सैद्धान्तिक रूप में यह संविधान के तहत मिला समानता का हक है लेकिन व्यावहारिक रूप से दलितों, जनजातियों और पिछड़ो के कल्याण का मार्ग है। यह प्रतिधिनित्व और समानता का अधिकार है, ताकि जिस वर्ग पर समाज ने बाध्यताएं लगा रखी हैं उसे प्रवेश दिया जाए।
हज़ारो सालों से समाज में यह व्यवस्था चली आई है कि मंदिर में कौन जाएगा, कौन सैनिक बनेगा और कौन व्यापार करेगा। व्यावहारिक रूप में यह एक थिएटर पर मंचन जैसा है, जो चुनाव के मंच पर खेला जाता है जिसका निर्माता, निर्देशक उच्च वर्ग, सत्ता वर्ग होता है और निम्न वर्ग के लोग कलाकार की भूमिका में होते हैं।
ज्योतिबा फुले ने सवर्प्रथम आरक्षण की मांग की थी और महाराष्ट्र की रियासत ने उसे लागू किया। ब्रिटिश सरकार के आरक्षण देने से आज तक यह व्ययस्था 1931 की जनगणना पर आधारित है। आरक्षण के इस व्यावहारिक पक्ष को चार प्रश्नों से समझा जा सकता है।
पहला प्रश्न यह है कि कितनी नौकरियों में आरक्षण है। भारत के जॉब मार्केट में 92 % नौकरियां असंगठित हैं और शेष 8 % संगठित क्षेत्रों का 60 % सरकारी क्षेत्र है जो लगभग 1.4 करोड़ है। इनमें आरक्षित वर्गों का हिस्सा 50% अर्थात 70 लाख तक है। निजी क्षेत्र इससे बाहर हैं जहां आज भी दलित, पिछड़ा, जनजातीय वर्ग और कुछ अपवादों को छोड़कर केवल मज़दूर की भूमिका में जीवन यापन करता है।
दूसरा प्रश्न यह कि आरक्षण दिया किस आधार पर गया था? इसका सामान्य उत्तर है जनसंख्या के प्रतिशत के आधार पर लेकिन 1931 से जहां देश की जनसंख्या 30 करोड़ से 130 करोड़ पहुंच गई और आज भी आरक्षण का आधार 1931 की जनसंख्या ही है। सामान्य तर्क यह कहता है कि शिक्षा से जनसंख्या वृद्धि कम होती है। सामान्य वर्ग जो 1931 में 20% से कम था, वह भारत का सबसे ज़्यादा शिक्षित वर्ग था। तब से 2011 की जनगणना और 2018 की जनसंख्या तक वर्गों का विभाजन क्या हो सकता है?
तीसरा प्रश्न 50 % के स्टाम्प का है। आरक्षण 70 सालों से लगभग एससी के लिए 15%, एसटी के लिए 7% और ओबीसी के लिए 27% है। अनारक्षित वर्ग पहले भी बचे 50% से अघोषित रूप से बाहर ही था और अब यह 40% से बाहर कहलाएगा। व्यावहारिक रूप से जैसे-जैसे वरियता रैंक बढ़ता जाएगा वैसे-वैसे सामान्य वर्गों का अघोषित आरक्षण भी बढ़ता जाएगा। 15 % से कम वर्गों के लिए 10 % सीट आरक्षित होंगे जहां शेष 85% वर्गों के लिए अब 40 % अघोषित रूप में आरक्षित होने के साथ-साथ प्रतियोगिता के लिए भी खुला रहेगा।
अंतिम प्रश्न 10 % आरक्षण सवर्ण वर्गों हेतु आर्थिक आधार पर देने की घोषणा के लागू करने से है। आर्थिक आधार पर देश का 80 % मुस्लिम समुदाय और शेष अन्य अल्पसंख्यक वर्ग अगर इस आरक्षण सीमा में आ जाएं तब यह हिन्दू सवर्ण वर्गों से संख्यां में ज़्यादा ही रहेगा जिसका सत्ता वर्ग हमेशा विरोध करता आया है।
उत्तरप्रदेश में जहां 15-20 % मुस्लिम आबादी को सत्ताधारी राजनीतिक दलों द्वारा 1 % चुनाव टिकट नहीं दिया गया हो, ऐसे में उनका इस 10% में प्रवेश के प्रस्ताव का भविष्य सभी जानते हैं। हम 70 सालों से आर्थिक आधार पर टैक्स के दायरे में अभी तक सक्षम लोगों को लाने में सफल नहीं हो पाए हैं।
अभी तक मेरिट से खिलवाड़, इंद्रा साहनी केस, मंडल केस द्वारा निर्धारित 50% सीमा, दलितों, जनजातिओं और पिछड़े वर्गों हेतु आरक्षण बढ़ाने में बाधा थे। अब देखना यह है कि सभी दल सर्वसम्मति से इस पर कैसे राज़ी होते हैं। यह भी देखना है कि संविधान और संस्थाओं की निष्पक्षता का क्या रूख दखने को मिलता है।
आरक्षण प्रतिनिधित्व का अधिकार है ताकि समाज के वंचित वर्गों को शक्ति और शासन में भागीदारी दी जाए, ना कि गरीबी उन्मूलन को दूर किया जा सके। 130 करोड़ की आबादी में 1.5 करोड़ सरकारी नौकरी में आरक्षण से निजीकरण के दौर में यह संभव नहीं है। गरीबी उन्मूलन के लिए स्कॉलरशिप, नरेगा, प्रत्यक्ष आय हस्तांतरण, न्यूनतम आय जैसे अनेक साधन भारत में किसी ना किसी रूप में चल रहे हैं।
वही अगर आरक्षण ही देना है तो महिलाओं को क्यों नहीं जो 40 सालों से इसकी मांग में हैं, ताकि 50% आबादी का भी शासन और अर्थव्यवस्था में योगदान बढ़े और महिला सशक्तिकरण भी तेज़ी से हो।