लोकसभा चुनाव का पर्व भारत के दरवाज़े पर आकर खड़ा है। ऐसे में हर दल अपने आपको इस चुनाव में मज़बूती से पेश करने और जीतने की रणनीति बनाने में लगी है लेकिन कई मायनों में यह चुनाव अन्य चुनावों से अलग नज़र आ रहा है।
भारत की जनता लोकसभा चुनावों में मतदान कर इस देश के सांसदों को चुनती है और बहुमत वाले दलों के सांसद मिलकर केन्द्र सरकार का चुनाव करते हैं। इस बार 2014 लोकसभा चुनाव की तरह भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का ऐलान तो हो चुका है लेकिन दूसरी तरफ से कौन खड़ा होगा, इसे लेकर संशय की स्थिति है।
शनिवार 19 जनवरी को बंगाल में एक ‘महारैली’ का आयोजन किया गया जिसमें लगभग 20 विपक्षी दलों के नेताओं ने एक स्वर में कहा कि इस देश की सत्ता से भाजपा को हटाना है।
भारत जैसे देश में इतनी चुनौतियां होने के बावजूद विपक्षी दलों द्वारा ‘देश बचाने’ की हुंकार भरना यह संदेश देती है कि उनके पास कोई नई राह नहीं है। हर नेता के भाषण से किसी खास नेता के खिलाफ नफरत, सत्ता खोने का डर, सत्ता से दूर रहने की बेचैनी और खुद के अस्तित्व को बचाने की कोशिश साफ तौर पर दिखाई दे रही थी।
बंगाल की रैली में देश बचाने की निती से ज़्यादा खुद को और खुद के दल को बचाने की रणनीति नज़र आती है। इस ‘महारैली’ में तेजस्वी यादव का यह कहना कि मेरे पिता को साज़िश के तहत फंसाया गया है, भारत के न्यायालय का अपमान है। वहीं, इस रैली में व्यक्ति विशेष का विरोध कर वह देश को नहीं बल्कि अपने दल को बचाने में लगे हैं।
उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों में अपना जनाधार खो चुकी मायावती का अखिलेश यादव के साथ आकर यह कहना कि हम देश बचाने में लगे हैं, समझ से परे है। आप यह कहें कि हम अकेले लड़ने में असमर्थ हैं इसलिए साथ लड़कर जीतेंगे और देश के लिए नई नीतियों का निर्माण करेंगे। ऐसे में संदेश तो यही जाएगा कि आपका उद्देश्य देश नहीं बल्कि दल को बचाना है क्योंकि नीतियों के बारे में सोचने का वक्त तो है नहीं।
अरविंद केजरीवाल का बंगाल की रैली में जाकर यह कहना कि ‘मोदी और शाह जाने वाले हैं, अच्छे दिन आने वाले हैं’ इन सब पार्टियों के उद्देश्यों की झलक पेश करता है। रैली के ज़रिए सभी मिलकर सत्ता का नहीं बल्कि सत्ता में बैठे व्यक्ति विशेष का विरोध कर रहे हैं।
देश के लिए शुभ संकेत नहीं
असल में सभी लोगों का यह महागठबंधन सफल हो भी जाए लेकिन देश के लिए यह शुभ संकेत नहीं है क्योकिं यहां देश बचाने की लड़ाई नहीं बल्कि खुद के दल को बचाने की लड़ाई है। जब इन सबके सामने प्रधानमंत्री का पद और सत्ता नज़र आएगी तब समझौते किए जाएंगे और मुद्दों पर सौदेबाज़ी होगी।
किसी को बचाने की कोशिश की जाएगी तो किसी को डर दिखाकर खामोश किया जाएगा और देश से ज़्यादा यह महागठबंधन खुद के नेताओं के पदों में उलझ कर रह जाएगा। इस सरकार के कामों से खुश ना होना अलग बात है और महागठबंधन का साथ देना अलग बात है।
इस देश को किसी नेता का विरोध करने वाला विपक्ष नहीं चाहिए। इस देश को ऐसा गठबंधन चाहिए जो बताए कि सत्ता की कौन सी निती में क्या कमी है और वे उसे कैसे दूर करेंगे। मौजूदा हालातों में ऐसी संभावनाएं नज़र नहीं आती क्योंकि यहां तो विपक्ष सोच रहे हैं किसी ना किसी तरह बस इनको हटा दिया जाए, फिर सोचेंगे कौन प्रधानमंत्री बनेगा और कौन निती निर्धारण करेगा।