जब एक जवान सेना में भर्ती होता है तब उसका एक ही ख्वाब होता है कि देश के लिए कुर्बान हो जाना है। यही इच्छा लेकर वह ताउम्र देश की सेवा में लगा रहता है। अपने घर परिवार की परवाह किए बगैर वह 24 घंटे बस यही सोचता है कि मेरे देश पर कोई आंच ना आए।
अगर सेना के जवान रात में कहीं सो रहे होते हैं तब उन पर कोई बम फेंक जाता है। कभी वे रस्ते पर जा रहे होते हैं तब अचानक कोई आरडीएक्स से हमला कर देता है और बड़ी आसनी से हमलोग उन्हें शहीद कर देते हैं।
ठीक है एक सेना के तौर पर आप उन्हें सम्मान दीजिए लेकिन उनकी मौत के बाद उनके परिवारों की क्या हालत होती होगी, कभी आपने कल्पना करने की कोशिश की है क्या?
हर तरफ सोशल मीडिया पर लोग उन शहीदों को भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए स्टेटस डालते हैं मगर हमें सोचना होगा कि डिजिटल इंडिया के दौर में हम कब तक यूं ही श्रद्धांजलि देते रहेंगे? हमें इन हमलों की तह तक जाकर इन्हें रोकने और आतंकियों को करारा जवाब देने की ज़रूरत है।
क्या अतीत से हमने कुछ सीखा है?
हमले तो होते रहते हैं लेकिन कभी खुद से पूछकर देखिए कि हमने अतीत के हलमों से कुछ सीखा है क्या? कभी छत्तीसगढ़ तो कभी पठानकोट और आज पुलवामा। जब तक हम इसके लिए कुछ नहीं सोचेंगे तब तक बेहतरी की उम्मीद नहीं कर सकते हैं।
कभी नेताओं के काफिलों को देखकर यह समझने की कोशिश कीजिए कि जब वे भारी सुरक्षा के बीच कहीं जा रहे होते हैं तब आस-पास के इलाकों में जैमर तक लगा दिया जाता है। आंतकी घटनाओं की निंदा करते हुए निकल लेना उनके लिए बड़ा आसान हो जाता है लेकिन ज़मीनी स्तर पर कभी काम ही नहीं होती है।
इस देश में जब कोई जवान खराब खाने का ज़िक्र करते हुए वीडियो बनाता है तब उस पर कार्रवाई हो जाती है। अपने घरों को छोड़कर दूर रहने वाले जवानों के लिए हालात और भी मुश्किल होते जा रहे हैं लेकिन उनकी सुनने वाला कोई नहीं है।
क्या ये जवान इसलिए सेना में भर्ती हुए थे कि बिना लड़े ही शहीद हो जाएं? क्या यही डिजिटल इंडिया है? क्या इस दौर में ज़रूरी सुविधाएं सिर्फ नेताओं के लिए ही हैं?