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क्या दिल्ली पुलिस सिख कत्लेआम को रोकने में नाकामयाब रही थी?

1984 सिख कत्लेआम के संदर्भ में सबसे पहले गठित जांच कमीशन की अध्यक्षता भारत के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री रंगनाथ मिश्रा कर रहे थे, जिन्होंने अपनी जांच में कहा था कि श्रीमती इंदिरा गांधी जी की हत्या के बाद आम लोगों की भावना को बहुत ठेस पहुंची थी और यही भावना 1984 के सिख कत्लेआम की वजह बनी।

मसलन मिश्रा कमीशन सिख कत्लेआम को कत्लेआम ना कहकर एक सामाजिक दंगे की रूप रेखा दे रहा था, जहां श्री रंगनाथ मिश्रा जी के रूप में मिश्रा कमीशन ने बहुत साफ शब्दों में लिखा था कि इस कत्लेआम में किसी भी तरह से कॉंग्रेस पार्टी अथवा कॉंग्रेस पार्टी के किसी भी बड़े नेता की मौजूदगी होने के संकेत नहीं मिलते हैं।

वही मिश्रा कमीशन के सामने रखी गई कुल 3752 जांच अर्ज़ियों में से 3083 अर्ज़ियां इस आधार पर थी कि श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख समुदाय खुशी से मिठाई बांट रहा था और यही मुख्य वजह रही है कि श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या आहत आम जन मानुष ने निराशा में सिख समुदाय को अपने गुस्से का शिकार बनाया।

यहां कमीशन ने बाकायदा नाम लेकर श्री एच के एल भगत, श्री जगदीश टाइटल, श्री सज्जन कुमार और श्री धर्म दास के रूप में कॉंग्रेस पार्टी को पूर्ण रूप से दोषमुक्त कर दिया था लेकिन कमीशन यह बताने में नाकामयाब रहा कि अगर आम जन मानुष ही सिख समुदाय के विरोध में खड़ा था तो सिख समुदाय का दिल्ली और बाकी सभी हिंदी भाषित प्रदेश में बहुत ज़्यादा जान-माल का नुकसान होना चाहिये था।

मसलन इन प्रदेशों में कोई सिख जीवित नहीं होना चाहिये था, क्योंकि कई ऐसे हिंदू नागरिक भी थे जिनकी दंगाईयों ने बस इसलिए हत्या कर दी थी कि वह इस सुनियोजित कत्लेआम में सिख समुदाय को बचाने का खतरा उठा रहे थे। वही मिश्रा कमीशन यह बताने में भी नाकामयाब रहा कि उसकी ऐसी क्या मजबूरी थी कि उसे कॉंग्रेस पार्टी ओर कॉंग्रेस पार्टी के बड़े नेताओं का नाम लेकर उन्हें हर तरह से दोषमुक्त बताया गया।

वही कमीशन के सामने 669 ऐसी जांच अर्ज़ियां आई थीं, जहां सिख समुदाय के पीड़ित नागरिकों ने अपने बयान दर्ज़ करवाए कि किस तरह एक सुनियोजित तरीके से सिख समुदाय की हत्या दंगाईयों द्वारा की गई थी। नानावटी कमीशन के सामने श्री रंगनाथ मिश्रा के सारे दस्तावेज़ पेश करने में तत्कालीन केंद्र सरकार असमर्थ थी, वहीं नानावटी कमीशन के सामने उन इलाकों से भी सिख पीड़ित पेश हुए, जहां से मिश्रा कमीशन ने किसी भी सिख पीड़ित गवाही को अपनी जांच में शामिल नहीं किया था।

वही जिन इलाकों से मिश्रा कमीशन के सामने सिख पीड़ित बतौर गवाह पेश हुए थे अब नानावटी कमीशन के सामने इस तरह के गवाहों की संख्या मिश्रा कमीशन की तुलना में कही ज़्यादा थी। वही ऐसे गवाह नानावटी कमीशन के सामने नदारद ही रहे जो श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख समाज द्वारा मिठाई बांटे जाने की पुष्टि कर सके लेकिन सिख समुदाय द्वारा मिठाई बांटे जाने की बतौर गवाह मिश्रा कमीशन के सामने सिख पीड़ितों की तुलना में 4 गुना ज़्यादा पेश हुए थे। वही नानावटी कमीशन के सामने सिख पीड़ितों ने कॉंग्रेस के नेता कमलनाथ, सज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर, एच एल के भगत इत्यादि जिनमें तत्कालीन कई लोकसभा सांसद भी थे, उनके नाम लिए गए जबकि ये सारे नाम मिश्रा कमीशन की जांच में पूर्णतः गायब हैं।

