1992 में राम जन्मभूमि आंदोलन एक तरह से बाबरी मस्जिद ध्वस्त किए जाने से अपने अंत की ओर पहुंच चुका था। आस्था से जुड़े इस आंदोलन का नेतृत्व भाजपा द्वारा किए जाने से इस बात को बल मिल रहा था कि भाजपा और आरएसएस खुद को चुनाव के माध्यम से देश की सत्ता में लाने के महत्वाकांक्षी हैं।
धारावाहिक रामायण, लव कुश, महाभारत और राम जन्मभूमि आंदोलन से सिर्फ और सिर्फ हिंदू उच्च जाति का मतदाता ही भाजपा से जुड़ रहा था। साल 1991 के लोकसभा चुनाव में इसका प्रमाण देखने को मिला जहां काँग्रेस एक मिलीजुली सरकार बनाने में कमयाब रही। ऐसे में यह निश्चित हो चुका था कि अगर भाजपा को केन्द्र की सत्ता में आना है तब दलित वर्गों को अपने साथ जोड़ना पड़ेगा जिसके लिए सार्वजनिक मंच तैयार करने की ज़रूरत थी।
इसी समय काल में खासकर 1990 से लेकर 2002 तक बहुत से बाबा जो खुद को संत की उपाधि देते थे, अब वह सार्वजनिक रूप से खुद को पेश करने का हर मौका भुनाने लगे थे। मेरे घर के पास ही संत आसाराम का आश्रम था और अब मेरे घर की मुख्य सड़क से आसाराम जी के भक्त उनकी तस्वीर लेकर सुबह-सुबह प्रभात फेरी निकालने लगे गए थे।
बाबा की भूमिका कहीं भी किसी भगवान या देव से कम नहीं थी। वही, कॉलेज जाते समय खास कर पूनम के दिन, आसाराम के भक्तों की लंबी कतारें अपने आप में उनका प्रचार करती थी। यहां भक्तगण दूर-दूर से आते थे और बहुत ही सादगी के साथ सफेद कुर्ते पजामे में आसाराम का गुणगान किया करते थे।
भक्तों की स्थिति देखकर काफी दु:ख होता था जिनके कपड़े ही उनकी गरीबी को ज़ाहिर कर रहे होते थे। आसाराम के दर्शन के लिए दूर-दूर से आने वाले उनके भक्तों को शारीरिक तकलीफ के साथ-साथ आर्थिक बोझ का भी सामना करना पड़ रहा था। खैर, बाबा आसाराम को शायद उनके भक्तों की गरीबी और तकलीफ से ज़्यादा उनके प्रचार का ही ध्यान रहता था और उनके भक्त काफी शालीनता से यह काम करते थे।
मुझे याद है जब साल 2011 में गुडगांव के रेलवे स्टेशन से अहमदाबाद जाने के लिए आश्रम एक्सप्रेस रेलगाड़ी का इंतज़ार कर रहा था तब एक व्यक्ति मिले जिनसे बातचीत शुरू हुई। हिंदुस्तान की यह सबसे बड़ी खूबसूरती है कि यहां दो अजनबी बहुत खुलकर और मुस्कुराकर बात करने में हिचकिचाते नहीं हैं।
अब उन्हें यह पता चल चुका था कि मैं परेशान हूं और मुझे बाद में ज्ञान हुआ कि वह आसाराम जी के अनुयायी हैं। आसाराम की पूरी टीम उनके प्रचार में स्टेशन पर पर्चे बाट रही थी। खैर, अब देर हो चुकी थी और बाबा आसाराम के अनुयायियों ने सामान रखने में मेरी मदद की। बाबा के प्रचार के संदर्भ में मुझे वह कागज़ का टुकड़ा भी दिया जिसे वह स्टेशन पर बाट रहे थे।
वह अजनबी मित्र भी इसी ट्रेन से अहमदाबाद जा रहे थे जिन्होंने मेरे पास आकर आसाराम जी का प्रचार अभियान शुरू कर दिया। मैं तीन कारणों से उनसे बहस नहीं करना चाह रहा था। पहला तो आसाराम के नाम पर, दूसरी यह कि अनजाने में ही सही उन्होंने मेरी मदद की और सबसे महत्वपूर्ण यह कि वो बड़े ही शांत और शालीन स्वभाव के थे।
