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“पत्नी की लाश कंधे पर लादकर ले जाने वाले देश में यह कैसा नया साल?”

पत्नी की लाश कंधे पर ले जाता युवक

पत्नी की लाश कंधे पर ले जाता युवक

हर वर्ष नया साल आते ही देश जश्न में डूब जाता है। हर तरफ लोग अलग-अलग अंदाज़ में मस्ती करते दिखाई पड़ते हैं और ऐसा प्रतीत होता है जैसे कुछ गलत भी करें तब इस रोज़ सब कुछ माफ है। हम सभी ने नए साल को अपने-अपने तरीके से डिफाइन कर दिया है और इस डेफिनेशन को हम बदलना भी नहीं चाहते हैं।

जब इस देश के ‘खाते-पीते’ लोग नए साल के उमंग में डूबे रहते हैं, उसी समय किसी दलित लड़की के साथ बलात्कार हो रहा होता है, किसी निर्दोष आदिवासी को नक्सलवाद के नाम पर फंसाने की तैयारी चल रही होती है, किसी केंद्रीय विश्वविद्यालय में ‘द्रोणाचार्य’ द्वारा ‘एकलव्यों’ के अंक काटने की कोशिश होती है और यहां तक कि दहेज के नाम पर किसी बहन-बेटी की हत्या हो जाती है।

ठंड में अभी भी गरीब ठिठुर रहे होते हैं, अस्पतालों में इलाज के दौरान लापरवाही और मौतों की आवृत्ति कम नहीं होती। निजी स्कूलों में अपने बच्चों के नामांकन के लिए आम आदमी धक्के खा रहा होता है या फिर कोई ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है।

सैकड़ों लोग मारे जाते हैं लेकिन रेल मंत्री इस्तीफा नहीं देते। पेंशन की आस में फिर कोई बुज़ुर्ग ‘भ्रष्ट कर्मचारियों’ की चिरौरी करने में लगा रहता है। ठीक उसी समय आधार कार्ड ना होने के कारण झारखंड की आदिवासी महिला कोयली देवी की मासूम बच्ची भूख से तड़प कर दम तोड़ देती है लेकिन ना तो किसी भी आदिवासी सांसद-मंत्री को फर्क पड़ता है और ना ही मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री को यह त्रासदी हिला पाती है। इन सबके बावजूद नए साल का जश्न नहीं थमता, वह चलता ही रहता है।

सड़क किनारे बच्चे को जन्म देती माँ। फोटो साभार: Twitter

अस्पताल में बेड नहीं दिए जाने के कारण एक माँ सड़क के किनारे ही अपने बच्चे को जन्म देती हैं। एम्बुलेंस ना मिलने से उड़ीसा का एक आदिवासी अपनी पत्नी की लाश कंधे पर लादकर पैदल ही चल देता है, मानो वह इस देश के लोकतंत्र की लाश ढो रहा हो। ठीक उसी समय गोरखपुर में ऑक्सीजन की कमी के चलते सैकड़ों नौनिहाल असमय अपने जीवन से हाथ धो बैठते हैं और आवारा गायों के लिए सैकड़ों करोड़ की राशि सरकारी जारी कर देती है।

भगवाधारी कर्मकांडी मुख्यमंत्री की बेशर्मी थमने का नाम नहीं लेती। मुगलसराय स्टेशन का नाम ‘दीनदयाल उपाध्याय’ और इलाहाबाद को रातो-रात ‘प्रयागराज’ कर दिया जाता है। कई जगह बाबासाहेब की मूर्तियां तोड़ी जाती हैं और दिल्ली में संसद भवन के पास कुछ लोग सरेआम संविधान की प्रतियां जलाते हैं लेकिन नए साल के धूम-धड़ाके में फिर भी कहीं कोई कमी नहीं आती।

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मूंछ रखने के कारण दलितों के साथ मारपीट होती है। यहां तक कि सहारनपुर में सरकारी ‘देख-रेख’ में दलितों पर ज़ुल्म होते हैं। उनके घर फूंके जाते हैं तो प्रधानमंत्री के गृह प्रदेश गुजरात के ऊना में दलितों की बेरहमी से मार-पिटाई होती है। छतीसगढ़ और झारखंड में वनवासी कल्याण आश्रम की की गतिविधियां बहुत बढ़ जाती हैं, आदिवासियों को ‘आदि हिंदू’ बताया जाने लगता है।

गीता का गोंडी-हल्बी में अनुवाद कराकर बांटा जाता है, ईसाई और गैर-ईसाई की खाई चौड़ी होने लगती है और उनके आरक्षण का मुद्दा भी उछलने लगता है। इसी बीच सरकार आदिवासियों की ज़मीनें कॉरपोरेट जगत को बांटने के काम में लगी रहती है, ठीक उसी समय मानसिक गुलाम दलित-आदिवासी सांसद और विधायक ‘संसद’ व ‘विधानसभाओं’ में चुन लिए जाते हैं और सब मिलकर नए साल को धूमधाम से मनाते हैं।

