गाँधी शब्द ज़हन में आते ही सबसे पहला ध्यान अहिंसा के सन्त और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करने वाले मोहन दास करमचंद गाँधी पर ही जाता है।
मोहन दास करमचंद गाँधी केवल व्यक्ति नहीं थे, ना ही महात्मा इतने छोटे कि उन्हें किसी एक किरदार में बांधा भी जा सके लेकिन किरदार तो थे या शायद किरदारों का समायोजन थे। वर्तमान पीढ़ी को यह समझना होगा कि गाँधी केवल एक व्यक्ति या विचार ही नहीं हैं बल्कि गाँधी भविष्य के भारत के अवसर हैं।
गाँधी कभी भी व्यापार नहीं रहे हैं जो कि पिछले 70 वर्षों से नोटों से लेकर वोटों की राजनीति ने उन्हें बना दिया है। आज गाँधी की उपयोगिता केवल कुछ ‘राजनीतिक कोट्स’ या कुछ दिन विशेष के अवसरों तक ही सीमित कर दिए गए हैं।
गाँधी खुद कभी व्यक्ति पूजक नहीं थे और ना ही उन्हें कभी गाँधीवाद में ही दिलचस्पी रही है लेकिन गाँधी को एक व्यक्ति मानकर उनको वाद-विवाद में उलझा कर, उनके विचारों की तिलांजलि दे दी गई।
आज बहुसंख्यक जन गाँधी विचारों से ज़्यादा गाँधी व्यक्ति की पूजा में ही रहते हैं जबकि इसी व्यक्ति पूजा के चरित्र ने गाँधी को धरो में बांटने की प्रथा शुरू की। इस प्रथा का कृष्णपक्ष यह है कि गाँधी से सहमत और असहमत होने वाले ज़्यादातर लोग उन्हें समझ ही नहीं पाए।
वे गाँधी से ज़्यादा मोहनदास के चरित्र में उलझ गए हैं। हमें अंग्रेज़ों का शुक्रिया भी करना चाहिए कि उसने दुनिया को एक गाँधी दिया। परिस्थिति ना होती तो कोई मोहनदास कभी भी गाँधी नहीं बनता। आज परिस्थिति नहीं है, इसलिए गाँधी नहीं हैं।
गाँधी भविष्य क्यों थे?
ऐसा इसलिए क्योंकि गाँधी में ही वह काबलियत थी जो मानव संरचना का आधार ग्रामोद्योग में ढूंढ पाए। गाँधी ने हमेशा ही स्व-रोज़गार, हस्त उद्योग और कृषि जैसे क्षेत्रों को प्रोत्साहित किए जाने का समर्थन करते हुए यह सत्यापित भी किया कि भविष्य में जब विज्ञान की सीमाएं समाप्त होनी शुरू होंगी तब भी गाँधी सार्थक नज़र आएंगे, क्योंकि मनुष्य के विकास का आधार ही कृषि जैसी बुनियादी चीज़े हैं।
स्त्री विमर्श की बातें करने वाले गाँधी सनातनी परंपराओं के प्रतीक ही थे। समाज में आज औरतों के ऊपर अनेक किस्म के अत्याचार हो रहे हैं। बाल विवाह, दहेज प्रथा, भ्रूण-हत्या, जन्म के बाद हत्या और असमानता जैसी बुराइयां आज भी समाज में मौजूद हैं लेकिन जब गाँधी जी से राजनीति में महिलाओं के सशक्तिकरण की बात हुई तब उन्होंने कहा कि मैं इसके साथ कोई समझौता नहीं कर सकता।
महिलाओं को सशक्त बनाने की कोशिश ही उनके नारी आंदोलन का पहला आयाम था। उनका कहना था कि महिलाओं का अपने शरीर पर विवाह के बाद भी अपना पूर्ण अधिकार होता है। बिना उनके चाहे कोई उन्हें छू भी नहीं सकता है। चाहे वह उनका पति ही क्यों ना हो।
कुछ वर्ष पूर्व शशि थरूर द्वारा संसद में ‘मैरिटल रेप’ जैसा प्राइवेट बिल पेश किया गया जो इस बात की प्रामाणिकता है कि 1948 के गाँधी की प्रगतिशीलता तक भी अभी 2019 का भारत नहीं पहुंच सका है।
गाँधी ने समानता के लिए भाषणों से ज़्यादा आचरण को समझा
जब कहा गया कि हरिजनों में अछूता का मुख्य कारण गंदगी है, तब झाड़ू उठाकर गाँधी खुद ही सफाई करने पहुंच जाते थे। गाँधी उन्हीं परिवर्तनों की अपेक्षाएं रखते थे, जिन्हें वह खुद कर पाते थे।
