मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान इन तीनों राज्यों में कॉंग्रेस की नई सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है, किसानों की कर्ज़माफी। किसानों की कर्ज़माफी एक अहम मुद्दा साबित हुआ है, इन तीनों राज्यों में कॉंग्रेस की वापसी कराने में। ये तीनों प्रदेश ऐसे हैं, जहां किसानों के आंदोलन सत्ता के खिलाफ बेहद ही आक्रमक रहे हैं। चाहे वह सीकर का आंदलोन हो या मंदसौर का।
किसानों की नाराज़गी ही सबसे अधिक बीजेपी पर भारी पड़ी है। ऐसे मे कर्ज़माफी के वादे को पूरा करना कॉंग्रेस की नई सरकारों के लिए पहली प्राथमिकता देखने को मिल रही है। नहीं तो इसका खामियाज़ा कॉंग्रेस को आगामी लोकसभा चुनाव में भुगतना पड़ सकता है।
नई सरकारों के लिए यह चुनौती तब और बड़ी हो जाती जब देश के बैंकों की हालात गंभीर बनी हुई है। बैंकों की चिन्ता इस बात को लेकर है कि अगर हर चुनाव में इसी तरह से कर्ज़माफी चुनावी एजेंडे की तरह चलता रहा तो देश के बैकिंग सिस्टम पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। जिसको लेकर सरकारी बैंक सकते में है। इस मामले पर रिज़र्व बैंक पहले ही चिंता ज़ाहिर कर चुका है।
कर्ज़माफी एक राजनीतिक मुद्दा बन गया है, जिसकी वजह से कोई भी सरकारी बैंक सामने आकर बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है लेकिन अलग-अलग बैंकों के प्रमुखों ने वित्त मंत्रालय को अपनी परेशानी से अवगत कराया है। कुछ दिन पहले वित्त मंत्रालय के साथ हुई बैठक में बैंकों के प्रमुखों ने कर्ज़माफी के मुद्दे को ज़ोर से उठाया था। बैंकों की तरफ से बताया गया था कि मध्यप्रदेश, राज्स्थान तेलंगान और छत्तीसगढ़ में जिस तरीके से कर्ज़माफी का ऐलान किया गया है, अगर उनपर अमल किया जाता है तो कम-से-कम एक लाख करोड़ के कर्ज़ को माफ करना पड़ेगा। यह राशि तामिलनाडु, उत्तरप्रदेश, पंजाब के 80 हज़ार करोड़ की कर्ज़माफी के अतिरिक्त होगी।
हालांकि कर्ज़माफी का बोझ राज्य सरकारें वहन करती हैं लेकिन एक बार कर्ज़माफी होने से कर्ज़ वसूली का सिस्टम पूरी तरह से अस्थिर हो जाता है। मध्यप्रदेश में तो चुनावों के ऐलान होने के बाद से ही कर्ज़ वसूली में कमी की खबर आ रही थी कि कृषी कर्ज़ वसूली में गिरावट आ रही है। किसानों ने कर्ज़माफी के लालच में किश्त देना पहले से ही बंद कर दिया था। बैंकों ने यह भी बताया था कि पहले की हुई कर्ज़माफी का हिसाब अभी तक लंबित पड़ा है।
सरकारी बैंकों की यह चिंता बैंक ऑफ अमेरिकी मेरिल लिंच की एक रिपोर्ट के मुताबिक सटीक नज़र आती है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में चुनावों की वजह से 2.7 लाख करोड़ रुपए के कर्ज़माफ किए जा सकते हैं, जो कि यह जीडीपी का 1.5 फीसदी होगा। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इसका असर वित्त वर्ष 2019- 20 के दौरान तब दिखेगा जब किसान कर्ज़ लौटाना कम कर देंगे। याद रहे कि रिज़र्व बैंक भी अपनी वार्षिक रिपोर्ट में कर्ज़माफी को लेकर हो रही राजनीतिक घमासान को लेकर अपनी गंभीर चिंता ज़ाहिर कर चुका है।
रिपोर्ट में रिज़र्व बैंक ने कहा है कि कृषि लोन माफ होने से अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर पड़ता है। ज़ाहिर है देश में आम चुनाव नज़दीक है, देश पर एक बार चुनावी बुखार चढ़ेगा। हो सकता है राजनीतिक पार्टियां किसानों को लुभाने के लिए कर्ज़माफी का दाव खेलें लेकिन उससे पहले उन्हें एक बार इसकी समीक्षा ज़रूर करनी चाहिए। अगर बैंकों के साथ सरकारों का हिसाब गड़बड़ाया तो देश को बड़ा आर्थिक नुकसान झेलना पड़ सकता है। कॉंग्रेस की नई सरकारों को भी यह ध्यान रखना होगा कि कहीं बैंकों पर उनके चुनावी वादे का बोझ अधिक ना हो। अगर एक साथ कर्ज़माफी से बैंकों पर दबाव बन रहा है तो, सरकार चाहे तो कर्ज़माफी की राशी को थोड़ा-थोड़ा एक नियमित अंतराल से लागू करे, ताकी अर्थव्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहे।