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कविता: घड़ी-घड़ी की बात है, फिर खड़ा चुनाव है

युवाओं की रैली

युवाओं की रैली

घड़ी-घड़ी की बात है

दिन खत्म तो रात है,

यह भी एक पड़ाव है

फिर खड़ा चुनाव है।

 

पैंतरा जो आखरी

आज़मा ले आज ही,

तेरे घर के सामने

हैं कई मकां बड़े,

 

उनमें जो भी लोग हैं

अपने आप में उद्योग हैं,

देश की जो आत्मा

गुमशुदा भटक रही,

खेत की जो मेड़ पे

या पेड़ से लकट रही।

 

माँ भारती के वक्ष पे

देख कितने घाव हैं,

यह भी एक पड़ाव है

फिर खड़ा चुनाव है।

 

शहीद की चिता पे जो

लग रहे थे मेले वो,

तेरे रंग में रंगे हों

तब लग सकेंगे क्या?

 

ना मेरा कोई रंग है

ना मेरा कोई संघ है,

क्यों मुझसे तेरी जंग है

शहनशाह मुझको बता।

 

मुझको एक काम दे

मेरा भी होने नाम दे,

तू जमा है तख्त पे

मुझे भी कुछ मकाम दे।

 

इस विशाल देश में

मेरा भी एक गाँव है,

यह भी एक पड़ाव है

फिर खड़ा चुनाव है।

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