वसन्त का आगमन होते ही पलास और सरसों ने रंग दे दिए हैं। कुल मिलाकर मन को आनंदित करने वाला दौर है लेकिन वसन्त में इस आनंद पर राजनीतिक उहापोह भारी दिखाई पड़ रही है।
कहीं लोकसभा चुनाव को लेकर चर्चे हैं तो कहीं कर्ज़माफी, किसानों को नगद वितरण और कहीं बेरोज़गारी भत्ते की बहस है। कुछ लोग आरक्षण को लेकर हंगामा भी कर रहे हैं।
शर्मनाक है उच्च सिक्षा की गुणवत्ता रिपोर्ट
इसी बीच एक अंतरराष्ट्रीय संगठन की उच्च शिक्षा की गुणवत्ता के संदर्भ में रिपोर्ट आई है, जिसमें भारत की स्थिति निराशाजनक है। उच्च शिक्षा के मामले में अमेरिका और चीन के बाद भारत तीसरे पायदान पर है।
उच्च शिक्षा की स्थिति बेहद दयनीय
वहीं, विश्विद्यालयों की रैंकिंग करने पर 250 के क्रम तक भी भारत का कोई विश्विद्यालय अपना नाम दर्ज़ नहीं करा पाया। कई महीनों से मेरे मन में एक प्रश्न पूर्णिमा के ज्वार की तरह उछाल मार रहा है।
मेरे इस प्रश्न का उत्तर मुझे ना तो पिछले 70 वर्षों के लोकतांत्रिक इतिहास से मिला और ना ही विगत दस-पन्द्रह वर्षों की चुनावी राजनीति से कुछ समझ हुई।
प्रश्न यह कि हम आरक्षण, रोज़गार और बेरोज़गारी भत्ते सहित उन सभी चीज़ों के लिए लड़ते हैं जो आर्थिक समृद्धि का कारक हैं लेकिन उन सब का वास्तविक आधार शिक्षा हमारे एजेंडे से दूर क्यों? आज भारत में शिक्षा की गुणवत्ता पर कोई बात क्यों नहीं करना चाहता?
बेरोज़गारी बड़ी समस्या
आज विभिन्न संस्थानों द्वारा इंजीनियरिंग और चिकित्सा जैसी महत्वपूर्ण शाखाओं में बेरोज़गारी के आंकड़े ज़रूर प्रस्तुत किए जाते हैं लेकिन परिणाम उल्टे ही आ रहे हैं।
लाखों डॉक्टर्स और इंजीनियर्स प्रतिवर्ष बेरोज़गार रह जाते हैं और महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ती ही जा रही हैं। आखिर हमारी तकनीक जा किस दिशा में रही है?
हारे-थके लोग जब प्रशासनिक सेवा का रुख करते हैं तो वहां कुछ लोग आरक्षण का नाम लेकर इनके सपने की इति कर देते हैं। इन सबके बीच कुछ वर्ग सरकार से संघर्ष करने लगते हैं।
शिक्षा को प्रतियोगिता का माध्यम बना दिया है
इस पूरे घटनाक्रम का आधार शिक्षा की गुणवत्ता को क्यों नहीं बनाया जा रहा? दुनियां में शिक्षा का प्रमुख केंद्र माने जाने वाले भारत जहां के तक्षशिला विश्विद्यालय में स्वयं हेनसांग ने प्रवेश लिया था, वहां हालात इतने खराब आखिर हुए कैसे?
यदि इसके विश्लेषण का परिणाम एक वाक्य में बताया जाए तो मैं कहूंगा हमने शिक्षा को प्रतियोगिता का एक माध्यम बनाया जो वास्तविक रूप में परिमार्जन का माध्यम थी।
ऊपर से सरकार द्वारा आम नागरिकों को खुश करने के लिए कई फैसले लिए गए और जनता उनमें सन्तुष्ट भी होती रही। सरकार द्वारा होस्टल से लेकर भोजन तक और साइकिल से गणवेश तक की व्यवस्था की गई लेकिन गुणवत्ता के नाम पर निजी शिक्षण संस्थानों का रुख किया गया, जहां आधारभूत शिक्षा को छोड़कर वे सभी काम हुए जो व्यावसायिक दृष्टि से लाभकारी थे।
परीक्षा परिणाम भी उसी का हिस्सा है। इतना तो ठीक था इस मगर मध्यप्रदेश की सरकार ने एक फरमान जारी किया था कि कक्षा 8वीं तक किसी भी विद्यार्थी को फेल नहीं किया जाएगा। हमारी बिगड़ी हुई शिक्षा पद्धति का मुझे यह भी एक कारण लगता है।
खैर, मेरा प्रश्न वही है कि चन्द्रगुप्त और चाणक्य की परंपरा के देश में जब चाणक्यवाद की जड़ ही खतरे में है तो आगामी समय में भारतीय राजनीति को अच्छे चन्द्रगुप्त तथा सभी क्षेत्रों को कुशल अधिकारी मिलने की क्या गारंटी है?
अंतोगत्वा मैं यही कहना चाहूंगा कि रोटी, चावल, भत्ते तथा आरक्षण से उठकर शैक्षणिक गुणवत्ता पर भी विधि निर्माताओं को सोंचने की आवश्यकता है। हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि शिक्षा का मूल उद्देश्य परिमार्जन है, प्रतियोगिता नहीं।