पता नहीं देश की जनता को ऐसा क्यों लगता है कि सरकार द्वारा सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने की बात जो संविधान सम्मत नहीं है, उसे स्वीकार लिया जाएगा। सरकार को इतनी तो जानकारी रखनी चाहिए कि हमारा देश संविधान से चलता है। अचरज की बात यह है कि आर्थिक आधार पर सवर्णों के आरक्षण की मांग बीजेपी ने अपने शासनकाल के प्रथम वर्ष में क्यों नहीं उठाया?
क्या सरकार को मालूम नहीं कि संविधान में संशोधन के कई पहलू होते हैं। इसमें समस्या यह है कि कितने प्रतिशत सामान्य वर्ग के लोग आर्थिक रूप से कमज़ोर हैं, इसका आंकड़ा सरकार के पास भी नहीं है।
गौरतलब है कि ‘संविधान संशोधन विधेयक’ लोकसभा और राज्यसभा दोनों जगहों से पास हो गया है। यहां एक अहम सवाल खड़ा होता है कि क्या संविधान में इस पर संशोधन संभव हो पाएगा? क्योंकि हमारे संविधान में दो तरह के आरक्षण की बात की गई थी। पहला शैक्षणिक आधार पर आरक्षण और दूसरा सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण।
देश के अंदर अनुसूचित जनजातियां (एसटी) हैं जो शैक्षणिक स्तर पर पिछड़े हुए थे, जिन्हें शिक्षित कर समाज की मुख्यधारा और प्रतिधिनित्व में समानता लाने के लिए शैक्षणिक आरक्षण दिया गया। दूसरा अनुसूचित जातियों (एससी ) एवं अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी ) को जिसे सवर्ण समाज द्वारा उनके सामाजिक अधिकारो एवं शिक्षा के अधिकारों से हज़ारों वर्षो तक वंचित रखा गया था, उन्हें भी भारत के संविधान ने अन्य समाजों की तरह मुख्यधारा एवं प्रतिनिधत्व के आधार पर सामाजिक आरक्षण दिया।
यह बहुत अजीब और विचित्र बात लग रही है कि अचानक बीजेपी सरकार को स्मरण आता है कि आर्थिंक आधार पर आरक्षण बिल लाया जाए। संसद का यह अंतिम शीतकालीन सत्र है और लोकसभा चुनाव भी काफी नज़दीक आ चुका है। ऐसे में क्या बिना बहस किए इस विषय पर कोई कानून बनाना संविधान सम्मत होगा?
आपको बता दें सुप्रीम कोर्ट ने साफ कह दिया था कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग या इनके अलावा किसी भी अन्य विशेष श्रेणी में दिए जाने वाले आरक्षण का कुल आंकड़ा 50 प्रतिशत से ज़्यादा नहीं होना चाहिए। ऐसे में एसटी, एससी और ओबीसी के 7.5 % + 15 % + 27% आरक्षण को मिलाकर 49.5 % होते हैं।
भारत मे एसटी, एससी और ओबीसी को मिलाकर देश में जनसंख्या का अनुपात देखे तो लगभग 85% है। ऐसे में अगर सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत वाला आरक्षण लागू हो जाता है, तब महज़ 15 प्रतिशत जेनरल कैटेगरी को 10 प्रतिशत आरक्षण देना हास्यास्पद नहीं तो और क्या?
आप सभी को ज्ञात होगा कि पिछले कुछ वर्षों से आरक्षण को खत्म करने के लिए कई आंदोलन देश में चल रहे थे। कई संगठन आरक्षण के खिलाफ आंदोलन भी कर रहे थे। ‘आरक्षण हटाओ देश बचाओ’ के नारे भी लगाए जा रहे थे। अब ऐसा लगता है कि उन सभी संगठनों को देश की जनता से माफी मांगनी पड़ेगी क्योंकि खुद हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी अपने भाषण मे कह गए, “अगर बाबा साहेब आंबेडकर भी चाहेंगे तो एसटी, एससी और ओबीसी कैटेगरी वालों के आरक्षण को हटाया नही जा सकता।”
आर्थिक आरक्षण को ‘सवर्णों का आरक्षण’ कहना भ्रामक होगा। मीडिया में यह खबर फैलाई जा रही है कि यह आरक्षण सिर्फ ब्राह्मण, राजपूत और बनिया के लिए लाया जा रहा है। जबकि सच्चाई यह है कि इसमें मुसलमान और ईसाइयों की भी बात की गई है जिसे राजनीतिक पार्टियां और मीडिया बहुत बढ़ा-चढ़ा कर जनता के बीच भ्रम पैदा कर रही है।
अगर जातिगत आरक्षण की बात हो रही है तब संख्या के आधार पर गणना कीजिए और देश के सामने सही आंकड़ा पेश कीजिए ताकि वर्तमान में देश के अंदर जातिगत संख्या कितनी प्रतिशत है, यह पता चल सके। अभी तक कोई मौजूदा आकड़ा नहीं है जिससे देश में मौजूद सभी जातियों की संख्यां का प्रतिशत पता चले।
उधर ओबीसी आरक्षण का मुद्दा पहले से ही पेंडिंग पड़ा हुआ है। हरियाणा के जाट, गुजरात के पटेल और महाराष्ट्र के मराठी लोगों के आरक्षण से संबंधित मांगें और आंदोलन पिछले कुछ वर्षों में बढ़ गए थे। अब जब वर्तमान सरकार के कार्यकाल का अंतिम चरण आ गया तब अचानक से आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग की जा रही है।
कहीं यह राजनीति से प्रेरित तो नहीं है जिसके तहत नाराज़ सामान्य वर्गों के वोटर्स को लुभाने के लिए मोदी सरकार ने अचानक से आर्थिक आरक्षण का बिल लाया है। अब देखना दिलचस्प होगा कि यह लागू हो पाता है या नहीं।