वही, सबसे ज़रूरी वजह कि आप सार्वजिनक जगहों पर किसी भी ऐसे बाबा या संत के बारे में कुछ कठोर नहीं बोल सकते जिनके लाखों की तादाद में अनुयायी हो। जिनके यहां हर राज्य के मुख्यमंत्री दंडवत करते हो और बाबा के बारे में कुछ भी कहना आपकी सेहत के लिए बहुत ज़्यादा हानिकारक हो सकता है, जिसकी बहुत अधिक संभावना थी।
अगर आज आसाराम जेल में नहीं होते तब यकीनन यह लेख लिखने से पहले बहुत बार सोच विचार करता लेकिन मैंने आखिर में यह कहकर बात खत्म कर दी कि मैं सिख हूं और हमारे गुरू, श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी हैं। खैर, वह तो चले गए लेकिन अगर मेरी जगह कोई और होता तब ज़रूर उनकी बातों से पर प्रभावित होकर आसाराम जी के बारे में श्रद्धा भावना के बहाव में बैठ जाता।
यहां एक तथ्य को ध्यान में लाना बहुत ज़रूरी है कि संत आसाराम का मुख्य धार्मिक आश्रम अहमदाबाद के पास स्थित मोटरा में है जहां इनका सर्व संचालित एक स्कूल भी है। इसी स्कूल में दो विद्यार्थी पहले लापता हुए और बाद में उनकी लाश साबरमती नदी के किनारे मिली। बाबा ताकतवर थे और उनकी राजनैतिक पहुंच भी थी इसलिए छानबीन और कानूनी कार्रवाई के नाम पर ज़्यादा कुछ नहीं हुआ।
यहां यह याद रखने की ज़रूरत है कि गुजरात में साल 1995 से भाजपा ही राज्य सरकार में बहुमत से मौजूद है और साल 2008 में राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ही थे। संत आसाराम के खिलाफ गुजरात सरकार द्वारा सिर्फ लीपापोती किया जाना भाजपा और संत आसाराम की नज़दीकियों को बहुत साफ-साफ बताता है।
आडवाणी और आसाराम की मित्रता
ज़मीनी हकीकत यह थी कि अहमदाबाद शहर में लोग मानने लगे थे कि भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी और संत आसाराम के बीच घनिष्ट मित्रता है। यह भी एक वजह थी कि आसाराम के मंच पर कभी-कभी आडवाणी दिखाई देते थे और यहां तक कि आम जनता द्वारा यह आरोप भी लगाया जाता था कि राज्य सरकार ‘आसाराम’ और उनके आश्रम को पूर्ण रूप से सहायता पहुंचाती है।
वही, स्कूल में मारे गए नाबालिक बच्चे के पिता को न्याय के लिए भूख हड़ताल पर बैठना पड़ा। परिजनों का आरोप था कि बच्चों की मौत मानवीय बली के रूप में दी गई है। ब्राह्मणवाद और अंधविश्वास का ही एक तथ्य है मानवीय बली।
यहां समझने वाला तथ्य है कि उस वक्त राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी थे जो हिन्दू समाज की रक्षा हेतु अपनी उग्र छवि रखते थे। न्याय पाने के लिए परिजनों को भूख हड़ताल पर बैठना पड़ गया लेकिन मुख्यमंत्री के तौर पर नरेन्द्र मोदी हरकत में नहीं आए। वही, संत आसाराम की संपत्ति में अंबार लग रहा था जिससे भाजपा और उनके बीच के मधुर रिश्तों की चर्चा ज़ोरों पर थी।
जब सलाखों के पीछे गए आसाराम
खैर, बाद में संत आसाराम को एक अन्य केस में नाबालिक से शारीरिक शोषण के आरोप में राजस्थान सरकार द्वारा धर दबोचा गया। यह वही समय था जब नए-नए बाबा आ रहे थे और किसी ना किसी शहर में इनका आश्रम ज़रूर होता था। कुछ जोड़-तोड़ करके ऐसे बाबा टीवी पर भी आना शुरू कर चुके थे और चिन्हों के माध्यम से शब्दों में छुपे हुए अर्थ से यह सभी हिंदू आस्था से जुड़े हुए थे।
