1784 की वह सुबह जब लालिमा ने अभी धरती को स्पर्श ही किया था। घोड़े की टापों की आवाज़ धीरे-धीरे बढ़ने लगी थी। उन दिनों झारखंड का क्षेत्र ‘साहेबगंज’ बंगाल प्रांत का हिस्सा हुआ करता था। आज राजमहल की पहाड़ियों में कोई हलचल नहीं थी। राजमहल की पहाड़ी आज ‘हिल रेंजर बटालियन’ के कदमताल से गूंज रहा था।
उनके कदमों से धूल का अंबार उड़ता हुआ नज़र आ रहा था। कुछ घंटे चलने के बाद ‘हिल रेंजर बटालियन’ की टुकड़ी ‘भागलपुर बैरक’ की ओर बढ़ रही थी। साहेबगंज के संताल लोगों को यह जानकारी नहीं थी कि कल रात अंग्रेज़ टुकड़ी पहाड़ी की ओर गई थी। उन्हें अंदाज़ा नहीं था कि कुछ तो गड़बड़ होने वाला है।
सुबह-सुबह लोग सड़कों पर निकल कर आ गए थे। आस-पास के संताल गांवों से हज़ारों गरीब असहाय संताल स्त्री-पुरुष निकल कर भागलपुर बैरक पहुंच गए थे। रुदन नाद और कोलाहल बढ़ गई थी ।
चार घोड़े से बांधकर ‘हिल रेंजर बटालियन’ के जवान उस व्यक्ति को जानवरों की तरह घसीटते हुए ले जा रहे थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे समय थम सा गया हो। पसीने और रक्त से सना उस व्यक्ति का काला देह, ललाट पर दर्द और पीड़ा साफ दिखाई पड़ रहा था।
उसकी विवशता और लाचारी की वेदना सहन से बाहर थी। उसके देह की हड्डियां और पसलियां उस काले खाल से बाहर दिख रही थी। रक्त से सना और असीम तकलीफों को चरम सीमा तक सहने वाला वह व्यक्ति ‘हिल रेंजर बटालियन’ और ‘अंग्रेज़ सरकार’ की नज़र में एक ‘विद्रोही’ था।
अंग्रेज़ों, साहूकारों और दुष्ट जागीदारों की नज़रो में सिर्फ एक खतरनाक बागी था क्योंकि इस व्यक्ति ने उनके खिलाफ बगावत करने की हिमाकत की थी। आज उस ‘विद्रोही बागी’ की आवाज़ को खत्म कर दिया जाना था। उस पर आरोप था कि उसने एक अंग्रेज़ कमांडर को अपने घातक तीर से मार डाला था और साहूकरों-जमींदारों के माल को लूट कर भूखे, गरीब आदिवासियों और स्थानीय लोगों को बांट दिया करता था। शायद वह उन गरीब मजलूमों का ‘रॉबिन हुड’ था। गरीब जनता के बीच वह व्यक्ति बहुत मशहुर था।
हिल रेंजर बटालियन की यह ‘टुकड़ी’ छावनी में आकर रुकी। लोगों का हुजूम उस व्यक्ति को देखने के लिए उमड़ पड़ा और अचानक भीड़ से आवाज़ आई, तिलका….तिलका…..
बहरहाल, भीड़ नियंत्रण से बाहर हो रही थी और फौज़ निरीह जनता को नियंत्रण में करने के लिए उन पर डंडे चला रही थी। माहौल बिल्कुल अफरा-तफरी का हो चुका था।
तिलका मांझी के संघर्षों की गाथा
कड़कती धूप मे ‘तिलका’ का निस्तेज देह पड़ा हुआ था। धूल-मिट्टी और लहू से सना वह काया ने ज़ुल्म और अन्याय के खिलाफ प्रथम चिंगारी लगा दी थी। आज़ादी के उस दीवाने के अंदर गज़ब की इच्छा शक्ति थी। उसकी लाल पड़ी आंखे मानो कुछ कह रही थीं। उसने दुष्ट साहूकारों, जमींदारो और क्रूर अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ जंग का खुलेआम ऐलान कर दिया था। उसकी इच्छा शक्ति इतनी थी कि वह निर्भय और दृढ़ संकल्पित था। उसके चेहरे पर मौत का ज़रा सा भी भय नहीं दिख रहा था।
1770 के महा अकाल ने बंगाल को जैसे हिला कर रख दिया था। प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में वहां के गरीब किसानों एवं मज़दूरो के पास खाने के लिए एक दाना तक नही था। 1772 में ‘वारेन हेस्टिंग्स’ की रिपोर्ट में कहा गया था कि प्रभावित क्षेत्रों के एक तिहाई लोग इस अकाल में मारे गए थे।
