एक निजी टीवी चैनल के स्टिंग ऑपरेशन में प्रदेश के तीन मंत्रियों के निजी सचिव खुफिया कैमरे पर करोड़ों रुपये के ठेके-पट्टे दिलाने के लिए सौदेबाज़ी करते हुए कैद हो गए। जिसके बाद सत्ता के गलियारों में हड़कंप मच गई। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तीनों निजी सचिवों को निलंबित करके उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने का आदेश जारी कर दिया। साथ ही लखनऊ पुलिस ज़ोन के एडीजी राजीव कृष्ण के नेतृत्व में इस पूरे मामले की जांच के लिए विशेष अनुसंधान टीम गठित कर दी।
हालांकि संबंधित मंत्रियों के खिलाफ कोई एक्शन नहीं लिया गया है। खास बात यह है कि इनमें सरकार के खिलाफ बगावत का परचम उठाने वाले पिछड़ा वर्ग एवं दिव्यांगजन सशक्तिकरण मंत्री ओमप्रकाश राजभर के निजी सचिव ओमप्रकाश कश्यप भी शामिल हैं। पर वे उनके विभाग की बजाय दूसरे विभागों में तबादले और अन्य कामों के लिए सौदेबाज़ी कर रहे थे।
ओमप्रकाश राजभर ने खुद अपने इस निजी सचिव के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की सिफारिश मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से की है। साथ ही यह भी कहा है कि जिस समय वो पिछड़ा वर्ग के आरक्षण में अति पिछड़ा वर्ग के लिए बंटवारे का फॉर्मूला लागू करने की मांग ज़ोरशोर से उठा रहे थे, उसी समय यह स्टिंग ऑपरेशन किया गया। यह भी एक सवाल है। उनके कहने का मकसद यह था कि उनकी छवि को संदेहास्पद बनाने के लिए ऐसे समय स्टिंग ऑपरेशन को प्रसारित किया जाना एक षड्यंत्र है।
जिस तरह से सत्ता के गलियारों में वर्तमान में दरबाज़ी साजिशों की गंध चप्पे-चप्पे पर तैर रही है, उसके मद्देनज़र हर घटना परिघटना के पीछे के निहितार्थ तलाशा जाना लाज़िमी है। ओमप्रकाश राजभर के अलावा खनन राज्यमंत्री अर्चना पांडेय के निजी सचिव एसपी त्रिपाठी और बेसिक शिक्षा राज्यमंत्री संदीप सिंह, जो कि राजस्थान के राज्यपाल और भाजपा के कद्दावर नेता कल्याण सिंह के पौत्र हैं, उनके निजी सचिव संतोष अवस्थी इस खतरनाक स्टिंग ऑपरेशन की चपेट में उलझे हैं।
हमेशा की तरह मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने डींग हांकी है कि भ्रष्टाचार के मामले में उनकी सरकार की नीति ज़ीरो टॉलरेंस की है, इसलिए इस मामले में कठोर कार्रवाई होगी। उनके बयान से ऐसा लगता है कि इस मामले में कोई बहुत बड़ा पहाड़ टूटने वाला है लेकिन पौने दो वर्ष के उनके कार्यकाल में ना ऐसा कुछ हुआ है और ना ही होगा, यह सभी जानते हैं।
मंत्रियों के निजी सचिवों द्वारा काम कराने के लिए सौदेबाज़ी का बाज़ार गर्म होना कोई रहस्योद्घाटन नहीं है। यह स्टिंग ऑपरेशन ना भी होता तो भी सब जानते थे कि योगी आदित्यनाथ के कुर्सी संभालने के एक महीने बाद ही सत्ता के केंद्र में भ्रष्टाचार का खुला खेल धड़ल्ले से शुरू हो गया था।
ओमप्रकाश राजभर के निजी सचिव ओमप्रकाश कश्यप स्टिंग ऑपरेशन में बीएसए को हटवाने का रेट 40 लाख रुपये बताते सुने गए। उन्होंने ठेकेदार बने पत्रकार से स्कूल बैग सप्लाई के लिए बेसिक शिक्षा मंत्री के पति से मिलवाने की बात कही। बेसिक शिक्षा मंत्री अनुपमा जायसवाल हैं, जिनके पति इस स्टिंग ऑपरेशन के पहले से ही चर्चाओं में रहे हैं और यह चर्चाएं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कानों तक ना पहुंची हों, यह तो हो ही नहीं सकता।