नानावटी कमीशन जो कि सिख कत्लेआम होने के 16 साल के बाद होंद में आया इसके बावजूद 1984 के सिख कत्लेआम के तुरंत बाद केंद्र द्वारा बनाये गये श्री रंगनाथ मिश्रा कमीशन की तुलना में बहुत सटीक जांच को अंजाम देने में कामयाब रहा। जहां सिख पीड़ित बहुत ज़्यादा संख्या में हाज़िर हुए, वहीं कॉंग्रेस पार्टी के नेताओं के नाम भी नानावटी कमीशन के समक्ष सिख पीड़ितों ने खुलकर बताये।

मिश्रा कमीशन की जांच में कॉंग्रेस को पाक साफ बताना, सिख गवाहों की संख्या बहुत कम रखना इत्यादि सभी कारण थे कि मिश्रा कमीशन की विश्वसनीयता पर सवाल किए जा सकते हैं। वही मिश्रा कमीशन के बाद कॉंग्रेस सरकार द्वारा मिश्रा कमीशन के अध्यक्ष श्री रंगनाथ मिश्रा को राज्यसभा सांसद बनाना, अपने आप में मिश्रा कमीशन की सिख कत्लेआम की जांच को और धुंधला और मलिन कर देता है।

लेकिन यहां मिश्रा कमीशन पर क्या दबाव था कि वह अपनी जांच की विश्वसनीयता को साबित नहीं कर सका और वही सिख कत्लेआम के संदर्भ में 2005 में आई नानावटी कमीशन की रिपोर्ट अपने आप में 1984 का सिख कत्लेआम का दस्तावेज़ बन जाती है, जिसकी प्रमाणिकता पर बहुत हद तक मोहर लगाई जा सकती है।

मिश्रा कमीशन की ढीली ढाली जांच प्रकिया अपने आप में तत्कालीन कॉंग्रेस सरकार को भी सिख कत्लेआम के संदर्भ में दोषी बना देती है कि ऐसी क्या वजह थी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की बहुमत वाली कॉंग्रेस सरकार सिख कत्लेआम के दोषियों को बचाने के लिये एक ढाल का काम कर रही थी, वही सिख कत्लेआम में पीड़ित सिख समुदाय से बेरुखी का व्यवहार कर रही थी। ऐसी क्या वजह थी, यहां सवाल तो बहुत ज़्यादा उभरकर आते हैं।

इसके बावजूद कि रंगनाथ मिश्रा कमीशन सिख कत्लेआम के संदर्भ में की गई जांच में अपनी विश्वसनीयता बनाने में नाकामयाब रहा है, मिश्रा कमीशन दिल्ली सिख कत्लेआम में दिल्ली पुलिस और दिल्ली सरकारी व्यवस्था पर सवाल खड़े करने में ज़रूर कामयाब रहा। वही नानावटी कमीशन ने इस संदर्भ में बहुत बारीकी से जांच की है, 1984 सिख कत्लेआम के समय दिल्ली एक केंद्र शाषित प्रदेश था, राष्ट्रपति के अधीन दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर आते थे और दिल्ली की कानून व्यवस्था की जवाबदेही इन्हीं दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर पर थी, जिनके अधीन दिल्ली की पुलिस आती थी

इस समय दिल्ली पुलिस के मुख्य अफसर दिल्ली के पुलिस कमिश्नर थे, यहां दिल्ली की पुलिस व्यवस्था को मुख्य रूप से दिल्ली की 6 पुलिस रेंज में बांटा गया था और हर रेंज का एक अलग डी आई जी रैंक का पुलिस अफसर था, जिसके अधीन ये सारी रेंज के पुलिस स्टेशन आते थे। इस समय दिल्ली में कुल 63 पुलिस स्टेशन थे, जहां हर पद पर मौजूद अफसर से लेकर सिपाही सभी मौजूद थे। मसलन, दिल्ली में इस समय इतनी पुलिस व्यवस्था थी कि वह सिख कत्लेआम के अंजाम को बहुत ही आसानी से रोक सकने में समर्थ थी जो कि वास्तव में हुआ नहीं। इसी के अंतर्गत दिल्ली पुलिस की कार्यशैली पर भी सवालिया चिन्ह लग जाता है।

