बात कुछ साल पहले के जाड़ों की है। मेरे मकानमालिक ने मुझे कहा कि सीवर लाईन चोक हो गई है, किसी पड़ोसी ने सूचना दी है, देखा तो ऐसा सच में था। चारों और तेज़ दुर्गन्ध थी, उन्होंने कहा कि किसी को बुलाकर ठीक करा लो। नगर निगम फोन किया जवाब मिला कि कल तक नंबर आएगा। आसपास से पता चला कि गुलाब नगर में कुछ परिवार रहते हैं वे ही यह काम कर पायेंगे। वहां गया, चूंकि वहां पहले से ही शिक्षा केंद्र चलाया था तो एक स्तर का परिचय था। रमेश भाई मिले, उन्होंने 11 बजे आने का कहा, आगे का काम मैंने मेरे रूम पार्टनर को सौंपा और ऑफिस चला गया।
रमेश भाई 11 बजे शराब पीकर आये और उन्होंने काम करने का कहा। मेरे रूम पार्टनर ने उन्हें वहां से भगा दिया। शाम आया तो मैंने स्थिति जस की तस देखी तो रूम पार्टनर से पूछा। जवाब मिला कि साला पी कर आया था तो मैंने भगा दिया। मैंने उससे कहा कि यार फिर क्या करें? चलो खुद कर लेते हैं, उसका चेहरा देखने लायक था। उसने कहा क्या खुद कर लेते हैं? मैंने कहा सीवेज लाईन साफ कर लेते हैं। किसी न किसी को तो करना ही होगा, तो हम क्यों नहीं? उसने मुझे कहा कि आपका दिमाग खराब हो गया है क्या? हम कैसे कर सकते हैं साफ, यह तो कोई स्वीपर ही करेगा! टट्टी ही टट्टी है यह, मैंने पूछा किसकी? उसने कहा कि यह सवाल ही नहीं है कि किसकी और वो लगभग नाराज़ होकर घर के बाहर निकल गया।
वह जब लौटा तो मैंने कहा कि चलो गुलाब नगर चलते हैं, फिर से उनसे निवेदन करेंगे। पहुंचे, रमेश भाई की तब तक उतर चुकी थी। हमारे कुछ कहने के पहले ही रमेश भाई ने कहा, मैं गया था भाईसाहब, तुम्हारे लड़के ने ही काम नहीं कराया। संयोग से वह उसे पहचान नहीं रहे थे। रूम पार्टनर ने कहा कि आप पीकर गए थे इसलिए काम नहीं कराया। इसके बाद रमेश भाई ने जो बात कही, वही इस आलेख का सार है। उन्होंने कहा,
“आप क्या समझते हैं साहब कि मैं शौक के लिए पीता हूं? चलिये एक काम करते हैं, मैं आपसे कहता हूं कि मैं पैसे दे रहा हूं, आप मेरे घर की सीवेज लाईन साफ कर दीजिये। गले-गले तक टट्टी में उतरना होता है। चारों ओर से ज़हरीली गैसे खदबदाती हैं और यह भी नहीं पता कि कौन सी गैस कितनी ज़हरीली है? हम तो यह जानते नहीं हैं इसलिए जैसे-तैसे पीकर उतरते हैं। आप जिसे नशा कहते हैं वह तो हमारे लिए दवाई है।”
उन्होंने कहा कि जब आप लोग या आपके बच्चे मैदान में खेल रहे होते हैं तब भी यदि गलती से भी आपके पैर में किसी का मल लग जाता है तो आप और आपके साथ खेल रहे दोस्तों का मन ग्लानि से भर जाता है। फिर मैं तो आपकी सीवेज लाईन साफ करने जा रहा हूं तो मैं भी मेरी कुछ तैयारी तो करुंगा। आप गाड़ी भी चलाते हैं तो सबसे पहले हेलमेट पहनते हैं और हमें इन सीवेज लाईन में बगैर किसी सुरक्षा के उतरने को मजबूर किया जाता है। हमसे कहा जाता है कि तुम लोग ये काम नहीं करोगे तो क्या करोगे? कई बार दूसरा काम करने की कोशिश भी की लेकिन जो लोग जानते हैं वे कुछ और काम काम देते ही नहीं। उन्होंने एक घर की ओर इशारा किया और बताया कि इस घर का मुखिया पिछले साल बड़े टैंक में उतरा था, फिर लाश ही लौटी। पता नहीं नीचे क्या हुआ! हमारी ज़िंदगी और मौत दोनों ही रहस्यमय है। मेरे रूम पार्टनर के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकल रहा था, हम बस रमेश भाई को सुन रहे थे।
हालाँकि फिर से निवेदन करने पर रमेश भाई आये और उन्होंने उसी हाड़ कंपाने वाली ठंड में वह काम किया। हमसे केवल गर्म पानी मांगा ताकि वे अपने आपको साफ रख सकें। उस दिन मेरा रूम पार्टनर बहुत बैचैन दिखा। मुझे भी इस बात से बड़ी कोफ़्त थी कि सब कुछ जानते हुए कि यह एक तरह का दंश है और मैंने भी रमेश भाई को वह काम करने को मजबूर किया। मेरे पास भी कोई विकल्प नहीं था। मैंने और मेरे जैसे कई लोगों ने रमेश भाई को यह काम करने के लिए मजबूर किया है। हमने कई बार इस घिनौने काम को उनकी विशेषज्ञता बताकर तो कई बार उनकी जाति का हवाला देकर उन्हें मजबूर किया है।
Youth Ki Awaaz के पाठक इसके विषय में क्या सोचते हैं, यह मुझे अभी तक तो पता नहीं है लेकिन मैं इस आलेख के माध्यम से आप सभी से यह सवाल दोहराना चाहता हूं- हम अपने आसपास, रोज़ शहरों में हज़ारों लोगों को बगैर सुरक्षा उपकरणों को इस तरह का काम करने के लिए मजबूर होते देखते हैं और कई बार तो हम खुद यह काम कराते हैं, हद तो यह भी है कि हम इसे अमानवीय भी नहीं मानते हैं और इसके खिलाफ कोई आवाज भी नहीं उठाते हैं। इससे पहले कि आप में से किसी का यह तर्क आये कि किसी न किसी को तो करना ही होगा, मैं यह कहना चाहता हूं कि हां, करना ही होगा पर यदि किसी को ही करना है तो फिर हममें से कोई क्यों नहीं? क्यों जाति और उपजातियों के खेमें में बांटकर इस तरह का काम करने के लिए किसी एक जाति विशेष के व्यक्ति को ही मजबूर किया जाता है? और वो भी भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में, जहां संविधान में हरेक के मौलिक अधिकार तय हैं। सवाल यह है कि क्या यह मौलिक अधिकार कुछ वर्ग विशेष के लिए ही हैं? वर्ग विशेष को जाति और छुआछूत के दलदल में ही फंसे रहने के लिए कब तक मजबूर किया जाता रहेगा?
