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फल, सब्ज़ी या चाय वालों की रेहड़ियों पर डंडे क्यों बरसाती है पुलिस?

सब्ज़ी मंडी

सब्ज़ी मंडी

कुछ दिनों पहले दिल्ली के संसद मार्ग पर था। सड़क किनारे चाय की रेहड़ी के पास खड़े होकर अपने चाय बनने का इंतज़ार कर रहा था। रेहड़ी वाले के पास एक केरोसिन स्टोव और कुछ बर्तन समेत इतना ही सामान था जिन्हें आसानी से एक झोले में रखा जा सकता है।

आमतौर पर दिल्ली की हर चाय वाली रेहड़ी पर इतना सामान ही होता है। थोड़ी देर में अचानक अफरातफरी मच गई। ठीक वैसे ही जैसे बॉलीवुड फिल्मों में डाकुओं के आने पर गाँव की स्थिति होती थी। जब सभी अपनी दुकान का सामान लेकर भागने लगे तब जलता हुआ स्टोव और खौलती हुई चाय लेकर वह भी भागा।

सब चिल्ला रहे थे, “वो आ गए, वो आ गए।” इतने में नगर निगम की गाड़ी आई जिनके साथ पुलिस भी थी। वे दौड़कर उनका सामान छीन रहे थे। वहां लोगों से बातचीत करने पर यह पता चला कि नगर निगम वाले पुलिस के साथ आते हैं और सामान उठाकर ले जाते हैं।

अगर एक बार पुलिस की पकड़ में आ गए तो रेहड़ी वालों के कमाई का ज़रिया और पूंजी खत्म हो जाती है। मैंने उनके बेबस चेहरों पर डर देखा और सामने खड़ी संसद जो ‘लोकतंत्र की प्रहरी’ कही जाती है।

आवास एवं शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय के अनुसार देश में स्ट्रीट वेंडर्स की संख्या 1 करोड़ से अधिक दर्ज़ की गई है। इनकी वास्तविक संख्या दर्ज़ संख्या से कई गुना अधिक है। भले ही बड़े-बड़े व्यवसायों और व्यापार के लिए ‘लाइसेंस राज’ 1991 में ही खत्म हो गया हो लेकिन स्ट्रीट वेंडर्स को आज भी अपना ठेला लगाने के लिए नगर निगम से लाइसेंस लेना होता है।

सब्ज़ी मंडी। फोटो साभार: Flickr

लाइसेंस वितरण में भारी अनियमितता पाई गई है और बहुत कम ही लोगों को यह लाइसेंस प्राप्त हो पाता है। उदाहरण के लिए मुंबई शहर में मंत्रालय द्वारा स्ट्रीट वेंडर्स की दर्ज़ संख्या 2,50,000 है जबकि सिर्फ 14 हज़ार को ही रेहड़ी लगाने का लाइसेंस मिल पाया है।

मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार भारत में शहरों की 2 फीसदी आबादी यही काम करती है जिसका पुरे शहर के असंगठित क्षेत्रों के रोज़गार में 14 फीसदी की हिस्सेदारी है। किसी शहर को बनाने और बसाने में इनकी बड़ी भूमिका होती है।

स्ट्रीट वेंडिंग महज़ रोज़गार नहीं बल्कि शहरों की बढ़ती महंगाई के बीच लोगों को सस्ती और बेहतर सेवा देने तथा शहरी जीवन को आसान बनाने का एक माध्यम भी है। गाँव छोड़कर शहर आए गरीब मज़दूरों, ऑटो रिक्शा चालकों एवं अन्य काम पर आने वाले लोगों के लिए यह एक बड़ा सहारा है जिसके बल पर वे अपनी आमदनी का कुछ हिस्सा बचाकर घर भेज पाते हैं।

समाज और अर्थव्यवस्था की ज़रूरतों को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले इस तबके को रोज़ाना पुलिस और अन्य नागरिक संस्थाओं द्वारा विभिन्न परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

सामाजिक परेशानियां

‘स्ट्रीट वेंडिंग’ का काम करने वाले लोग समाज के कमज़ोर तबके का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह समाज के उस हिस्से से आते हैं जिनको समाज सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता है। इस काम में महिलाएं भी बड़ी तादात में शामिल हैं जिन्हें समाज की दोगली मानसिकता का सामना करना पड़ता है।

फोटो साभार: गूगल फ्री इमेजेज़

उनकी सुरक्षा, स्वास्थ्य और बच्चों की देखभाल का कोई इंतजाम नहीं है। ‘इव टीज़िंग’ और ‘बलात्कार’ की कई घटनाएं आए दिन देखने को मिल जाती हैं। चाहे वह पेट से हों या माहवारी में या फिर किसी अन्य रोग से परेशान ही क्यों ना हों, इन्हें मजबूरी में अपना काम जारी ही रखना होता है। पूर्वोत्तर और नेपाल से आने वाली महिलाएं जो देश के अन्य हिस्सों में इस कार्य को कर रही हैं, उनका अनुभव भी काफी खराब रहा है।

