आज मैनुअल स्कैवेंजिंग पर लिखते समय मुझे भारत माता की स्नेहमयी तस्वीर नज़र आने लगती है। जिनके हाथ में त्रिशूल है और पीछे शेर के साथ एक अखण्ड भारत की तस्वीर लगी है! इतनी सशक्त भारत माता! भारत सशक्त तो है लेकिन आज असली भारत माता किसी हाथ में त्रिशूल लिए हुए नहीं दिखाई देती। सच कहूं तो मुझे याद आती है ठंड की वह रात जिसमें मैं ट्रेन से कहीं जा रहा था, यही कोई चार-पांच साल पहले की घटना रही होगी तब मेरी ज़िंदगी इस तरह से आरामदेह नहीं थी।
रात का समय था और मैं द्वितीय क्लास के डिब्बे में बैठकर कोई किताब पढ़ रहा था। जहां तक याद है कि बोगी खचाखच भरी हुई थी। बीच-बीच में लोग शौचालय की तरफ जाते थे और दरवाज़ा खोलकर झट से वापस नाक पर रुमाल रखे लौट आते थे, या फिर आगे बढ़कर किसी दूसरी बोगी के शौचालय का रुख कर लेते थे। बात मुझे भी थोड़ी-थोड़ी समझ में आ रही थी कि शायद वह जो शौचालय रूम था, वह गंदा था।
उत्सुकता वश जब यह प्रक्रिया लगातार चल रही थी तो मैंने भी शौचालय की ओर आगे बढ़ दरवाज़ा खोला तो पूरा का पूरा महान देश अपनी महान स्वच्छ परम्परा का यशोगान कर रहा था। मैंने भी नाक बंद किया और उसी गति से वापस लौट आया। कुछ देर बाद जो मैंने देखा वही इस देश का सनातन मूल्य है। एक गुमनाम, कपड़ों से मैली-कुचली, उम्र में चार दशक का तिरस्कार झेली महिला हाथों में कटोरा लिए उस पखाने के दरवाज़े पर खड़ी थी। कुछ देर में वह महिला बिना किसी शिकायत के और स्वच्छता के प्रचार-प्रसार का मटेरियल बने कम से कम पचासों कटोरे पानी शौच में बाहर के बेसिन से बहाती रही, जिसकी याद मुझे आज भी शर्मिंदा करती है।
राष्ट्र को पहले क्रम पर रखने वाले लोग ऐसे ही होते हैं जो बिना किसी कैमरे-फेसबुक या ट्वीटर के ऐसे तमाम कार्य कर गुज़रते हैं। वह महिला ही भारत माता थी! अक्सर लोग मुझसे पूछते हैं कि आपने भारत माता को देखा है तो मैं उन्हीं को याद करता हूं, जिनके हाथ मे त्रिशूल नहीं बल्कि वह कटोरा है जिससे वह अपने बच्चों का पेट भी पालती है और राष्ट्र-निर्माण के महान कार्य मे एक सफल योगदान भी करती हैं। मेरी भारत मां के गले मे स्वर्ण आभूषण नहीं लदा होता बल्कि आत्मबलिदान का जंतर लटका होता है!
खैर उस रात मैं सो नहीं पाया। रात भर उस महिला को देखता रहा वह भी ऐसे कि उससे नज़र ना मिल जाए। पूरी रात यह सोचता रहा कि अपनी सीट उसे दे दूं लेकिन उसके लिए हिम्मत नहीं जुटा सका! आज भी उस रात के लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूं,पर ज्यों ही हाथ से मैला ढोने की प्रथा की ओर नज़र दौड़ाता हूं, शर्म से झुक जाता हूं और अंतर्मन में घिटोरनी का टैंक घुस जाता है और फिर पूरा सिस्टम उस टैंक की तरह बदबू देने लगता है।
खैर आगे के जीवन में जब भी मुझे ऐसी एकाध घटनाएं याद आती हैं तो एक तुलनात्मक डाटा समान रूप से दिखने लगती हैं। आज भी हाथ से मैला ढोने वाले लोग गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए लड़ रहे हैं। ना तो उनके पास सम्मानजनक वेतन है न ही कार्यस्थल पर कोई सुरक्षा उपकरण उपलब्ध है। दोयम दर्जे के नागरिकों की तरह इनसे लोगों का व्यवहार है। देश के विकास का अगर मूल्यांकन करना हो तो उसके सबसे कमज़ेर तबके के जीवन का मूल्यांकन करके एक अनुमानित स्थिति का पता लगा सकते हैं। गांधीजी के चश्मे से हम झाड़ू लेकर खड़े तो हो सकते हैं लेकिन अगर उनकी दृष्टि को धारण किया जाए तो हम इसका हल बन सकते हैं।