दूसरी तरफ अंग्रेज़ सरकार का फरमान था कि लगान देना ही पड़ेगा। आखिर क्या करता तिलका? विद्रोह के अलावा उसके पास कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा था। इधर जमींदारो एवं साहूकारों का कर्ज़ दोगुना-चौगुना होता जा रहा था। तिलका जब बचपन की दहलीज़ को पार करते हुए यौवन में कदम रख रहा था तब कई दफा भुखमरी से उसका सामना हुआ था। जवानी की जोश ने उसे अपने चारों ओर हो रहे अन्याय और अत्याचार के खिलाफ ‘विद्रोही’ बना दिया था।
भागलपुर की धरती पर शहादत
हां, उसे एक आशा और विश्वास ज़रूर था कि उसकी मौत के बाद लोग आज़ादी की सांस ज़रूर लेंगे। अब कोई साहूकार या जागीदारी उससे दोगुना लगान नहीं मांगेगा। उसके लोग अपने खेतों में मेहनत करके उगाए अनाजों के बदले किसी साहूकार या जागीदार को लगान नहीं देंगे। उनके माँ-बहनों के साथ कोई अत्याचार और बलात्कार नहीं करेगा। उसे विश्वास था कि ज़ुल्म और अत्याचार का खात्मा होगा। उनके जल, जंगल और ज़मीन सुरक्षित रहेंगे। उनके पुरखों ने जंगलों और पहाड़ों को काट-काट कर खेती योग्य ज़मीन बनाई थी जिसे अब कोई छीन नहीं सकता था।
ज़मीन पर पड़े निस्तेज देह में थोड़ी सुगबुगाहट हुई ही थी तभी एक आवाज़ आई “फायर” और गोलियां चलनी शुरू हो गई। इतने ही में ‘हिल रेंजर बटालियन’ की गोलियां आज़ादी के उस वीर दीवाने के देह को छलनी कर दिया। उसका रक्त भागलपुर की उस धरती को अभिषेक कर गया।
जनजाति विद्रोह
सन् 1784 में भारत के प्रथम ‘जनजाति विद्रोह’ का आगाज़ हो चुका था। बाबा तिलका मांझी ने विदेशी शासकों एवं उसके बेरहम रहनुमाओं, साहूकारों और ज़मींदारों के खिलाफ जंग शुरू कर दिया था लेकिन एक मुखबिर के कारण आज़ादी के इस दीवाने को धोखे से पकड़ लिया गया।
उस समय भय और आतंक के माहौल में उन क्रूर शासकों को दया तक नहीं आई। मृत देह को बरगद के वृक्ष मे टांग दिया गया। चार दिनों तक उसका शव उसी वृक्ष मे टंगा रहा। ऐसा साहसी निडर आदिवासी अगुआ का नाम ‘तिलक मांझी’ था।
एक ‘तिलका’ की मौत ने आने वाले युगों में कई ‘जनजाति विद्रोह’ को अंग्रेज़ों, साहूकारों और जागीदारों के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित किया। कोल विद्रोह, नागा विद्रोह, मुंडा विद्रोह, संताल विद्रोह और भील विद्रोह के ज़रिए जनजातियों ने क्रूर अंग्रेज़ी शासन, साहूकारों और जागीदारों के खिलाफ जंग छेड़ दिया। असंख्य आदिवासी वीरों ने अपनी जान की आहुती दी।
भारतीय स्वाधीनता का प्रथम बलिदान
बिहार और झारखंड राज्य के आदिवासी समुदाय आज भी 1784 के वर्ष को भारतीय स्वाधीनता के प्रथम बलिदान के तौर पर भारत के अपने वीर शहीद ‘बाबा तिलका मांझी’ को हमेशा स्मरण करते हैं। उनका बलिदान हर पीढ़ी के लिए प्रेरणास्रोत है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि अन्याय जब आत्म-सम्मान और वजूद से जुड़ जाता है, तब सामाजिक-राजनीतिक विद्रोह का आगाज़ होता है।
हमारा भारत देश हज़ारों लाखों कुर्बानियों और शहादतों के बाद गुलामी की जंज़ीरों से आज़ाद हुआ लेकिन आज आज़ादी के 70 वर्ष बाद भी नए भारत मे आदिवासी वीरों के शहादत और कुर्बानी को भुला दिया गया है। भारत के विभिन्न राज्यों में जहां-जहां आदिवासी समुदाय रहते हैं वे जल, ज़मीन और जंगल को बचाने के लिए सदियों से आहुति देते आए हैं और आज भी संघर्षरत हैं।
नोट: लेख में प्रयोग किए गए तथ्य महाश्वेता देवी की किताब ‘सालगिरह की पुकार’ से लिए गए हैं।