पहचान की संकट

रेहड़ी व्यवसाय का काम आदिकाल से होता आया है। इसका ज़िक्र प्राचीनतम सभ्यताओं में भी मिलता है। अपनी फसल या अन्य उत्पादों को लेकर गाँव से लोग हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जैसे शहरों में जाकर सड़क पर अपनी दुकान लगाते थे लेकिन आज जैसी ‘असहिष्णुता’ उनके प्रति कभी नहीं रही है।

पहले शहरों में रेहड़ी लगा रहे व्यवसायी पेशे से किसानी या उत्पादन के अन्य कार्यों से जुड़े थे। उनकी मुख्य पहचान रेहड़ी वाले के रूप में नहीं थी लेकिन पथ विक्रेताओं और फेरी वालों के साथ आज पहचान की संकट है।

नोट: तस्वीर प्रतीकात्मक है। फोटो साभार: Flickr

‘पथ विक्रेता अधिनियम 2014’ में तो यह ज़रूरी शर्त है कि अगर कोई व्यक्ति अपना रेहड़ी व्यवसाय करना चाहता है तब उसे यह दस्तावेज़ लगाना होगा कि उसके पास कमाई का और कोई ज़रिया नहीं है। तेज़ी से बढ़ते औद्योगिकरण और उदारीकरण ने गाँवों से रोज़गार के साधन खत्म कर दिए हैं।

रोज़ी-रोटी की जुगाड़ में वे दूसरे शहरों या कस्बों में जाकर रेहड़ी लगाने को मजबूर हैं। अधिकांश उत्पादन का मालिकाना हक किसी और का होता है। वह जिस क्षेत्र में व्यवसाय करते हैं प्रायः उस क्षेत्र के वोटर नहीं होते हैं इसलिए वहां की स्थानीय राजनीति इनकी समस्याओं से कोई मतलब नहीं रखती। इनके रोज़गार का कोई ठोस आधार नहीं है इसलिए यह लोग खुद को भी पथ विक्रेता से अलग पहचान के रूप में नही देख पा रहे हैं। यही वजह है कि इतनी बड़ी संख्या होने के बावजूद यह अपने सवालों पर संगठित नहीं हो पाते।

संस्थागत परेशानियां

एक लोक कल्याणकारी राज्य मे सरकार का दायित्व प्रत्येक वर्ग के प्रति होना चाहिए। यदि वह वर्ग एक सम्मानित संख्या के साथ समाज में हिस्सेदारी कर रहा है तब उसे समावेशी विकास मॉडल के अंदर स्थान देना अत्यंत ज़रूरी है। ऐसे में यह स्ट्रीट वेंडर हमारे अस्पतालों के पास बीमारों और उनके परिजनों की सेवा कर रहे होते हैं।

यह वे लोग होते हैं जो रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर यात्रियों को 5-10 मिनट के पड़ाव में जलपान करा रहे होते हैं। यह लोग जब सुबह- शाम ताज़ा फल, सब्ज़ी और दूध शहरी जनसंख्या को पंहुचा रहे होते हैं तब उन्हें लाठी डंडे से मारने और उन्हें आए दिन पुलिसिया गुंडागर्दी से लूटने की समस्या बनी रहती है।

विकास का ऐसा मॉडल तैयार किया जा रहा है जिसमें शहर और गरीब साथ नहीं रह सकते। 2010 में दिल्ली में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान रिक्शा, रेहड़ी और ठेले आदि को उठाकर शहर से बाहर फेंक दिया गया था। नेता और मंत्री के आगमन पर कभी सुरक्षा के नाम पर तो कभी ट्रैफिक जाम का हवाला देकर उनको उजाड़ देना हर शहर के लिए आम बात है।

फल विक्रेता। फोटो साभार: गूगल फ्री इमेजेज़

दिल्ली से लेकर बनारस तक का मेरा अनुभव कमोबेश एक ही है। बनारस में लगभग 25000 पटरी व्यवसायी अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं। लंका के पटरी व्यवसायी चिंतामणि सेठ अपने पिताजी के समय 1968 से बीएचयू गेट के सामने अपनी रेहड़ी लगाते आए हैं। वह बताते हैं, “पहले भू-माफिया विभागीय अधिकारियों के साथ मिलकर धमकी देते थे। ऐसा कई बार हुआ कि पुलिस आकर गुमटियां उजाड़ देती थी और विरोध करने पर लाठीचार्ज भी किया जाता था। सितंबर 1996 में तो पुलिस ने इतनी बर्बरता से मारा कि एक व्यवसायी की मौत हो गई।”