लेकिन योगी आदित्यनाथ ने उनपर अंकुश लगाने का कोई प्रयास नहीं किया। वो कर भी नहीं सकते क्योंकि अनुपमा जायसवाल भाजपा की प्रदेश कमेटी के एक ताकतवर पदाधिकारी की चहेती हैं। उस पदाधिकारी के बारे में भी चर्चा काफी समय से हो रही है कि उसे चढ़ौती चढ़ाकर शासन के पदों से लेकर डीएम, एसपी की पोस्टिंग तक अधिकारियों ने हासिल की है। जब भाजपा के क्षेत्रीय संगठन मंत्रियों पर गाज गिरी थी तब उस पदाधिकारी पर भी जल्द ही कार्रवाई होने का अनुमान ज़ाहिर किया गया था। लेकिन वह पदाधिकारी अभी तक सुरक्षित है। भाजपा की रीति-नीति इसी से स्पष्ट हो जाती है।
योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के कुछ ही समय बाद वृंदावन में संघ की समन्वय समिति की बैठक हुई थी। जिसमें आरोप लगाया गया था कि भाजपा के नवनिर्वाचित विधायक चुने जाते ही छिछोरेपन की सीमा तक जाकर कमाने में लग गए हैें, जिससे पार्टी की बड़ी बदनामी हो रही है। इन आरोपों पर मुख्यमंत्री ने बहुत संजीदा हो जाने का अभिनय किया था और यह भरोसा दिलाने की कोशिश की थी कि इस मामले में उनकी ओर से कड़ा संदेश दिया जाएगा।
शायद भ्रष्टाचार पर अंकुश उनके एजेंडे में कतई नदारद है, इसलिए उन्होंने कुछ ऐसा नहीं किया जिससे विधायकों को डरने की ज़रूरत पड़ती। वृंदावन बैठक के कुछ हफ्तों तक विधायक अपने आप ही सहमे रहे लेकिन जब वे योगी की मानसिकता समझ गए तो उनसे छूट का आभास पाकर उन्होंने दोगुनी गति से अपना धंधा शुरू कर दिया। इस बयार के चलते भाजपा के लगभग सभी मंत्री आंधी के आम की तरह सत्ता को कैश कराने में जुट पड़े हैं। जिससे प्रशासन चरमरा कर रह गया है।
योगी की अग्रसरता उत्तर प्रदेश को हिंदू राष्ट्र के मॉडल के रूप में प्रस्तुत करने की है और इस एजेंडे को उन्होंने भ्रष्टाचार के मामलों की ढाल बना दिया है। भ्रष्टाचार के कई रूप हैं।
- एक भ्रष्टाचार वह होता है जिसमें सरकार के लोग अपने निजी या पार्टी के फायदे के लिए व्यापारियों को राजस्व की कीमत पर अनुचित छूट देते हैं, जो कि ठेका और टेंडर के मामले में बेईमानी के रूप में सामने आता है।
- दूसरा भ्रष्टाचार विकास कार्यों में कमीशनबाज़ी का है जिससे कार्यों और सप्लाई का स्टीमेट बढ़ जाता है।
- तीसरा भ्रष्टाचार वह है जिसमें मौलिक अधिकारों का दमन करके लोगों को पैसे देने के लिए बाध्य किया जाए।
इसी से जुड़ा है पैसे के लिए शासन-प्रशासन का व्यक्तियों के साथ अन्याय में सहभागी होना। व्यवस्था जब तकनीकी या अन्य कारणों से बहुत द्रुत गति से बदलती है तब ऐसी स्थितियां बन जाती हैं कि उसके संचालन की ज़रूरतें प्रचलित नैतिक, विधिक संहिता का अतिक्रमण करने वाली बन जाएं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि द्रुत गति से बदलती व्यवस्था के संदर्भ में किसी भी ऐसी नैतिक, विधिक संहिता की कल्पना नहीं की जा सकती जो पूरी तरह व्यवस्था को बांध सके।