इनका प्रचार का तरीका, शब्दों और भाव में शालीनता कहीं भी किसी भी प्रकार के भेदभाव से खुद को पाक साफ बताती थी। इनके द्वारा यह प्रचार किया जाता था कि बड़े-बड़े आश्रम और पंडालों में काफी शानदार प्रबंधन होता है जहां हज़ारों की संख्या में भक्त मौजूद होते हैं। हालांकि वहां कोई पुलिस या बाउंसर नहीं देखने को मिलते थे, बाबा के संत और भक्त ही सब कुछ संचालित करते थे।
अन्य भक्त बाबा का आदेश समझकर खुद को बहुत शालीनता से पेश आते थे लेकिन सवाल यह है कि इस तरह का प्रचार और संचालन बिना किसी अनुभवी संस्था या बुद्धि के अलावा नहीं हो सकती। आखिर यह कौन सी देवी शक्ति थी? बाबा के हर धर्म प्रचार में किसी के जाने पर कोई रोक-टोक नहीं थी।
मसलन, बाबा संत खुद को जात-पात, ऊंच-नीच और छुआ-छुत से ऊपर दिखाने में कामयाब हो रहे थे। शायद यही वजह रही होगी कि मेरे घर की गली में जितने भी आदिवासी परिवार रहते थे, वह अब बाबा के अनुयायी हो चुके थे। दलित समुदाय से भी काफी लोग बाबा के अनुयायी हो चुके थे।
शहरों में उनके भक्तों की संख्या काफी ज़्यादा थी जबकि गाँवों में जात-पात, छुआ-छूत और ऊंच-नीच का अधिक प्रभाव होने के कारण ऐसे बाबाओं की पहुंच उतनी आसान नहीं है। बाबा संत जी काफी तेज़ी से शहर में कबूल हो रहे थे। खैर, यह खोज का विषय है कि वह किस पार्टी की मदद कर रहे थे।
बाबाओं का भाजपा को समर्थन
इस पर आज कुछ सटीक नहीं कहा जा सकता लेकिन जब मैं गुजरात राज्य के चुनाव (2002, 2007, 2012 और खासकर 2017) परिणाम देखता हूं तो नतीजतन कह सकता हूं कि यह शहर के बाबा और संत बहुत बड़े पैमाने पर भाजपा को समर्थन दे रहे थे। शायद यही वजह है जहां जात-पात, ऊंच-नीच और छुआ-छूत के चलते भाजपा और इसकी मुख्य विचारधारा आरएसएस गाँव में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाती क्योंकि गाँव के दलित को आज भी ब्राह्मणवाद विचारधारा परेशान करती है।
वही, शहर का दलित समुदाय भाजपा को स्वीकार करता है और उसे आरएसएस से भी कोई परहेज़ नहीं है। इसकी बड़ी वजह संत आसाराम जैसे बाबा भी हैं जो खुद को एक नई आस्था में प्रस्तुत करने में बहुत हद तक कामयाब हुए हैं।
इनकी विचारधारा तो हिंदू सिद्धातों के अनुसार ही चलती है लेकिन इनके साथ बड़े पैमाने पर दलित और आदिवासी समुदाय भी जुड़ा है। हम संत आसाराम के साथ-साथ इसी प्रस्ताव में बाबा गुरमीत राम रहीम का भी विश्लेषण कर सकते हैं कि वह किस तरह चुनाव को प्रभावित करते थे।
मैं यहां इस लेख में बाबा गुरमीत राम रहीम और संत आसाराम का नाम लेने में इसलिए कामयाब हो सका हूं क्योंकि दोनों बाबा इस समय जेल में हैं। जो संत बाबा आज भी अपना-अपना आश्रम और आस्था का प्रचार बहुत ही प्रमाणिकता और शालीनता से करते हैं उनके विषय में आप विश्लेषण करने के साथ-साथ योगा भी करें। यह स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद है लेकिन जब योगा करते हुए हिंदू धर्म के चिन्हों को पुकारेंगे तब यहां भी कई बाबाओं की तस्वीर आपके सामने उभर आएगी जो बाबा होते हुए भी देश, राष्ट्र और आस्था के नाम से किस पार्टी को चुनावी फायदा पहुंचा रहे हैं, आप इसे भली-भांति समझ पाएंगे।