गाँधी की किताब ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ के मुताबिक एक बार एक माँ अपने बच्चे को लेकर गाँधी के पास आई और अपने बच्चे की शिकायत करते हुए कहती हैं कि मेरा बच्चा चिनी नहीं छोड़ पा रहा है। गाँधी ने बच्चे की ओर देखा और कहा, “ऐसा है इसे लेकर कल आना।”
अगले दिन भी गाँधी ने उससे यही कहा कि कल आना। ऐसा करते हुए काफी दिन हो गए फिर आखिरी दिन बच्चे के पास आकर कहते हैं, “बेटा चिनी खाना बुरी बात है। कल से मत खाना।” महिला ने गाँधी से कहा कि वह पहले दिन भी कह सकते थे लेकिन इतने दिनों बाद बस एक लाइन कही।
गाँधी कहते हैं, “हां, कह तो सकता था लेकिन इतने दिनों से मैं यह कोशिश कर रहा था कि मैं चिनी खाना खुद छोड़ सकता हूं या नहीं, जब मैं खुद ही ना कर पाऊं फिर उपदेश देने का क्या फायदा। इसलिए गाँधी केवल विचार ही नहीं बल्कि चरित्र थे।
गाँधी के सपनों के भारत में कुटीर उद्योग, ग्राम उद्योग, लघु उद्योग और हर हाथ को कौशल युक्त कुशल बनाना था जिस पर भारत अब भी चलने का प्रयास कर रहा है।
‘सेवा ग्राम आश्रम’ केवल एक प्रतीक बल्कि एक दूर दृष्टि थी जिस पर अतित का भारत विफल रहा है और भविष्य का भारत समझने का प्रयास कर रहा है। आध्यात्मिक गुरू ओशो अपनी किताब ‘My Experiment With Truth’ (सत्य के साथ मेरे प्रयोग) के बारे में लिखते हैं, “यह मेरे जीवन की उन चंद आत्मकथाओं में से है, जिसे बड़ी ईमानदारी से लिखा गया है।”
वास्तव में उस किताब में वह सब कुछ है जिसे आम तौर पर सामान्य मनुष्य भी छिपाना चाहता है लेकिन शायद वह आज का मीडिया युग नहीं रहा होगा या शायद तब के लोग आज की तरह कुंठित विचारधाराओं से घिरे नहीं होंगे। यह गाँधी का भी अहोभाग्य रहा हो कि वह आज के 24*7 ब्रेकिंग न्यूज़ के दौर में पैदा नहीं हुए।
गाँधी और राष्ट्रपिता
आज की कड़वी सच्चाई यह है कि अब बोलने की आज़ादी के नाम पर भी ‘लब’ आज़ाद नहीं रहे हैं और शायद यही वजह रही कि उनकी किताब आने के बाद भी गाँधी, गाँधी ही रहे। हालांकि तब एक बड़ा वर्ग बिरला की दन्त कथाओं के मिथ्या प्रचार का वाहक तो बना ही है।
गाँधी को अनाधिकारिक रूप से राष्ट्रपिता भी कहा जाता है। पिता का अर्थ यहां सृजनकर्ता है जिसके विचारों ने देश की नींव रखी हो, जिसे देश के दर्शन का आधार माना जाता हो, जिसकी उपयोगिता देश के दर्शन शास्त्र से मेल खाती हो और जिसकी विचारधारा पर चलकर देश आगे बढ़ सके।
यही नहीं, जो पंथ निरपेक्षता और जातिवाद सहित हर उस बंधनों से मुक्त हो जहां मनुष्य को मनुष्य से अलग करने का षड्यंत्र रचा जा रहा हो। विचार ऐसा हो जिसमें मनुष्यता का कल्याण हो, जो हिंसा के विचार का विरोधी हो और जो बहुसंख्यकवाद में भी अल्पसंख्यकों का भी अनुयाई हो। शायद इसी वजह से गाँधी अनाधिकारिक रूप से राष्ट्र के पिता कहलाए।
शायद इसी वजह से गाँधी असहमत विचारों का भी सहमत वर्ग बना पाए। असहमत विचारों का सहमत होकर साथ रहना ही राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है, जिसे हम विविधता में एकता कहते हैं, जिसे हम भारत कहते हैं और शायद यही वजह है कि भारत को अल्पसंख्यकों का देश कहा जाता है।
जब भी गाँधी 360 डिग्री पर बात होगी तब इस पर मंथन किया जाना चाहिए कि आज हम गाँधी को कैसे याद कर पाते हैं और गाँधी की उपयोगिता आज के परिदृश्य में कैसी होगी।
क्या गाँधीवाद केवल एक ढोंग है?
