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“सामाजिक न्याय का मज़ाक उड़ाता है सवर्ण आरक्षण”

कल तक आरक्षण (सामाजिक रूप से पिछड़े और शोषित वर्गों के लिए) कुछ लोगों को देश के विकास में बाधा लग रहा था, तो कुछ को आरक्षण देश में जाति व्यवस्था को मज़बूत करने का ज़रिया नज़र आ रहा था। यह सभी लोग “आरक्षण हटाओ, देश बचाओ” की रट लगाए बैठे थे।

चलिए बहुत खूब, आपको देश की चिंता है, यह देखकर अच्छा लगा। अब हुआ यूं कि देश में चुनावी मौसम के चलते, देश के वज़ीर-ए-आज़म और उनके कुछ चेले-चपाटों (जिन्हें सामूहिक रूप से सरकार कहा जा सकता है) ने फैसला लिया कि कुछ और लोगों को भी आरक्षण (सामाजिक रूप से सम्पन्न और ताकतवर वर्ग, शोषक वर्ग भी कहा जाए तो गलत नहीं होगा) दिया जाए।

इसमें मज़े की बात यह है कि गला फाड़कर “आरक्षण हटाओ- देश बचाओ” चिल्लाने वालों को अचानक इस “आरक्षण” पर सहसा बड़ा प्रेम आने लगा और जिस सरकार ने इसे लागू करने का फैसला किया वह सरकार इन्हें क्रांतिकारी नज़र आने लगी। सबने बड़ी जल्दी फिरकी ले ली, कल तक “आरक्षण” शब्द मात्र से आहत होने वाले लोग आज पलकें बिछाकर इसका स्वागत कर रहे हैं।

सवर्ण वर्ग के “ब्राह्मणवादियों” से तो उम्मीद ही क्या रखना, यह तो सदियों से दूसरों के खून-पसीने पर अपने महल बनाए बैठे हैं। दूसरों के सपनों और अरमानों के कच्चे फूलों को रौंधकर अपने बगीचे चमन किए हैं, दूसरों के हक छीनकर अपनी झूठी प्रतिष्ठा बनाई है। इन्हें तो अब भी ऐसे ही मौके की तलाश रहती है और आज भी जब इन्हें ऐसा मौका मिलेगा, जब सत्ता स्वयं देश के संविधान की मूल भावना को दुत्कारते हुए और सामाजिक न्याय के लिए उठने वाली हर आवाज़ (फिर चाहे वो अंबेडकर, पेरियार, फूले, कांशीराम या रोहित की ही क्यों ना हो) को कुचलते हुए इनके चरणों में लंपट होते हुए दिखेगी, तो उनकी शोषक रगों में दौड़ता हुआ खून कुछ अधिक तेज़ी से दौड़ने लगेगा। चेहरे पर आ जाएगी कुटिल सी मुस्कान जो कहीं ना कहीं समानता के पैरोकार संविधान पर मनुवाद की जीत के घमंड को दर्शाएगी। इनके द्वारा इस सरकार के इस कदम पर खुशी मनाने में कुछ भी असाधारण नहीं है।

लेकिन मन बड़ा व्यथित हो जाता है जब कोई बड़ी आसानी और हंसी-खुशी से अपने हकों और अधिकारों की आहुति देने को तैयार हो जाता है। सरकार के इस निर्णय पर कुछ ‘अनुसूचित जाति’, ‘अनुसूचित जनजाति’ और बड़ी संख्या में ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ के साथियों का खुश होना बहुत निराशाजनक है।

विचारधारा के स्तर पर आपका किसी पार्टी विशेष से जुड़ाव होना या किसी सरकार के प्रति नरममिजाज़ी होना बुरा नहीं लेकिन विचारधारा की आड़ में अपनी आंखें बंदकर शोषक वर्ग के आगे घुटने टेक देना इस देश के संविधान की मूल भावना के साथ खिलवाड़ है।

यह अपमान है उन सभी लड़ाके साथियों और उनके संघर्षों का जिन्होंने इस देश में हर किस्म के पिछड़ों के हक की लड़ाई लड़ी है, सामाजिक न्याय और बराबरी के लिए अपना सर्वस्व दिया है।

आज अंबेडकर-मंडल ज़िंदा होते तो सरकार की इस नीति से उतने आहत ना होते जितने पिछड़ों के एकजुट ना होने और उनकी राजनीतिक अनभिज्ञता से।

तो बात यह है कि मैं ठहरी राजनीति विज्ञान की छात्रा और संविधान के बारे में अब तक जो भी, जितना भी जाना है उससे साफ है कि “आरक्षण” भीख कतई नहीं है, यह हक है उन लोगों का जो बरसों से सामाजिक रूप से शोषित-पीड़ित, दबे-कुचले रहे हैं। एक शोषणकारी जातिगत व्यवस्था ने ना सिर्फ उनसे अपनी ज़िन्दगी अपनी इच्छा, अपने ढंग से जीने का अधिकार छीना बल्कि उनके आत्मविश्वास और आत्मसम्मान पर ऐसे घाव दिए हैं जिसे यह तथाकथित लोकतांत्रिक- समानता का ढांचा सत्तर साल बाद भी नहीं मिटा पाया। जबतक असमानता है, जबतक सामाजिक न्याय की ज़रूरत बनी रहेगी, तब तक “आरक्षण” या आरक्षण जैसी व्यवस्था की मांग और उसके लिए होने वाले संघर्ष भी बने रहेंगे।

अब सवर्णों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का तो कोई तुक ही नहीं बनता क्योंकि ना तो आरक्षण कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम है और ना ही सवर्ण सामाजिक रूप से पिछड़े और जातिगत आधार पर शोषित हैं। जहां तक बात है शिक्षित रूप से पिछड़ेपन और सार्वजनिक नौकरियों ने प्रतिनिधित्व की कमी की तो वो सवर्णों में वैसे ही नहीं है- शिक्षा में अव्वल और नौकरी पाने में सबसे आगे है “शर्मा जी का बेटा”।

मनुस्मृति का तो पता नहीं लेकिन इस देश के संविधान के हिसाब से तो अपने हकों के लिए लड़ना इस देश के हर नागरिक का सबसे पहला कर्तव्य है। शर्माइए नहीं और डरिए भी नहीं। अपना हक किसी दूसरे को ना मारने दें, लड़ते चलिए। कोई और साथ दे ना दे, एक किताब आपके साथ है।

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