किसी भी आम व्यक्ति के मन में पुलिस और पुलिस स्टेशन को लेकर काफी धारणाएं होती हैं और यह कहना गलत नहीं होगा कि उनकी छवि सकारात्मक कम और नकारात्मक ज़्यादा होती है। अक्सर हम अपने घरों में बड़े बुज़ुर्गो को यह कहते सुनते हैं कि अस्पताल, कोर्ट, कचहरी और पुलिस के चक्करों में दुश्मन भी ना पड़े।
बातों-बातों में सुनी यह बात और कुछ देखे-सुने अनुभवों के ज़रिए कम-से-कम पुलिस के बारे में एक बुरी या उनसे बचने की राय तो ज़हन में आ ही जाती है। कई बार मैं सोचती हूं कि पुलिस स्टेशन से अगर बचना ही है फिर इन्हें खत्म ही कर दिया जाए?
इस कल्पना से जो तनाव और घुटन महसूस होती है वह कम-से-कम इस बात को तो दर्शाती है कि पुलिस या पुलिस व्यवस्था कितनी ज़रूरी है। इस सोच को आगे बढ़ाते हुए मन में बचपन से देखी कितनी ही हिंदी फ़िल्में तैर जाती है जिनमें पुलिसवालों के ईर्द-गिर्द कई दृश्य फिल्माये जाते हैं।
गौर करने वाली बात यह है कि कोई भी प्रशाशन या व्यवस्था अपने आप में संपूर्ण नहीं होती बल्कि उसका व्यवहारिक पक्ष उसे मज़बूत या कमज़ोर नज़रिया देता है। अपने इस लेख में मैंने पुलिस व्यवस्था पर कुछ सुझाव बांटने की कोशिश की है ताकि पंक्ति में खड़े आखिरी व्यक्ति की इस व्यवस्था पर ना केवल पहुंच सुनिश्चित हो बल्कि विश्वास भी बन सके।
जानकारी/जागरूकता होना
मेरा मानना है कि किसी भी अधिकार या ज़िम्मेदारी को सुनिश्चित करने के लिए जानकारी होना सबसे पहली सीढ़ी है। जब हमें जानकारी नहीं होती तब हमें अधीन या छोटा महसूस होता है। सबसे पहले अपने अधिकारों के बारे में जानना ज़रूरी है। इसके लिए एक तरफ सरकार और मंत्रालय को जानकारी फैलाने वाले कार्यक्रमों पर ज़ोर देना चाहिए जो केवल सुरक्षा और नागरिक होने के नाते ज़िम्मेदारी तक सीमित ना हो बल्कि आपके अधिकारों के बारे में भी आपको बताई जाए।
जैसे एक महिला को गिरफ्तार करने के लिए एक महिला पुलिसकर्मी का होना ज़रूरी है या शाम को उक्त समय के बाद महिला को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता या गिरफ्तारी के बाद पेशी कब तक होनी चाहिए। गिरफ्तारी से पहले कौन-कौन सी कागज़ी कार्रवाई पुलिस द्वारा भी कर लेनी चाहिए आदि व्यवहारिक जानकारी और अधिकार का प्रचार भी करना चाहिए।
जानकारी का प्रचार-प्रसार भी उतना ही ज़रूरी है जितना उनका होना। जैसे वर्चुअल पुलिस स्टेशन जिनमें तकनीक के माध्यम से यह बताया गया है कि एक पुलिस स्टेशन के क्या काम होते हैं और वह दिखता कैसा है। खैर, इसकी जानकारी बहुत कम लोगों को है बल्कि मैंने कई बार देखा है मोबाइल चोरी की रिपोर्ट कराने लोग भागते-दौड़ते थाने पहुंचते हैं और उन्हें तब पता चलता है कि ऑनलाइन एफआईआर भी कोई चीज़ होती है।