भीमा कोरेगांव हिंसा। फोटो साभार: सोशल मीडिया

तभी भीमा कोरेगांव में शांतिपूर्ण ढंग से जा रहे दलितों पर भगवाधारियों का हमला हो जाता है। इन सबके बीच बिहार के भागलपुर में बिंदी कुमारी की चीखों से अस्पताल दहल उठता है। राजस्थान की डेल्टा कुमारी की लाश अभी भी प्रश्नचिह्न बनकर खड़ी रहती है, करणी सेना और राजपूत मोर्चा के लोग काल्पनिक व फिल्मी पात्र ‘पद्मावती’ को लेकर तोड़-फोड़ मचाते हुए संविधान की धज्जियां उड़ाने लगते हैं और ठीक उसी समय पिछड़े वर्ग से आया मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री ‘पद्मावती’ को ‘राष्ट्रमाता’ घोषित कर डालता है। इन सबके बीच नए साल का जश्न जारी रहता है।

वहीं, गाय के नाम एक मुस्लिम युवक को वहशी भगवा भीड़ पीट-पीटकर मार डालती है, उधर एक सिरफिरा ‘देशभक्त’, एक मुस्लिम मज़दूर को निर्दयतापूर्वक मारकर उसको ज़िंदा जलाने की वीडियो वायरल कर देता है। इसी बीच ‘जय श्री राम’ बोलने के लिए किसी दलित की सरेआम पिटाई की वीडियो भी जारी हो जाती है लेकिन प्रधानमंत्री या किसी मुख्यमंत्री की तरफ से कोई अफसोस तक ज़ाहिर नहीं किया जाता।

लड़कियों के साथ सरेआम शोषण के वीडियोज़ भी वायरल होते रहते हैं और यहां तक कि कई जगहों पर लड़कियों को ज़िंदा जला दिया जाता है। बैंक वाले ‘सुविधा शुल्क’ के नाम पर अनाप-शनाप पैसे लेकर जनता की पॉकेट काटने की घोषणा कर देते हैं। इन सबके बीच नीरव मोदी और विजय माल्या ‘सरकारी देख-रेख’ में हज़ारों करोड़ का कर्ज़ लेकर विदेश भाग जाते हैं।

नोटबंदी के कुछ समय बीतते ही भाजपा अध्यक्ष का बेटा रातों रात अरबपति हो जाता है। इसी बीच जस्टिस लोया की रहस्यमयी तरीके से हत्या हो जाती है और भाजपा कुछ और राज्यों में जीत जाती है।

अब नए साल के जश्न में गर्मी बढ़ जाती है। तेज़ शोर में धूम-धड़ाका भी गति पकड़ने लगता है। इस ‘जश्न’ में नेता-मंत्री, नौकरशाह, कॉरपोरेट जगत के खिलाड़ी, ठेकेदार और मनुवादी सब शामिल होते हैं। इस शोर में तमाम चीखें, रुदन और चीत्कारें खो जाती हैं। जैसे-जैसे धूम-धड़ाका तेज़ होता जाता है, यह चीत्कारें भी ऊंची होने लगती हैं लेकिन यह आर्तनाद कभी बाहर नहीं आ पाता क्योंकि इनको सुनने के लिए कोई तैयार नहीं।

नोट: तस्वीर प्रतीकात्मक है। फोटो साभार: Flicker

इन्हें ही अब सुनने-सुनाने की ज़रूरत है। उनकी आवाज़ में आवाज़ मिलाकर इतनी ज़ोर से चिल्लाना है कि सत्ताधारियों-ब्राह्मणवादियों की नींद उड़ जाए। उनका जश्न भंग हो जाए। वास्तव में नए साल का मतलब तभी सार्थक होगा जब तमाम शोषित-वंचित जनता के जीवन में उजाला आएगा क्योंकि उसी सुबह के लिए हमारे बहुजन महापुरुषों ने अपना सारा जीवन कुर्बान कर दिया।

वह सपना अभी पूरा नहीं हुआ है। नित नए संकट पैदा हो रहे हैं और चुनौतियां बढ़ती ही जा रही हैं। दुश्मन अपने मायावी दांव-पेंच में लगा हुआ है और लगातार ताकतवर होता जा रहा है। हमें वंचित जमात को शिक्षित करना है। ज़्यादा से ज़्यादा उन्हें जागरूक करना है, बड़े पैमाने पर वैचारिकता का प्रसार करना है, ब्राह्मणवादी संस्कृति के समानांतर अपनी समतामूलक लोकतांत्रिक संस्कृति खड़ी करनी है, शोषित-वंचित जनता को धार्मिक-सांस्कृतिक गुलामी से मुक्त करना है ताकि वे मानसिक गुलामी से छुटकारा पा सकें।

एक मज़बूत बहुजन गोलबंदी बनानी है। संविधान को व्यावहारिक धरातल पर सुदृढ़ करते हुए और राजनीतिक सत्ता हासिल करनी है। तब जो नया साल आएगा, वह शोषितों, वंचितों और बहुजन समाज के लोगों का नया साल होगा। वह समानता-स्वतंत्रता व बंधुता का नया साल होगा, हमारे तमाम महापुरुषों के सपनों का नया साल होगा और अपना नया साल होगा।

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