2014 लोकसभा चुनाव के बाद इस देश में काफी कुछ बदल गया। राष्ट्रीयता की परिभाषा को अलग चश्मे से देखा जाने लगा। वंदे मातरम् और भारत माता की जय कहने वालों को ही तथाकथित भक्तों द्वारा देशभक्त की श्रेणी में रखा गया। सवर्णों और कुछ राजनेताओं द्वारा दलितों, मुसलमानों और आदिवासियों को कम देशभक्त आंका जाने लगा।
मीडिया में कहा जाने लगा कि मोदी का कद भाजपा के कमल से भी बड़ा हो गया है। इन सबके बीच मोदी के गृह क्षेत्र गुजरात को अपवाद के तौर देखा जाने लगा। भाजपा के कई वरिष्ठ नेता और स्वयं मोदी को भी लगने लगा कि अन्य राज्यों के मुकाबले गुजरात में फतह हासिल करने के लिए कम होमवर्क करने की ज़रूरत पड़ेगी, क्योंकि यह तो अपना इलाका है।
गुजरात के एक वरिष्ठ पत्रकार से बातचीत के दौरान हमें खबर मिली कि सूबे के कई इलाकों में ‘दलित गुजराती’ अब भी तेज़ी से बौद्ध धर्म में परिवर्तित हो रहे हैं। दलित गुजरातियों के धर्म परिवर्तन के कई कारण बताए गए। उनमें से पहला कारण है गुजरात का ‘ऊना कांड’ जहां गाय मारने के इल्ज़ाम में कथित गौरक्षकों ने दलितों की जमकर पिटाई की थी।
बौद्ध धर्म अपनाने वाले दलित गुजरातियों से बातचीत
ऊना कांड के बाद बनासकांठा के गंपतलाल ने भी बौद्ध धर्म अपना लिया। गंपतलाल पेशे हैं सरकारी स्कूल में शिक्षक हैं। उनके साथ उनके परिवार के 35 सदस्यों ने आधिकारिक तौर पर बौद्ध धर्म अपनाया। गंपतलाल ने कहा कि दलितों पर लगातार बढ़ते अत्याचार और सवर्णों द्वारा भेदभाव की वजह से उन्होंने धर्म परिवर्तन का फैसला लिया है। साथ ही साथ उन्होंने भाजपा की राजनीति को हिन्दुत्ववादी राजनीति बताया।
बनासकांठा के शांतिलाल भी पेशे से शिक्षक हैं और ऊना कांड के कुछ समय बाद उन्होंने भी अपने परिवार के साथ बौद्ध धर्म अपना लिया। वजह पूछे जाने पर वह बताते हैं कि जाति का दंश अब उनसे नहीं झेला जाता। राह चलते डर लगता है कि भीड़ कब उग्र हो जाएगी। उनका कहना है कि भाजपा के समर्थक खुलेआम गुंडागर्दी करते हैं।
इसी कड़ी में बातचीत के दौरान बनासकांठा के ही प्रभुदास बताते हैं कि ऊना कांड के बाद से दलितों के अंदर काफी भय का माहौल हो गया था। हमारे पास धर्म परिवर्तन करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। हमें और पहले ही यह काम कर लेना चाहिए था।
गौरतलब है कि गुजरात के गिर सोमनाथ ज़िले की ऊना तहसील में गौरक्षकों द्वारा जिस दलित परिवार के चार सदस्यों को पीटा गया था उस परिवार ने 29 अप्रैल 2018 को लोगों की भारी उपस्थिति के बीच बौद्ध धर्म अपनाया था। उस दौरान धर्म परिवर्तन कार्यक्रम के आयोजक के मुताबिक 450 दलितों ने बौद्ध धर्म आपनाया था। सौराष्ट्र क्षेत्र में आयोजित इस कार्यक्रम में 1000 से अधिक दलितों ने हिस्सा लिया था।
दलित सामाजिक कार्यकर्ता मंजुला प्रदीप ने बताया, “जिस तरह से हिन्दुस्तान में जाति आधारित कामों को बांटा गया है उसमें हिन्दुत्व की बहुत बड़ी भूमिका रही है। दलितों को अपवित्र माना गया है। गुजरात में दलितों के खिलाफ हिंसा की जो भी घटनाएं हुईं हैं उसमें हिन्दुत्व का बहुत बड़ा हाथ है।”
इस दौरान उन्होंने बताया कि पूरे भारत में दलितों का 20 प्रतिशत वोट है। गुजरात में लगातार दलितों पर हिंसक घटनाएं बढ़ रही हैं, यदि यह सिलसिला चलता रहा तब भाजपा के दलित वोट बैंक पर असर पड़ सकता है।
क्या कहते हैं जिगनेश
दलित नेता एवं गुजरात से विधायक जिगनेश मेवानी दलितों द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने की बात पर कहते हैं कि इसके पीछे हिन्दुत्व की आक्रामक विचारधारा काम कर रही है। बीजेपी और आसएसएस द्वारा इस समाज को लगातार हिन्दू और मुसलमान में बांटने की कोशिश की जा रही है जिससे परेशान होकर तमाम दलित बुद्धिज़्म की ओर जा रहे हैं।
वह आगे बताते हैं, “जातिवादी लोग जब तक सर पर बैठेंगे तब तक दलितों और मुसलमानों पर अत्याचार बढ़ते ही रहेंगे। ऊना, सहारनपुर, रोहित वेमुना, दिल्ली की सड़कों पर संविधान को जलाना, बाबा साहब की मूर्तियां खंडित करना, दलितों पर फर्ज़ी मुकदमें और चंद्रशेखर के खिलाफ फर्ज़ी एफआईआर करने जैसी चीज़ें दलितों के ज़हन में हैं।”
