Site icon Youth Ki Awaaz

“आज दलित अपने ही देश में सुरक्षित क्यों नहीं हैं?”

प्रदर्शन करते हुए दलित

प्रदर्शन करते हुए दलित

पिछले कुछ वक्त में गरीबों, दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और मेहनतकश जनता के जीवन और आजीविका पर करारा प्रहार किया गया है। पुणे ज़िले के भीमा कोरेगाँव में गत 1 जनवरी 2018 को जब दलित, पेशवाओं के खिलाफ हुए युद्ध को शौर्य दिवस के रूप में मना रहे थे तब उन पर भीषण दमन हुआ।

2017 में गुजरात के उना में दलितों पर गाय का चमड़ा निकालने का आरोप लगाकर भीषण अत्याचार हुआ। इसके अलावा उत्तरप्रदेश के सहारनपुर और बुलंदशहर, मध्यप्रदेश के माना (मालवा), हरियाणा के दुलिना, तमिलनाडु समेत अन्य राज्यों में ब्राह्मणवादी, जातिवादी, सांप्रदायिक हमले दलितों के खिलाफ किए गए हैं।

इससे पहले वर्ष 2016 में हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में शोध छात्र रोहित वेमुला को दलित होने के करण विश्वविद्यालय प्रबंधन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नेतृत्व तथा केंद्रीय मंत्री द्वारा कदम-कदम पर दबाव बनाया गया और उसे आत्महत्या करने (संस्थागत हत्या) पर मजबूर किया गया।

उत्तरप्रदेश के सहारनपुर के भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर रावण को सरकार की आलोचना करने के कारण लंबे समय तक जेल में रखा गया और अभी भी उनकी आज़ादी पर प्रतिबंध लगाया गया है।

इलाहाबाद के कर्नलगंज स्थित रेस्तरां में 9 फरवरी 2018 की रात एल.एल.बी. द्वितीय वर्ष का छात्र दिलीप सरोज अपने दोस्तों के साथ खाना खाने पहुंचा, तभी फोर्च्यूनर कार सवार तीन लड़के भी वहां पहुंच गए। इस बीच युवकों में जाति को लेकर विवाद हो गया। कार सवार युवकों ने अपने कुछ दोस्तों को बुला लिया। फिर उन्होंने रेस्तरां के अन्दर ही दिलीप पर कुर्सियां उठाकर हमला कर दिया।

दिलीप के दोस्तों ने बीच बचाव की कोशिश की लेकिन कार सवार युवकों की संख्या ज़्यादा होने के कारण वे अपनी जान बचाकर भाग निकले। युवकों ने दिलीप को अकेला पाकर अधमरा होने तक पीटा, फिर उसे खींचकर रेस्तरां के बाहर ले आए और ईंट, लोहे की रॉड से उसे पीटा गया। अधमरा होने पर वे दिलीप को छोड़कर मौके से भाग निकले।

वही मौके पर उपस्थित लोगों ने उसे एस.आर.एन. हॉस्पिटल पहुंचाया, जहां उसकी इलाज के दौरान मौत हो गई। इस घटना पर देश के एक खास समूह ने खुशी मनाई क्योंकि उन्हें दलित छात्र द्वारा कानून की पढ़ाई करना तथा रेस्तरां में खाया जाना रास नहीं आया।

अपनी शादी के दौरान निज़ामपुर गाँव के संजय। फोटो साभार: सोशल मीडिया

यह दलित उत्पीड़न की एकमात्र घटना नहीं है। इससे पहले कासगंज के निज़ामपुर गाँव में जाटव परिवार के संजय की शादी 20 अप्रैल 2018 को होनी थी। संजय एल.एल.बी. की पढ़ाई कर रहा था। वह अपनी बारात धूमधाम से ससुराल में लाना चाह रहा था लेकिन जब उसने अपने ससुराल वालों से इस विषय में बात की तब पता चला कि इस ठाकुर बाहुल्य गाँव में दलित बिरादरी को बारात चढ़ाने की अनुमति नहीं है।

निज़ामपुर गाँव में ठाकुरों की संख्या 250 से 300 के आस-पास है जबकि जाटव सिर्फ 40 से 50 लोग हैं। संजय को जब यह बात पता चली तब उसने ज़िलाधिकारी कासगंज और मुख्यमंत्री के जनसुनवाई पोर्टल पर अपनी शिकायत दर्ज कराई लेकिन पुलिस ने सुरक्षा देने के बजाय बारात को शांति के लिए खतरा बता दिया।

यह घटनाएं तब हैं जब आज़ादी के बाद संविधान में दलितों को बराबरी का दर्जा दिया गया है लेकिन ना तो आज़ादी से पहले और ना ही बाद में ऐसी घटनाओं में कमी आई है। आए दिन दलित उत्तपीड़न और अत्याचार की कोई ना कोई घटना सुनने को मिलती है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ऐसे अपराधों को सहते रहना ही इसका विकल्प है?

