कहते हैं कि कोई भी साहित्य और सिनेमा अपने समय के समाज का आईना होता है। यह बात सोलह आने सच है। हमें किसी भी वक्त के समाज और उसके राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक ढांचे, परिस्थितियों इत्यादि के बारे में जानना हो तो, उस वक्त का साहित्य और सिनेमा हमें उस वक्त में झांककर देखने का भरपूर मौका देता है। फिल्मों और साहित्य के माध्यम से किसी के जीवन का सच जनता तक पहुंचता है, बशर्ते वह पूर्वाग्रहों से ग्रसित ना हो अन्यथा यह देखने वाले को भ्रमित कर सकता है। उस समय के समाज के प्रति, व्यक्ति के जीवन-चरित्र के प्रति एक अलग अवधारणा बन सकती है। साहित्य की बात फिर कभी, आज बात फिल्मों की।
भारत फिल्म उद्योग का एक बड़ा स्थल है या यूं कहें कि फिल्मों के उत्पादन के मामले में भारत दुनिया का नबंर एक देश है, जहां प्रतिवर्ष लगभग 1600 फिल्में सभी भाषाओं में रुपहले पर्दे पर आती हैं। कुछ आती हैं, वो कीर्तिमान रचती हैं यद्यपि उनमें कोई बड़ा कलाकार नहीं होता फिर भी वह अपनी विषय वस्तु की वजह से टिकती हैं। कुछ बड़े कलाकारों के दम पर आती हैं और औंधे मुंह गिरती हैं। कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जो अपनी विवादस्पद विषयवस्तु के कारण नाम कमाती हैं और उनका सीधा असर दर्शकों के मन-मस्तिष्क पर पड़ता है और वो सामाजिक माहौल को भी प्रभावित करती हैं।
आजकल भारत में एक नया ट्रेंड चल पड़ा है बायोपिक फिल्में बनाने का और यह काफी ज़ोर पकड़ रहा है। खास बात यह है कि यदि किसी व्यक्ति के जीवित रहते उसके जीवन पर फिल्म बनाई जाती है तो सम्भव है कि वह अपने मन मुताबिक उसमें परिवर्तन भी करा सकता है। फिल्मकार भी फिल्म निर्माण में थोड़ी लिबर्टी लेते ही हैं और फिल्म के शुरुआत में एक डिस्कलेमर जारी कर दिया जाता है कि यह किसी के जीवन से प्रेरित है अथवा कल्पना पर आधरित है।
फिल्म अगर किसी खिलाड़ी के जीवन पर आधारित है तब उतनी समस्याएं नहीं आती हैं पर अगर किसी राजनीतिक हस्ती या ऐतिहासिक नायक-नायिकाओं के ऊपर फिल्म बनाई गईं तो उसका विवादों में फंसना लगभग तय है। यह पॉलिटिकल बायोपिक फिल्में बाद में राजनीतिक माहौल गर्माने के काम आती हैं।
वर्ष 2014 में पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के आर्थिक सलाहकार रहे संजय बारु ने उनके जीवन, कॉंग्रेस में गांधी परिवार के साथ उनके सम्बन्धों और उनके भारत के प्राधनमंत्री बनने की परिस्थितियों पर एक किताब लिखी थी “द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर”। तब उस किताब की विषय वस्तु को लेकर काफी विवाद हुआ था कि इसमें गलत तथ्य व घटनाओं को गलत तरीके से पेश किया गया है। थोड़ा हो-हल्ला होने के बाद माहौल शांत हुआ।
4 सालों तक लोगों ने किताब लेकर पढ़ी और अपने-अपने निष्कर्ष निकाले। अब 2018 में उसी किताब पर आधारित एक फिल्म भी आ गई जिसका नाम किताब के नाम पर ही “द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर” है। यह फिल्म रिलीज़ हो चुकी है। फिल्म के ट्रेलर को भाजपा ने अपने ट्विटर हैण्डल से पोस्ट करते हुए पहला हमला बोला तो कॉंग्रेस में हड़कंप मच गई।
लोकसभा चुनाव के नज़दीक फिल्म का रिलीज़ होना राजनैतिक कदम तो नहीं
महाराष्ट्र के इंडियन यूथ कॉंग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सत्यजीत तांबे ने एक चिट्ठी लिखकर व वीडियो जारी कर कहा है कि फिल्म पहले उन लोगों को दिखाई जाये, यदि इसमें कुछ आपत्तिजनक तथ्य हों या घटनाओं को गलत ढंग से पेश किया गया हो तो उसे हटाया जाये। फिल्म में डॉ. मनमोहन सिंह का किरदार अदा कर रहे कलाकार अनुपम खेर जिनकी पत्नी किरण खेर चंडीगढ़ से लोकसभा सांसद हैं का कहना है कि फिल्म को पहले केंद्रीय फिल्म एवं प्रमाणन बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत किया जा चुका है और वहां से फिल्म को प्रमाण पत्र भी मिल चुका है, इसलिए इसे किसी और से प्रमाणपत्र लेने की कोई आवश्यकता नहीं हैं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभी को है।
