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क्या सवर्णों को आरक्षण की बात सरकार का चुनावी लॉलीपॉप है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाले कैबिनेट ने सवर्ण जातियों को आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला किया है। यह अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग के 50 प्रतिशत आरक्षण से अलग होगा। चुनाव पूर्व यह फैसला चुनावी लॉलीपॉप से ज़्यादा और कुछ नहीं नज़र आता है।

नरेंद्र मोदी सरकार ने दरअसल सवर्ण जातियों को आरक्षण देकर एक तीर से दो निशाने साधने की कोशिश की है। एक ओर चुनावी मौसम में सवर्णों के धुव्रीकरण की कोशिश की है तो दूसरी ओर विपक्षी पार्टियों को असमंजस की स्थिति में ला खड़ा किया है।

संविधान के वर्तमान नियमों के अनुसार आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की राह काफी मुश्किल है। दरअसल, इससे पूर्व भी केंद्र सरकारों ने आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की कोशिश की थी परंतु सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले को निरस्त कर दिया। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने छह नवंबर 1992 को इंद्रा साहनी और अन्य में फैसला सुनाया था। जिसमें साफ किया था कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग या इनके अलावा किसी भी अन्य विशेष श्रेणी में दिए जाने वाले आरक्षण का कुल आंकड़ा 50 प्रतिशत से ज़्यादा नहीं होना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि विशेष रूप से ‘आर्थिक मानदंड’ असंवैधानिक थे, क्योंकि ‘गरीब’ की श्रेणी में ‘सामाजिक पिछड़ेपन’ को प्रतिबिंबित नहीं किया गया था। अपने फैसलों में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण दिए जाने का अर्थ है समानता के मूल अधिकारों का हनन। इससे पूर्व भी 2016 में गुजरात, 2015 में राजस्थान सरकार ने 14 फीसदी आरक्षित वर्ग के आर्थिक रूप से पिछड़े को आरक्षण देने का फैसला किया था, जिसे हाई कोर्ट ने निरस्त कर दिया।

1978 में बिहार में पिछड़ों को 27 फीसदी आरक्षण देने के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने आर्थिक आधार पर तीन प्रतिशत आरक्षण दिया था और बाद में कोर्ट ने इसे समाप्त कर दिया।

इस बिल को संसद में भी पास करना मुश्किल होगा। आर्थिक रूप से पिछड़े स्वर्णों को आरक्षण देने के लिए सरकार को संविधान में संशोधन करना होगा। 49.5 फीसदी से ज़्यादा आरक्षण देने के लिए संविधान की धारा 15 और 16 में बदलाव करना होगा। धारा 15 के तहत शैक्षणिक संस्थानों और धारा 16 के तहत रोज़गार में आरक्षण मिलता है।

अगर, संसद में यह संविधान संशोधन विधेयक पास हो जाता है, तो इसका लाभ ब्राह्मण, ठाकुर, भूमिहार, कायस्थ, बनिया, जाट और गुर्जर आदि को मिलेगा। हालांकि मोदी सरकार के लिए यह मुश्किल काम होगा क्योंकि राज्यसभा में उनके पास बहुमत नहीं है और मान लिया जाए कि संसद में भी बिल पास हो जाता है तो राह फिर भी मुश्किल है क्योंकि इस विधेयक पर कम-से-कम 14 राज्यों के विधानसभाओं की मंजू़री की आवश्यकता होगी, जिसमें जम्मू-कश्मीर शामिल नहीं होता क्योंकि उसका अपना अलग कानून है।

इसके बाद अगर 14 राज्यों की विधानसभाओं ने मंजू़री दे दी, तब राष्ट्रपति की मंजू़री की आवश्यकता है। साफतौर पर सवर्ण आरक्षण की राह कठिन नहीं बल्कि बेहद कठिन है। यह चुनाव पूर्व बस सवर्णों के धुव्रीकरण के लिए फेंका गया चुनावी लॉलीपॉप है, जिस तरह कॉंग्रेस ने 2014 में चुनाव पूर्व जाटों के लिए फेंका था, जिसे बाद में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने वापस ले लिया।

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