आदिवासी महिलाओं की प्रतीकात्मक तस्वीर

दलितों पर हो रहे अत्याचारों के ठोस कारणों को जाने बिना इन अपराधों को रोका नहीं जा सकता है। यदि दलितों के खिलाफ होने वाले अपराधों में समाज का एक खास समूह ही शामिल होता तब इतना खतरनाक ना होता, मगर दलितों के खिलाफ होने वाले अपराधों में नेताओं से लेकर साधु-सन्यासियों तक पूंजीपतियों से लेकर अधिकारियों तथा खुद दलितों के बीच से कुछ ऊपर उठ गए लोग तक शामिल हैं। आज दलित स्वयं को अपने ही देश में अपने घरों के अंदर भी सुरक्षित महसूस नहीं कर पा रहे हैं।

निश्चय ही आज़ादी के बाद अछूत कही जाने वाली जाति यानि दलितों की स्थिति में कुछ सुधार हुए हैं। उनके बीच से कुछ नेता मध्यम वर्ग तथा शासक वर्ग में भी शामिल हुए हैं। उनमें कुछ चेतना भी आई है और अब वे पहले की तरह सब कुछ सहने को तैयार नहीं हैं लेकिन अपने हक के लिए खड़े होने और अन्याय का विरोध करने पर बर्बर अत्याचार और सामूहिक नरसंहार तक की घटनाएं भी तेज़ी से बढ़ रही हैं।

हाल ही में 62 विश्वविद्यालयों को स्वायत्तशासी घोषित कर दिया। इन विश्वविद्यालयों की सबसे बड़ी स्वायत्तता अपने लिए खुद संसाधन जुटाना है जिसका सीधा अर्थ है विश्वविद्यालयों की फीस बढ़ जाना और परिणामस्वरूप बहुसंख्यक दलित विद्यार्थियों के लिए उच्च शिक्षा के दरवाज़े हमेशा-हमेशा के लिए बंद हो जाना।

ऐसी स्थिति में सवाल उठता है कि आखिर समस्या कहां है? आम जनता को वास्तविक सच्चाई से गुमराह करने के लिए जाति धर्म के झगड़े तथा आरक्षण जैसे हथकंडे अपनाए जाते हैं। इसलिए जाति धर्म के झूठे भेदभाव से ऊपर उठकर ही हमें अपने असली दुश्मन की पहचान करनी होगी।

क्या करें-

1) वैज्ञानिक दृष्टिकोण और लोकतांत्रिक विचारों के प्रचार-प्रसार के माध्यम से सभी तरह के अंधविश्वासों और जातिवादी/धार्मिक वर्जनाओं जैसे श्राद्ध (मृतक भोज) आदि के विरुद्ध लड़ने के लिए प्रयास करना।

2) अंतर्जातीय और अंतर्धार्मिक विवाह को प्रोत्साहन देने तथा ऐसे विवाह करने वाले दंपत्तियों की सुरक्षा के लिए जनजागरण अभियान चलाना। ऐसे व्यक्तियों को सम्मानित करना।

3) जातिवादी सामाजिक संगठनों/खाप/जाति पंचायतों का विरोध तथा जातिवादी संगठनों/पंचायतों द्वारा जाति/सामाजिक बहिष्कार का पुरज़ोर विरोध होना चाहिए।

4) लोगों को जाति उन्मूलन और अन्धविश्वास विरोधी आदर्शों को अपने जीवन में उतारने के लिए प्रोत्साहित करना।

5) ब्राह्मणवादी/मनुवादी जीवन शैली, पहनावा, नामकरण, खान-पान की आदतों का विरोध करना।

6) सार्वजनिक एवं निजी दोनों क्षेत्रों में शिक्षा, नौकरी और प्रोन्नति में संविधान की मूल भावना के अनुरूप आरक्षण प्राप्त करने के लिए अभियान चलाना तथा “क्रिमी लेयर” जैसी अवधारणाओं के खिलाफ व सवर्णों के आर्थिक आरक्षण के खिलाफ मुहिम चलाना।

7) चूंकि जाति विरोधी मुहिम छेड़ने के लिए तथा जाति उन्मूलन आन्दोलन के संदेश को जन-जन तक पहुंचाने के लिए और उनके बीच जाति-विहीन, धर्म निरपेक्ष चेतना पैदा करने के लिए संस्कृति एक ताकतवर माध्यम है, अतः इन मुद्दों पर सांस्कृतिक अभियान चलाना चाहिए।

8) जाति उन्मूलन और नवजागरण आंदोलन के पुरोधा गौतम बुद्ध, संत कबीर, रविदास, बसवान्ना, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, ज्योतिराव फुले, सावित्रीबाई फुले, बाबासाहब आंबेडकर, पेरियार, आयन्काली आदि के संदेशों को जनता के बीच लोकप्रिय करने के लिए अभियान चलाना।

9) “जोतने वाले को ज़मीन” नारे के आधार पर क्रन्तिकारी भूमि सुधार कार्यक्रम को लागू करवाना तथा भूमिहीन दलित व आदिवासियों को भूमि वितरण करना।

नोट: लेखक तुहिन देब छत्तीसगढ़ से स्वतंत्र पत्रकार हैं।


 

Exit mobile version