इसके इलावा हर थाने में इस तरह के जानकारी वाले पोस्टर्स और बोर्ड लगे होने चाहिए जहां साफ और सरल शब्दों में लिखा हो कि आपके थाने से जुड़े क्या-क्या अधिकार हैं। एक तरफ यह आने वाले व्यक्ति के अधिकार को सुनिश्चित करने का संबल देगा वही, दूसरी ओर पुलिसकर्मी को अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास भी कराएगा।
ज़िम्मेदारी सुनिश्चित करना
हर थाने में जगह-जगह साफ साइन बोर्ड तख्ते लगे होने चाहिए कि डेस्क या कमरे पर क्या काम होता है ताकि आने वाले की पूछताछ की बजाय सीधे पहुंच बने। ऐसा करने से लोगों के बीच जानकारी होगी कि थाने में कौन-कौन हैं? इसके अलावा लोगों को यह भी जानकारी मिलेगी कि पुलिसवालों की ज़िम्मेदारी क्या है।
जवाबदेही सुनिश्चित करना
लंबे समय से ‘महिला आंदोलन’ और ‘कार्यकर्ता’ पुलिस सुधार की बात करते आए हैं। कई बार कोशिश भी की गई है कि कानून में इसका समावेश हो। मुझे लगता है सुधार की जगह जवाबदेही सुनिश्चित करने पर ज़्यादा ज़ोर देना चाहिए। जैसे कानून और न्याय के वाहक होने के नाते उनकी ज़िम्मेदारी काफी बड़ी और महत्वपूर्ण है।
अगर वे अपनी इस ज़िम्मेदारी में लापरवाही या ताकत का बेजा इस्तेमाल करते हैं तब उन्हें उस संबधित ज़ुर्म में बराबर का जवाबदेह माना जाना चाहिए। जैसे- अगर पुलिसकर्मी गलत धारा के तहत केस दर्ज करते हैं या केस दर्ज ही नहीं करते या किसी केस को दबाने के लिए ताकत का इस्तेमाल करते हैं तब ऐसे कर्मी को भी उस गुनाह में एक साझेदार की तरह दोषी के तौर पर बुक किया जाना चाहिए।
सोशल और पब्लिक ऑडिट
पुलिस और पुलिस प्रशासन एक पब्लिक व्यवस्था है। कैग जैसे ऑडिट्स के अतिरिक्त इसका सामाजिक और जनता के नज़रिए से भी परीक्षण किया जाना चाहिए जहां समाज के अलग तबके और पहचान के लोग पहुंच के आधार पर इसका मूल्यांकन करें। एक तरफ इन परीक्षणों की रिपोर्टिंग होनी चाहिए और दूसरी तरफ इस पर कार्य योजना बननी चाहिए।
यह दोनों ही दस्तावेज पब्लिक प्लैटफॉर्म पर उपलब्ध होने चाहिए ताकि जनता इस पर नज़र रख सके। इसे जनता का साझेदारी मॉडल मानना चाहिए जिसके केन्द्र में मिलकर बेहतरी और साथ काम करना हो।
संवेदनशीलता प्रशिक्षण
कानून और न्याय तक पहुंच के पथ पर सबसे पहले जो साथी बनते हैं वह ‘पुलिस प्रशासन’ हैं। इसलिए बेहद ज़रूरी है कि हर पुलिस वाला संवेदनशील हो। समाज के अलग-अलग वर्गों, वर्णों और पहचानों के प्रति संवेदनशील क्योंकि जब तक उन्हें महिला, गरीब, दलित, ट्रांसजेंडर, सेक्स वर्कर, विस्थापित और मज़दूर आदि से जुड़े दर्द और दमन का एहसास नहीं हो पाएगा, उनके लिए कतार के अंत में हाशिये पर खड़े आम व्यक्ति के लिए न्याय तक पहुंच का असली मतलब और ज़रूरी सहयोग नहीं हो पाएगा।
इसलिए ज़रूरी है कि लगातार इनका समावेशी जेंडर संवेदनशीलता प्रशिक्षण किया जाए जो 2-4 घंटे का खानापूर्ति कार्यक्रम ना होकर व्यावहारिक बदलाव को प्रेरित करता हो। जैसे- अगर एक सेक्स वर्कर कहे ‘मेरा बलात्कार हुआ है’ तब यह बात समझ आए, अगर एक युवा अपने परिवार और धर्म के बाहर रिश्ते में हो और संरक्षण चाहे तब चुनाव का अधिकार समझ आए।