आज का एक बड़ा वर्ग गाँधी को केवल कुछ ही कारणों से याद रखना चाहता है, जिनमें खलीफा की खिलाफत, बिरला की दन्त कथाओं से लेकर ब्रह्मचर्य, भगत सिंह की फांसी पर आपत्ति ना जाताना, गाँधी का जिन्ना या नेहरू से आत्मीयता या फिर पाकिस्तान की 55 करोड़ देने की मांग की बात होती है।
इनमे से ज़्यादातर बातें आग में घी की तरह है या वह उस गोली की तरह जिनकी दिशा तो तय है लेकिन दिशा की दशा खतरनाक है। गाँधी ने भगत सिंह को बचाने के लिए तत्कालीन वाइसराय को अंतिम समय तक पत्र लिखा। आखिरी पत्र में उन्होंने यहां तक लिखा कि अगर संभव हो तो सज़ा को उम्र कैद में तब्दील कर दें।
दरअसल गाँधी ने भगत सिंह का कोई व्यक्तिगत समर्थन नहीं किया बल्कि फांसी की सज़ा से ही उनका विरोध था। इसलिए उन्होंने वाइसराय को पत्र लिखा। वही हाल गाँधी की हत्या को लेकर भी है, ज़्यादातर लोगों को लगता है कि उनकी हत्या के पीछे पाकिस्तान के मुद्दे का हाथ था लेकिन जब पाकिस्तान का कहीं नाम भी नहीं था तब भी उन्हें मारने की साज़िश क्यों रची गई?
खैर, ऐसी घटनाओं पर प्रकाश डालने वाला यह वर्ग गाँधी पर नहीं, मोहन दास पर विचरण करता है। मोहनदास उतने ही साधारण हैं जितने कि कोई अन्य सामान्य मनुष्य। जबकि मोहन दास से गाँधी का सफर कुछ अलग है। समय-समय पर हर गाँधी पर मोहन दास हावी होता ही रहता है इसलिए गाँधी किरदार से ज़्यादा केवल एक विचार हैं।
यह कहना गलत नहीं होगा कि गाँधी एक जवाब हैं उन समस्याओं का जिसके लिए मनुष्यता को पिछले 5000 सालों में 3000 युद्ध करने पड़ गए हो। जो महाभारत से शुरू होकर कलिंगा, काबा, मक्का, जेरुसलम, वियतनाम-बुद्धिस्ट कॉन्क्लेव, कप्पेल, लबेनिस, फ्रेंच कैथोलिक वॉर, होलक्स्टर और हिरोशिमा नागासाकी, सीरिया और ईराक जैसे देशों में शांति बहाल करने के नाम पर ऐसी अशांति मचा दे कि पूरी मानवता ही शर्मा जाए।
गाँधी असहमत विचारों के सहमत होने के दर्शन शास्त्र हैं। गाँधी एक अहिंसक विचार की तरह हिंसा की बढ़ती मनोवृति के प्रति एक समाधान हैं। एक ऐसा किरदार जिनमें कई किरदार समायोजित थे। गाँधी एक वकील, पत्रकार, राजनेता, जन नेता, एक समाज सुधारक, दर्शन शास्त्री और प्रयोगकर्ता भी थे।
गाँधी एक अर्थशास्त्री भी थे जिनमें तब के परिप्रेक्ष्य में दूरदर्शिता भी थी। जब भी आध्यात्मिक गाँधी की बात होगी तब वह कहीं ना कहीं पश्चिमवादी बाइबिल और पूर्व के गीता के मध्य कहीं मिल जाएंगे। सत्य और अहिंसा का प्रतीक गाँधी शब्द सुनने में तो साधारण लगता है लेकिन यही प्रयोग जब आचरण में रम जाए तब मोहनदास को गाँधी बना देती है।
यह सम्भवतः किसी भी ऐसे विचार के लिए दुखदाई पक्ष होता है जब उनकी तथाकथित अनुकरण करने वाले उन्हें व्यक्ति पूजा की मूर्ति बना देते हैं। यही बुद्ध और महावीर के साथ हुआ और तो और ईसा मसीह को भी भगवान बना दिया गया।
आज कल गाँधी और अंबेडकर के साथ भी यही प्रयोग हो रहा है। जब भी हम पैगंबरों की पूजा करने लगते हैं, यह उनकी खुद की हार होती है। पूजा कराने पैगंबर नहीं आते बल्कि वह दिशा देने आते हैं।
हम गाँधी के साथ भी यही कर रहे हैं। गाँधी आचरण थे जिस पर भविष्य को विचरण करना था लेकिन आज के गाँधी को भी व्यक्ति पूजा की श्रेणी में डाल दिया गया है जहां उनके विचारों की तिलांजलि दे दी गई है और एक वर्ग के लिए गाँधी की समालोचना, ईशनिंदा की तरह हो चुकी है और दूसरा वर्ग उन्हें सदी का मानो सबसे बड़ा विलेन घोषित कर दिया हो।
गाँधी पूर्णतः आदर्श लोक नहीं थे लेकिन गाँधी के सपनो का भारत ज़रूर आदर्श लोक हो सकता था। अफसोस कि यह हो ना सका क्योंकि जब तक गाँधी पर विचरण नहीं होगा, उनके स्वराज को हम समझ ही नहीं सकते हैं।
नोट: लेखक भारतीय समाजिक अनुसंधान परिषद के ‘रिसर्च फेलो’ हैं। लेख में प्रयोग किए गए तथ्य इन पुस्तकों ‘माय एक्सपेरिमेंट विथ ट्रुथ’, ‘स्वर्णिम भारत’, ‘भारत का भविष्य’, ‘इंडिया बिफोर गाँधी’ और महात्मा गाँधीज़ आईडिया से लिए गए हैं।