अब तो कानून बन चुका है और सरकारें गंभीर हो ही गई होंगी, पर ऐसा भी नहीं है। सरकारों की उदासीनता अभी भी उतनी ही है जितनी पचास साल पहले थी और असंवेदनशीलता तो कुछ ऐसी कि प्रधानमन्त्री द्वारा अति प्रचारित राष्ट्रीय कौशल विकास निगम के तहत संभावित रोज़गारों की सूची में “मैला ढोने” को भी शामिल किया था, भारी विरोध के बाद उसे हटा दिया गया।
आपको ज्ञात हो कि सर्वोच्च न्यायालय ने सफाई कर्मचारी आन्दोलन और अन्य बनाम भारत संघ में अपने फैसले में मैला ढोने की प्रथा को संविधान के अनुच्छेद 14,17,21 और 23 के खिलाफ बताया है। अब कुछ पाठक ऐसा भी सोच सकते हैं कि अरे यह सब बात तो मैला ढोने की प्रथा के लिए है और मैं बात सीवेज लाईन साफ करने वालों की कर रहा हूं, जबकि ये दोनों अलग-अलग बात है। नहीं अब ऐसा नहीं है, मैला ढोने की व्यापक परिभाषा अब हमारे सामने है। आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि वर्ष 2013 में हस्त कर्मियों के रोज़गार निषेध और उनके पुनर्वास सम्बंधित अधिनियम 2013 संसद द्वारा पारित किया गया जिसमें उन मजदूरों को भी हस्त कर्मियों की श्रेणी में रखा गया जो कि सीवर, टैंक या रेलवे की पटरियां साफ करते हैं।
शर्मनाक यह भी है कि 1993 के बाद से आज तक किसी एक भी व्यक्ति के खिलाफ मैला ढोने का काम करवाने के लिए कार्यवाही नहीं हुई है, जबकि कई संस्थानों में आज भी इस काम के लिये खुले रूप से लोगों की नियुक्ति होती है जैसे कि भारतीय रेल। आपको जानकर हैरानी ही होगी कि आज भी सफाई करने के लिये खुले नालों में उतरने के बाद, ज़हरीली गैसों के कारण दम घुटने से मज़दूरों की मौतों को आज भी लापरवाही या दुर्घटना के नाम पर हुई मौत के नाम पर दर्ज किया जाता है और कभी भी पर्याप्त रूप से क्षतिपूर्ति नहीं दी जाती है। जबकि यह किसी भी तरह से लापरवाही से हुई मौत नहीं कही जा सकती है। अधिकांश नगर निगमों, मंडलों ने सुरक्षा उपकरण मुहैया नहीं कराये हैं और इन मज़दूरों को बगैर उपकरणों के ही काम करने के लिए मजबूर किया जाता है। इसके बाद भी यदि मौत हो जाए तो फिर प्रकरण दर्ज करने में ही आनाकानी की जाती है।
हाल ही में नवम्बर माह में बनारस के चौकाघाट स्थित सीवर में दो मज़दूरों की गैस रिसाव और तेज बहाव के कारण मौत हो गई। केवल आपकी जानकारी के लिए बता दें कि यह प्रकरण भी “मैनुअल स्केवेंजिंग एक्ट 2013” के अंतर्गत दर्ज नहीं किया गया। पीड़ितों को कोई मुआवज़ा भी नहीं दिया गया है। एफआईआर तो दर्ज हुई है लेकिन तीसरे पीड़ित सत्येन्द्र पासवान (जिनकी आंख की रौशनी चली गई) का नाम भी उसमें नहीं है। यानी बजबजाती गंदगी के बीच जो मुझे और आपको साफ रखने के लिए अपनी जिंदगियां दांव पर लगा रहे हैं, वे बहुत ही कठिन परिस्थियों में रह रहे हैं। उनके लिए मुझे और आपको आवाज़ बुलंद करने की ज़रुरत है। आशा है इस मुद्दे पर भी आपकी आवाज़ आएगी।