क्षमता और सैद्धांतिक विकास
एक पुलिसकर्मी भी इंसान होता है और हर इंसान की तरह उनके भी पूर्वाग्रह होते होंगे। अगर यह चीजें काम पर हावी होने लगे तब अन्याय की तरफ ही जाएगी। अतः सैद्धांतिक रूप से जजमेंटल हुए बिना कैसे काम करना है, इस बात पर ज़ोर देना चाहिए। यह भी ज़रूरी है कि पुलिसकर्मी को जहां न्याय व्यवस्था बनाए रखने वाले के रूप में तैयार किया जाता है वहीं यह भी सिखाया जाता है कि उनका काम फैसला देना या निर्णय लेना नहीं है।
उनका काम केवल सर्वोत्तम विकल्प बताना है जिसकी शुरुआत सुनने और वो भी सक्रीय रूप से सुनने से की जानी चाहिए। जैसे- अगर एक महिला घरेलू हिंसा की शिकायत करे तब “मारता है तो क्या हुआ मैडम देख भाल भी तो करता है” या बलात्कार के केस पर “बदनामी होगी, ज़िन्दगी बर्बाद हो जाएगी” तलाक पर “क्यों बच्चों की ज़िन्दगी बर्बाद कर रहे हो” जैसे जुमले नहीं देने चाहिए।
मेरे खुद के अनुभव में जब मोबाइल चोरी करते एक 17 साल के लड़के को पुलिस स्टेशन ले गई तब यह कहा गया कि जुवेनाइल(किशोर) एक्ट में छूट जाएगा, केस का कोई फायदा नहीं है।
कानूनी प्रशिक्षण
जैसा कि पहले भी कहा गया है कि कई बार पुलिसकर्मी उचित धारा के तहत प्राथमिकी दर्ज नहीं करना चाहते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि धीमी न्याय प्रक्रिया या न्याय मिलने में देरी होती है। हर बार किसी बुरी मंशा से ऐसा किया जाए यह ज़रूरी नहीं है। मैंने अपने खुद के अनुभव और बातचीत में पाया है कि पुलिसकर्मयों को कई बार खुद भी अधिक जानकारी नहीं होती है।
कानून निरंतर बदलाव के प्रक्रिया से गुज़रते हैं। ऐसे में हर वह पुलिसकर्मी जो थाने में आने वाले व्यक्ति की रिपोर्ट लिखता है, उसे बारीकी से कानून की जानकारी दी जानी चाहिए जिससे उन्हें समय-समय पर अपडेट भी प्राप्त हो।
तकनीक और तर्क का सही तालमेल
आज का युग तकनीक का युग है लेकिन तकनीक का तर्क के साथ तालमेल होना बहुत ज़रूरी है। जैसे- आए दिन सोशल मीडिया पर यह खबर दिखती है कि अगर किसी का बच्चा या बड़ा खो जाए तब नज़दीकी पुलिस स्टेशन ले जाना चाहिए।
वर्तमान समय में आधार कार्ड पर व्यक्ति की सारी जानकारियां उपलब्ध होती हैं। इसका सही प्रयोग करते हुए उसके घर तक उसे पहुंचाया जा सकता है। आज तक मैंने किसी पुलिस वाले को किसी गुम हुए व्यक्ति के लिए तर्क लगाते या मानते नहीं देखा है।
महिला पुलिस
महिला सुरक्षा के अलग-अलग पक्षों पर बात करते हुए यह बात हर बार सामने आई कि सार्वजनिक स्थलों पर जितनी ज़्यादा महिलाएं होंगी उतनी ही सुरक्षा और सुरक्षित होने का अहसास होगा। इसी को ध्यान में रखते हुए यह ज़रूरी है कि महिला पुलिसकर्मियों की संख्या बढ़ानी चाहिए।
