केरल में महिलाओं के ह्यूमन चेन के लिए एक तर्क दिया जा रहा है कि आखिर एक मंदिर में महिलाओं के प्रवेश से उन्हें कौन सी आज़ादी या बराबरी मिल जाएगी। यह तर्क खासकर उस समुदाय से आ रहा है जो भगवान में विश्वास नहीं रखते हैं।
मैं खुद एक नास्तिक हूं और मैं सबरीमाला में महिलाओं के प्रवेश के इस आंदोलन का पूरी तरह से समर्थन करती हूं। मेरे लिए यह कोई धर्म की लड़ाई नहीं है, यह लड़ाई बराबरी और अधिकार की है। पितृसत्ता के खिलाफ लड़ाई है। बात धार्मिक स्थलों की ही क्यों ना हो आप अगर किसी खास वर्ग या समुदाय के प्रवेश पर रोक लगाते हैं तो वह धर्म से आगे बराबरी के हनन की बात होती है।
मैं भी सबरीमाला में प्रवेश करना चाहूंगी, यह प्रवेश किसी भगवान की श्रद्धा के लिए नहीं होगा, यह प्रवेश एक विरोध में होगा, महिलाओं के हक के समर्थन में होगा।
जो इस खबर से वाकिफ नहीं हैं उन्हें बता दूं कि एक जनवरी को केरल में महिलाओं ने 620 किलोमीटर लंबी महिला दीवार (ह्यूमन चेन) बनाई थी, जिसमें 35 लाख महिलाओं ने हिस्सा लिया। इन महिलाओं ने सबरीमाला मंदिर में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी महिलाओं को प्रवेश ना मिलने के विरोध में यह दीवार बनाई थी।
इससे पहले दो महिलाएं सुरक्षा के इंतज़ाम में मंदिर में प्रवेश करने में कामयाब रही थीं, जिसके बाद शुद्धिकरण के नाम पर मंदिर को कुछ घंटों के लिए बंद कर दिया गया था।
इस आंदोलन को धर्म के दायरे में मत बांधिए, यह आंदोलन उससे कई मायनों में बड़ा है। मैं केरल की महिलाओं के इस कदम को एक ऐतिहासिक कदम मानती हूं।
उन महिलाओं के जज्बे को सलाम करती हूं जिन्होंने अपनी हिम्मत दिखाकर मंदिर में प्रवेश किया और उन सभी महिलाओं को मेरा सलाम जिन्होंने ह्यूमन चेन बनाकर पूरे देश का ध्यान इस ओर खींचा, आप हमारे लिए एक उदाहरण हैं। पूरे देश में विरोध की यह लहर दिखने की ज़रूरत है और इस दिशा में पहला ऐतिहासिक कदम बढ़ाने के लिए शुक्रिया।
इस लड़ाई को कमज़ोर करने के लिए इसे हिंदू बनाम मुस्लिम के एंगल से भी जोड़ा जा रहा है। कहा जा रहा है कि हज़रत निज़ामुद्दीन की दरगाह और ना जाने कितने ही दरगाहों में भी तो महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी है, वहां सब क्यों चुप रहते हैं? सिर्फ हिंदू धर्म की मान्यताओं पर ही हमला क्यों किया जाता है?
तो उन लोगों की जानकारी के लिए बता दूं कि विरोध वहां भी जारी है। झारखंड की निवासी और पुणे में वकालत की पढ़ाई करने वाली तीन लड़कियों ने इसके खिलाफ PIL दायर की है। बदलाव की लहर हर ओर शुरू हो चुकी है, हमें हर छोटे-बड़े बदलाव का स्वागत करना चाहिए।
एक शख्स का महिलाओं द्वारा बनाई गई दीवार में कुछ बुर्का पहनी महिलाओं को टारगेट करते हुए कहना था कि यह देखो खुद बुर्का में हैं और दूसरे की आज़ादी की मांग करने आई हैं। आपको तो उन औरतों को सलाम करना चाहिए जो हर दिन पितृसत्ता के बनाए पर्दे में जीने के बाद भी उस पितृसत्ता के खिलाफ आवाज़ उठाने सड़कों पर हैं और हां ये महिलाएं साबित करती हैं कि यह सिर्फ धर्म की लड़ाई नहीं है, महिला अधिकार की लड़ाई है।
कुछ ऐसे तर्क यह भी आ रहे हैं कि महिलाओं से संबंधित अन्य मुद्दों पर केरल की महिलाएं क्यों चुप थीं, जो आज धर्म के लिए सड़क पर उतर चुकी हैं। बिलकुल, हमारे समाज में महिला शोषण की अन्य घटनाओं पर भी महिलाओं को इस रूप में गुस्सा दिखाने की ज़रूरत है, सड़कों पर उतरने की ज़रूरत है और महिलाएं आगे चलकर शायद सड़कों पर उतरे भी। केरल में महिलाओं के विरोध की यह शुरुआत हो चुकी है।
आप किसी एक लड़ाई को यह कहते हुए नहीं नकार सकते कि दूसरे मुद्दों पर क्यों चुप थे। शुरुआत धीरे-धीरे ही होती है, अगर उस शुरुआत को ही हमेशा नकारा जाएगा तो बदलाव कभी नहीं आने वाला।