ऐसे में अनिवार्य बुराई की तरह उन कामों की अनदेखी करनी पड़ सकती है जो भ्रष्टाचार के तहत परिभाषित होते हैं। सारी दुनिया में ऐसा होता है लेकिन ऐसे भ्रष्टाचार को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता जो कि लोगों के मौलिक अधिकारों को अर्थहीन बनाकर व्यवस्था के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दे। ऐसे भ्रष्टाचार पर नियंत्रण की ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ने का मतलब है गर्वनेंस से पल्ला झाड़ना और आज ऐसा ही हो रहा है।
योगी का इस मामले में ढुलमुलपन तभी ज़ाहिर हो गया था जब उन्होंने कार्यभार संभालते ही सभी अधिकारियों को नियम के मुताबिक अपनी आय और परिसंपत्तियों का ब्यौरा हर वर्ष दाखिल करने का निर्देश जारी किया था लेकिन अधिकारियों ने इसकी अवज्ञा कर दी और अंततोगत्वा योगी को उनके आगे सरेंडर करना पड़ा।
भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो, सतर्कता, आर्थिक अपराध अनुसंधान विभाग और सीबीसीआईडी की अधिकारियों के विरुद्ध जांचों का भी यही हश्र किया जा रहा है। जिन अधिकारियों के खिलाफ जांचें अपनी तार्किक परिणति पर पहुंच चुकी हैं उनपर एफआईआर दर्ज करने या कोर्ट में उनके खिलाफ चार्जशीट दाखिल करने को मुख्यमंत्री हरी झंडी नहीं दे पा रहे हैं जबकि इसके लिए वो कई बार बैठकें कर चुके हैं। लोकायुक्त संस्था प्रदेश में डेड हो चुकी है।
भ्रष्टाचार से संंबंधित सभी विभागों और इकाइयों को समन्वित करके प्रभावी बनाने का प्रस्ताव भी पहले से विचाराधीन है और इस मामले में भी योगी सरकार कोई प्रगति करने की इच्छुक नज़र नहीं आ रही है। यहां तक कि जनशिकायतों की सुनवाई के तंत्र को भी उन्होंने पंगु कर दिया है। मुख्यमंत्री के जनसुनवाई पोर्टल पर दाखिल होने वाली शिकायतों की जांच तहसील स्तरीय अधिकारियों को भेजने की व्यवस्था कायम कर दी गई है जबकि अगर लोगों की समस्याओं का तहसील या ज़िला स्तर पर ही समाधान हो रहा हो तो उन्हें मुख्यमंत्री के पोर्टल पर शिकायत करने की ज़हमत क्यों उठानी पड़े।
मुख्यमंत्री पोर्टल की हर शिकायत बिना किसी कार्रवाई के निस्तारित की रिपोर्ट भेजकर दफन कर दी जाती है। यहां तक कि शिकायतकर्ता का बयान दर्ज करने तक की औपचारिकता नहीं निभाई जा रही। पीड़ित आदमी के लिए अरण्यरोधन जैसा यह माहौल पहले के किसी निज़ाम में नहीं रहा।
होना तो यह चाहिए था हिंदू राष्ट्र का प्रस्तुतिकरण कठोर नैतिक व्यवस्था वाले निज़ाम के रूप में किया जाता तो शायद लोग इसके प्रति सकारात्मक रुख अपनाते। दुनिया के हर धार्मिक निज़ाम में नैतिक बंदिशों का पालन कराने के लिए कठोरता का परिचय दिया जाता है। जो भी धार्मिक राष्ट्र हैं उनमें इसके उदाहरण साफ देखे जा सकते हैं लेकिन योगी ने हिंदू राष्ट्र को भ्रष्टाचार और कुशासन का पर्याय बनाने की जैसे कसम खा ली है। हिंदू राष्ट्र की गरिमा के साथ इससे बड़ा खिलवाड़ कोई दूसरा नहीं हो सकता।
जो लोग हिंदू राष्ट्र की अवधारणा में विश्वास करते हैं उन्हें वर्तमान सरकार के क्रियाकलाप के इस पहलू पर भी ध्यान देना होगा। कोई भी हुकूमत नैतिक श्रेष्ठता के आधार पर ही लोगों से अपने को मनवा सकती है, यह ध्रुवसत्य है। वरना ऐसी हुकूमत चलना तो दूर कायम होना भी दुश्वार हो सकता है।