केन्द्रीय फिल्म एवं प्रमाणन बोर्ड के अध्यक्ष गीतकार प्रसून जोशी हैं जिन्हें 2017 में इस पद पर बैठाया गया था। ध्यान देने वाली बात इस फिल्म का राजनीतिक पक्ष है कि फिल्म ऐसे समय में आई है जब लोकसभा चुनाव काफी नज़दीक है। यद्यपि फिल्में मनोरजंन के नज़रिए से बनाई जाती हैं पर कॉंग्रेस को डर है कि कहीं फिल्म में दिखाए पार्टी के स्याह पक्ष और डॉ. मनमोहन सिंह के पार्टी के साथ संबंध, उनका एक रिमोट कंट्रोल से हैण्डल होना इत्यादि चुनाव से पहले एक नकारात्मक महौल ना बना दे जो कि पार्टी के लिए घातक साबित हो। यह भी स्पष्ट है कि भाजपा इस फिल्म का उपयोग कॉंग्रेस पर वार करने के लिए एक हथियार के रूप में करेगी।
पहले भी बन चुकी हैं ऐसी विवादित फिल्में
यह पहली बार नहीं हैं जब किसी राजनीतिक व्यक्ति या ऐतिहासिक नायकों पर फिल्में बनी हो और उन पर बवाल काटा गया हो। इसकी एक लंबी फेहरिस्त है। वर्ष 1975 में गुलज़ार के निर्देशन में एक फिल्म बनी थी आंधी। जनता में यह चर्चा थी कि यह तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जीवन की घटनाओं पर आधारित है।
1975 के आपातकाल के दौरान इस फिल्म के प्रदर्शन पर कुछ समय के लिए प्रतिबंध भी लगाया गया था। 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी की हार के बाद जनता पार्टी ने प्रतिबंध हटाकर इसे प्रदर्शित कराया था। वर्ष 2017 में मधुर भण्डारकर द्वारा लिखित और निर्देशित इंदु सरकार 1975 से 1977 के आपातकाल पर आधारित एक ऐसी ही फिल्म थी। कॉंग्रेस समर्थकों ने इसका विरोध किया था और इंदौर में कॉंग्रेस-भाजपा समर्थकों में टकराव भी हुआ था। कॉंग्रेस समर्थकों का कहना था कि फिल्म में इंदिरा गांधी व उनके बेटे संजय गांधी को गलत ढंग से दर्शाया गया है। फिल्म पर बैन लगवाने के लिए संजय गांधी की कथित तौर पर बेटी प्रिया सिंह पॉल ने बाम्बे हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक का दरवाज़ा खटखटाया था पर फिल्म फिर भी प्रदर्शित हुई।
ऐतिहासिक फिल्मों पर भी होते रहे हैं बवाल
ऐतिहासिक नायकों पर भी ऐसी ही कई फिल्में बनी जो कि विवादों के घेरे में रहीं। जोधा-अकबर जो कि 2008 में आयी थी उसका कुछ मुस्लिम संगठनों ने जमकर विरोध किया था। वर्ष 2018 में आई फिल्म पद्मावत पर खूब बवाल हुआ। पहले इसका नाम पद्मावती था और यह मलिक मुहम्मद जायसी के महाकाव्य पद्मावत पर आधारित थी।
करणी सेना जैसे राजपूत संगठनों ने इसका यह कहकर विरोध किया था कि इससे उनकी धार्मिक भावनाएं आहत हुई हैं और उनके द्वारा राजस्थान में फिल्म के निदर्शेक संजय लीला भंसाली पर हमला भी किया गया था। विरोध को देखते हुए फिल्म का नाम बदलकर पद्मावती से पद्मावत कर दिया गया था। तब कॉंग्रेस ने अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला बताया था। इस तरह की विवादित फिल्मों की फेहरिस्त काफी लंबी है। अभी हाल ही में महाराष्ट्र की राजनीतिक पार्टी शिवसेना के प्रमुख बाला साहब ठाकरे के जीवन पर आधारित फिल्म का भी ट्रेलर प्रदर्शित हुआ है, जिसको लेकर मराठी समाज काफी गौरवान्वित महसूस कर रहा है।
फिल्मों का उद्देश्य लोगों का मनोरंजन करना है, किन्तु आज के दौर में फिल्मों में राजनीति का घालमेल मनोरजंन की एक नई दिशा तय करता नज़र आ रहा है। फिल्मों के माध्यम से राजनीतिक पार्टियां एक ओर अपने विरोधियों पर पटाक्षेप करती हैं तो वहीं इसके माध्यम से राष्ट्रवादी दृष्टिकोण को भी और अधिक मज़बूत किया जा रहा है।
लोग फिल्म की घटनाओं को अपने जीवन से प्रत्यक्ष रूप से जोड़कर देखने लगते हैं तो उससे समाज का माहौल भी प्रभावित होता है। “द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर” अभी राजनीतिक माहौल में कितने एक्सीडेंट करायेगी यह तो आने वाले कुछ दिनों में नज़र आ ही जायेगा किन्तु फिल्मों के माध्यम से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला देते हुए आज जो झूठ फैलाया जा रहा है वह गलत है।
सिनेमाई पर्दे पर तीन घंटे के समय में किसी के चरित्र का मूल्यांकन कर दिया जा रहा है और जनता उसी को सच मान बैठती है। समाज और राजनीति को अपने अनुकूल बनाने के लिए सिनेमा का उपयोग एक बहुत बड़े हथियार के रूप में किया जा रहा है। अब सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं रह गया।