जातिवाद भी है बड़ी वजह
देश भले ही क्यों ना तरक्की के नए-नए कीर्तिमान गढ़ने लग जाए लेकिन जाति प्रथा का ज़ोर आज भी उसी रूप में कायम है। ‘ऊना कांड’ के अलावा भी मौजूदा वक्त में जाति-प्रथा से तंग आकर तमाम दलित गुजराती बौद्ध धर्म अपनाने को विवश हैं।
गुजरात के बनासकांठा ज़िले के एक स्वतंत्र पत्रकार और शिक्षक ने जाति-प्रथा को धर्म परिवर्तन की बड़ी वजह बताई। वह कहते हैं, “गुजरात के इलाके जैसे बनासकांठा और काठियावाड़ में वर्षों पहले राजशाही चलती थी। पालनपुर के नवाब छोटी जाति के लोगों के साथ भेदभाव करते थे।”
वह आगे बताते हैं, “सौराष्ट्र के भावनगर में हिन्दूवादी नेता नवाब की भूमिका में होते थे। उस दौरान नवाबों द्वारा फरमान जारी की जाती थी कि जिस ज़मीन पर वे चलेंगे वहां दलितों के पैर के निशान नहीं होने चाहिए। राजा के कुछ वंशज आज भी ज़िंदा हैं और वे दलितों को मुख्यधारा से जोड़ने का काम नहीं करते हैं। आज भी गुजरात के कई इलाकों में जब कोई दलित जाता है तब उसे नीचे बैठने को कहा जाता है।”
गुजरात के स्वतंत्र पत्रकार के मुताबिक जब नरेन्द्र मोदी सीएम थे, तब भी यहां कुछ दलित धर्म परिवर्तन कर रहे थे लेकिन लोगों का ध्यान हिन्दू और मुसलमानों में था। 2002 में जब गुजरात दंगा हुआ उसके बाद मोदी की छवि काफी खराब हुई लेकिन आगे चलकर बीजेपी ने दलित नेताओं में से किसी को राज्यसभा पहुंचाया तो किसी को मंत्री पद दिया। मोदी ने ऐसा करके दलितों को अपने पाले में किया लेकिन आज हालात फिर से बिगड़ गए हैं।
बिगड़ सकता है भाजपा का चुनावी समीकरण
गुजरात में जिस तेज़ी के साथ दलित गुजरातियों का धर्म परिवर्तन हो रहा है उससे भाजपा का चुनावी समीकरण बिगड़ सकता है। जिस प्रकार से नरेन्द्र मोदी गुजरात मॉडल के सहारे वाराणसी के रास्ते दिल्ली के ‘7 रेस कोर्स’ पहुंचने में सफल हुए, यदि वैसे ही गुजरात के खफा दलितों की एकता देशभर के दलितों को जोड़ने में सफल हो जाएगी तब वाकई में भाजपा का दलित वोट बैंक खतरे में होगा।
दलितों पर सवर्णों द्वारा अत्याचार के मामले में भाजपा की राजनीति हमेशा चुप्पी साध लेती है जिससे ‘हिन्दुत्व के सिपाहियों’ को लगता है कि सरकार उनके साथ है। यदि आप तलाशने भी जाएंगे तब शायद आपको इक्के-दुक्के मामले ही मिलेंगे जब दलितों पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ कठोर कार्रवाई की गई हो। गुजरात के ऊना कांड को ही मिसाल के तौर पर ले लीजिए जहां लंबे वक्त के बाद मोदी ने सिर्फ इतना कहा था कि दलितों को नहीं, मुझे मारिए।
प्रदर्शनकारी दलितों के खिलाफ पुलिस की सख्ती, उनके प्रमुख नेता चंद्रशेखर आज़ाद रावण पर रासुका लगाकर उन्हें जेल में बंद रखना, दलित उत्पीड़न मामलों में दोषियों को बचाने की कोशिश और भीमा कोरेगाँव की हिंसा के अभियुक्तों की लंबे समय तक गिरफ्तारी ना होने जैसी चीज़ों से दलित समाज में काफी बेचैनी है।
साल 2011 की सामाजिक, आर्थिक और जाति जनगणना के आधार पर देश में दलितों की संख्या 20 करोड़ है। ऐसे में जब इन बीस करोड़ दलितों में से वोट देने योग्य दलित ‘पोलिंग बूथ’ तक पहुंचेंगे तब उनकी नाराज़गी भाजपा की राजनीति पर असर डाल सकती है।
दलित दूल्हे के घोड़ी पर बैठने को लेकर बवाल की बात हो या फिर गुजरात के ऊना और यूपी के सहारनपुर का मामला हो, बीजेपी के प्रबल समर्थक और दलित आमने-सामने होते हैं, जिनका समर्थन सरकार चाहती है।
ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि देशवासियों को एक साथ जोड़ने की बात करने वाले नरेन्द्र दामोदर दास मोदी क्या वाकई में गुजरात के दलितों के धर्म परिवर्तन मामले में राजनैतिक स्वार्थ से उपर उठकर कोई सकारात्मक पहल करेंगे? या फिर बुद्धिज़्म के सहारे ही तमाम दलित अपने दर्द को बांटने की कोशिश करेंगे।