हालाकिं मैं यह नहीं मानती कि केवल महिला होने से किसी में खास संवेदनशीलता आ जाएगी मगर अक्सर देखा गया है कि पितृसत्तात्मक समाज और कई महिला और जेंडर आधारित हिंसाओं में जब कोई महिला थाने आती है, तब वह सहजता से अपनी बात रख पाती है। आत्मीयता और सुरक्षा का एहसास न्याय मिलने के रास्ते में आने वाली अड़चनों से लड़ने का संबल देती है।
समावेशी प्रणाली
मुझे कई बार ऐसा भी लगता है कि पुलिसकर्मी हमेशा मौज में नहीं होते बल्कि वे खुद भी व्यवस्था, व्यवहारिक समस्याओं और जनता के रोष आदि का सामना करते हैं। मैंने कई बार कई पुलिसकर्मियों को विकट स्थितिओं से जूझते और लाचार होते देखा है। कानून का पालन करवाना और कानून व्यवस्था बनाए रखना पुलिस प्रशासन का काम है लेकिन कानून बनाते या अपडेट करते समय उनकी रायशुमारी नहीं ली जाती।
किसी कानून में व्यवहारिक स्तर पर क्या चुनौतियां हैं, इस चीज़ को वे ज़्यादा बेहतर तरीके से बता या सुझाव दे सकते हैं। जैसे- ज़्यादातर जुवेनाइल (किशोर) एक्ट में किशोर को सज़ा ना देकर सुधार गृहों में 18 साल तक रखकर छोड़ दिया जाता है जिसके कारण पुलिसकर्मी बहुत संगीन अपराधों में ही किसी किशोर के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करते हैं।
आलम यह हो गया है कि अपराधी इन किशोरों का छोटे-मोटे अपराधों में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल कर रहे हैं। इनका अपराधीकरण बढ़ रहा है जिस पर खुली चर्चा की जानी चाहिए। दूसरी तरफ किशोरों के लिए जो सुधार गृह बनाए गए हैं, वहां सुधार कम बल्कि दमन ज़्यादा होता है।
इसलिए शायद मोबाइल चोरी, छीना झपटी या अन्य मामलों में प्राथमिकी दर्ज नहीं की जाती होगी। ऐसे में इन सुधार गृहों की बराबर ऑडिट होनी चाहिए। ऐसे कई तरीके हो सकते हैं जो पुलिसवालों के लिए भी समावेशी व्यवस्था बना सके।
मैंने देखा है ज़्यादातर थाने सुनसान और अलग-थलग जगहों पर होते हैं जहां थाने के अंदर बैठे पुलिसकर्मियों (कुछ पेट्रोलिंग जीप्स को छोड़कर) तक जनता की पहुंच नहीं होती। ऐसे में अगर इन थानों को रिहायशी इलाकों में बनाया जाएगा तब इन्हें देखना और पास से गुज़रना रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का हिस्सा हो जाएगा।
मुंबई के हवलदारों की तरह हमें भी सड़कों पर पुलिसकर्मी तैनात दिखें। इन सबसे पहले यह भी सोचना होगा कि क्या हमारे पास उतने पुलिसकर्मी हैं? क्या हमने पुलिस और जनता दोनों को जोड़ने वाली कड़ियों पर काम कर लिया है? क्या पुलिसकर्मी को होने वाली समस्याओं पर गौर कर लिया गया है?
यदि हम इन बातों पर गौर नहीं करेंगे तब यह महज़ थोपा हुआ बदलाव बनकर रह जाएगा जिससे किसी वास्तविक बदलाव की उम्मीद करना या हर व्यक्ति की न्याय तक पहुंच बनाना कल्पना ही कहलाएगी।