नानावटी कमीशन में दो बयान बहुत ही अहम हैं, जो अपनी ओर ध्यान केंद्रित करते हैं। इनमें तत्कालीन लोकसभा सांसद रामविलास पासवान भी हैं, जहां एक सरदार जी, सिख भीड़ से अपनी जान को बचाते हुए रामविलास पासवान के घर के अंदर आ गया था, जहां इस पीड़ित सिख समुदाय के नागरिक को संरक्षण देने के लिये राम विलास पासवान के पुलिस सुरक्षा में शामिल सिपाहियों ने हवा फायरिंग भी की। भीड़ अब और उग्र हो गई वही पासवान द्वारा गृह मंत्रलाय, पुलिस के कई वरिष्ठ अफसरों से पुलिस सुरक्षा की मांग की गई इसके बावजूद कोई पुलिस वहां नहीं आई।

इसी दौरान भीड़ द्वारा राय सीना रोड जहां यूथ कॉंग्रेस का दफ्तर है उस तरफ से पासवान के घर में प्रवेश किया, घर में तोड़फोड़ की, एक गाड़ी के साथ-साथ गाड़ी के गैरेज को आग लगा दी। हालात यह थे कि श्री पासवान को और इनके परिवार को अपनी जान वहां से भागकर बचानी पड़ी थी। वही भीड़ ने उस सिख नागरिक को ज़िन्दा जलती हुई कार गैराज में फेंककर उसकी हत्या कर दी थी।

पासवान के कथन के दौरान इस समय उन्हें अपने घर के आसपास पुलिस की घूम रही गाड़ी का सारंग सुनाई दे रहा था। मसलन यह कैसे हालात थे, जहां एक सांसद के कहने पर पुलिस बंदोबस्त उनकी हिफाजत में आने में असमर्थ था। वहीं एक सांसद की भी दिल्ली पुलिस में सुनवाई नहीं थी और एक सांसद को जान बचाने के लिये भागना पड़ रहा था।

वही सिख कत्लेआम में पीड़ित निरप्रीति कॉर के बयान के अनुसार कॉंग्रेस के सांसद श्री सज्जन कुमार और कई नेता पुलिस की गाड़ी में बैठकर दिल्ली शहर में सिख कत्लेआम को अंजाम दे रहे थे। यह यकीनन है कि सिख कत्लेआम में दिल्ली पुलिस दंगाईयों का भरकम साथ दे रही थी।

यहां लापरवाही से ज़्यादा एक साज़िश की गुंजाइश ही प्रतीत होती है लेकिन नानावटी कमीशन के सामने एक सिख पीड़ित ने बयान दिया है कि सज्जन कुमार दिल्ली की गलियों में सिख समुदाय के नागरिकों को कत्ल करने के लिए 10000 ओर 5000 रुपये का इनाम देने की घोषणा कर रहा था, जहां पुलिस अपने फर्ज़ से भाग रही थी एक सांसद सिख समुदाय को कत्ल करने के लिये पैसे बांट रहा था। इस हालात में भारत को एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र कहना अपने आप में एक मिथ्य ही लगता है।

वही श्री एम एस सप्रा जो कf शाहदरा पुलिस स्टेशन के 1984 में तत्कालीन मुख्य प्रभारी अफसर थे और सिख थे, जब यह खबर मिलने पर छज्जुपुर इलाके में से सिख कत्लेआम को अंजाम देने के लिए जमा हुई दंगाईयों की भीड़ पर काबू पाने की कोशिश कर रहे थे तब शाहदरा के एसीपी ओर डीसीपी ने वहां आकर श्री सप्रा को तुरंत प्रभाव से पुलिस स्टेशन जाने का आदेश दिया था। मसलन पुलिस के बड़े अफसरों को यह किस तरह पता चला कि सप्रा के रूप में एक सिख पुलिस अफसर भीड़ को काबू कर रहा है।

यहां सप्रा की गवाही से यह साबित होना आम सा तथ्य है कि दिल्ली पुलिस को सिख कत्लेआम में दिल्ली में क्या हो रहा है इसकी सारी जानकारी थी, वही पर्याप्त सुरक्षाकर्मी भी दिल्ली पुलिस में मौजूद थे लेकिन फिर भी दिल्ली पुलिस सिख कत्लेआम को रोकने में किस तरह नाकामयाब रही।

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