकारियों को रिवर्ट करके उन्होंने जो उत्साह दिखाया, वह इसकी मिसाल है।
ऐसा हुआ सपा-बसपा गठबंधन संभव
प्रदेश में भाजपा के फिर सत्तारुढ़ होने और योगी के मुख्यमंत्री बनने के बाद परिस्थितियां बाढ़ में अस्तित्व रक्षा के लिए आदमी और सांप के एक ही नाव में आ बैठने जैसी हो गई हैं। इस वजह से एक बार फिर सपा-बसपा गठबंधन संभव हुआ है। प्रदेश के 3 लोकसभा उप चुनावों में पहले इस प्रयोग का परीक्षण किया गया जो बेहद कामयाब रहा। इसलिए भाजपा उत्तर प्रदेश में इस बार पहले से ज़्यादा सीटें झटक लेने की डींगे भले ही हांके लेकिन वास्तविकता में उसका इंद्रासन डोल उठा है।
हालांकि इस गठबंधन में सब कुछ हरा-भरा ही नहीं है, स्याह सफेद भी बहुत कुछ है। गठबंधन की घोषणा के लिए जब मायावती और अखिलेश यादव पत्रकार वार्ता कर रहे थे उस समय प्रधानमंत्री पद को लेकर भी सवाल आया था। अखिलेश ने जवाब दिया था कि वह चाहते हैं अगला प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश से ही हो।
उनके साफ जवाब ना देने की व्याख्या यह की गई कि वह मौका मिलने पर मायावती की बजाय गठबंधन की ओर से अपने पिता मुलायम सिंह का नाम आगे बढ़ाने की सहूलियत बनाए रखना चाहते हैं।
क्या मुलायम अपनाएंगे चरखा दांव
पैने विश्लेषकों का कहना है कि माज़रा कुछ और है। अगर वह आज स्पष्ट रूप से मायावती का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए लेना शुरू कर दें तब उनके पिता भड़क जाएंगे जिससे चाचा शिवपाल के कारण यादव समर्थन में उनका जो कुछ क्षरण हो रहा है उसका स्वरूप विस्फोटक हो जाएगा।
उन्हें पता है कि स्वास्थ्य कारणों से नेताजी के लिए किसी गुरुतर ज़िम्मेदारी को उठाना अब संभव नहीं रह गया है। इसलिए अखिलेश का इरादा कुछ और है। उनकी धारणा है कि अगर वह दिल्ली की कुर्सी का नेग बुआजी को दे दें तो बदले में बुआजी उन्हे लखनऊ की कुर्सी निष्कंटक देने में नहीं कतराएंगी।
उधर मुलायम खेमे की खबर यह बताई जाती है कि नेताजी यद्यपि अपने पुत्र के ही साथ हैं और जानते हैं कि फिलहाल अस्तित्व रक्षा के लिए मायावती से गठबंधन करना अखिलेश के लिए ज़रूरी है। वहीं, मायावती को एक सीमा से ज़्यादा बर्दाश्त करना आज भी उन्हें गवारा नहीं है।
इसलिए चुनाव में वह चरखा दांव आजमा सकते हैं जिसका अर्थ है जहां बसपा के उम्मीदवार होंगे वहां वे उनकी बजाय शिवपाल के प्रत्याशी का साथ देने का इशारा यादवों को कर सकते हैं। इससे भले ही भाजपा के उम्मीदवारों को फायदा मिले नेताजी को परवाह नहीं होगी।
संबंध निभाने में मुलायम सिंह का कोई सानी नहीं माना जाता और मोदी के साथ संबंधों का ख्याल भी उन्हें ज़रूर होगा। बहरहाल मुलायम सिंह के इस पैंतरे की भनक बसपा नेतृत्व को भी लग गई है नतीजतन बसपा खेमा बहुत चौकन्ना है।