उन्होंने आगे बताया कि गिरफ्तारी के बाद थाने या जेल में शारीरिक और मानसिक यातनाओं से गुज़रना पड़ता है। खासकर महिलाओं के लिए वह समय और भी डरावना होता है। मुफलिसी की ज़िन्दगी जी रहे पटरी व्यवसायियों के लिए फर्ज़ी मुकदमों का आर्थिक बोझ झेलना मुमकिन नहीं होता। अपनी शक्ति के अकड़ में सरकार और पुलिस जब डंडे चला रही होती है या गुमटियां और ठेले उजाड़ रही होती है, उस एक क्षण में उसकी आजीविका और जीने का अधिकार भी छीना जा रहा होता है।

संवैधानिक अधिकार

मार्च 2014 में ‘पथ विक्रेता (जीविका संरक्षण एवं पथ विक्रय विनियमन) अधिनियम 2014’ नाम से एक राष्ट्रीय कानून बनाया था। यह कानून स्ट्रीट वेंडर्स को सामाजिक सुरक्षा और आजीविका का अधिकार प्रदान करता है। इसके अनुसार हर नगर निगम/पालिका में टाउन वेंडिंग कमेटी बनाई जाएगी जो स्ट्रीट वेंडर्स के नियोजन, सर्वेक्षण एवं इनसे जुड़े अन्य फैसले लेगी।

इस कमेटी में 40 प्रतिशत हिस्सेदारी स्ट्रीट वेंडर्स की होगी जिसे चुनाव द्वारा तय किया जाएगा। इसमें एक-तिहाई महिलाएं भी होंगी तथा अधिकारी, गैर अधिकारी, एससी एसटी तथा ओबीसी का भी प्रतिनिधित्व रहेगा। अधिनियम की ‘धारा-29’ स्ट्रीट वेंडरों पर पुलिस और अन्य अधिकारियों द्वारा शोषण से संरक्षण प्रदान करती है।

अतिक्रमण। फोटो साभार: गूगल फ्री इमेजेज़

वही, यह भी सुनिश्चित करती है कि 30 दिन की सूचना के पूर्व कोई बेदखली या स्थानांतरण का काम नहीं किया जाएगा। इसके अलावा भी इस अधिनियम में बहुत प्रावधान हैं जो स्ट्रीट वेंडर्स को भयमुक्त और सुरक्षित व्यापार करने की बात करते हैं।

अनुच्छेद 19(1) भी भारत के किसी भी नागरिक को कहीं व्यवसाय या व्यापार करने की आज़ादी देता है। केंद्रीय कानून और संविधान द्वारा प्राप्त अधिकारों के बावजूद यह लोग बद्तर हालत में जीने को मजबूर हैं। राज्य सरकारें स्थानीय प्रशासन के अधिकारों का अतिक्रमण करते हुए बाहरी कंपनियों से सर्वेक्षण कराती हैं। जाम, गंदगी, सुरक्षा और अतिक्रमण जैसे बेबुनियादी तर्क देकर आए दिन पुलिसवाले ठेला खोमचा उठाकर फेंक देते हैं।

समाधान

हमें ऐसे समाधान ढूंढने होंगे जिससे स्ट्रीट वेंडर्स की प्रकृति प्रभावित ना हो। कई बार उनको शहर से बाहर अपना ठेला/रेहड़ी लगाने के लिए बोला जाता है जो कि उचित नही है। पथ विक्रेता अधिनियम 2014 में स्ट्रीट वेंडर्स को परिभाषित करते हुए उनके अधिकारों, सुरक्षा और उसे सुनिश्चित करने के लिए एक ढांचे की बात की गई है।

सब्ज़ी विक्रेता। फोटो साभार: गूगल फ्री इमेजेज़

हमें स्थानीय निकायों को मज़बूत करना होगा और एक सशक्त टाउन वेंडिंग कमिटी (TVC) बनानी होगी। सर्वेक्षण, नियोजन अथवा स्थानांतरण से जुड़े सभी फैसले लेने का अधिकार कमेटी के पास होनी चाहिए। राज्य सरकारों के हस्तक्षेप और पुलिस की भूमिका को निम्नतम स्तर पर लाना होगा।

टाउन वेंडिंग कमेटी के लिए होने वाले चुनावों को ठीक तरीके से आयोजित करने की ज़रूरत है जिसमें सबकी भागीदारी हो। इस प्रक्रिया से नेतृत्व निकल कर आएगा जो इनकी आवाज़ बनेगा। जन भागीदारी से बेहतर और कोई मॉडल नहीं हो सकता है।

नोट: लेख में प्रयोग किए गए तथ्य मिनिस्ट्री ऑफ अर्बन इंप्लॉयमेंट एण्ड पोवर्टी एलिवेशन की वेबसाइट से लिए गए हैं।

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