हम जब महिला अधिकारों की बात करते हैं तब हमें यह समझना होगा कि हमारे देश का फेमिनिस्ट एक्टिविटीज़ का एक बहुत बड़ा इतिहास रहा है। लड़कियों के लिए पहला स्कूल ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले द्वारा चलाना हो, या फिर सती प्रथा को बंद करना हो ऐसे कई इतिहास हमारे यहां दर्ज हैं।
फिलहाल महिलाओं का मंदिर/दरगाह में जाने पर विवाद हो रहा है। यह मुद्दा चर्चा में तब आया जब दिल्ली के निज़ामुद्दीन औलिया दरगाह में महिलाओं के प्रवेश पर लगी पाबंदी के खिलाफ झारखंड की तीन लड़कियों ने जनहित याचिका दायर की। वे लड़कियां पुणे में वकालत की पढ़ाई कर रही हैं। ऐसे में हमें इस मुद्दे को विस्तार से समझना होगा।
विरोध की वजह-
सबरीमाला, हाजी अली, निज़ामुद्दीन औलिया, शनि शिंगणापुर यहां पर एक बात समान रूप से नज़र आती है कि मज़हब (पुरानी परंपरा) के नाम पर विरोध करना। अब सवाल उठता है कि इस मुद्दे में कितनी सच्चाई है? वास्तव में यह पितृसत्ता को बचाए रखने की जंग है।
क्यों महिलाएं भी महिलाओं का विरोध करती हैं-
सबरीमाला को देखिए वहां पर कुछ स्थानीय महिलाएं अन्य महिलाओं का विरोध करती नज़र आती हैं। तीन तलाक पर कुछ मुस्लिम महिलाएं अन्य महिलाओं का और सरकार का विरोध कर रही हैं। वे महिलाएं बहुसंख्यक नहीं हैं। फिर भी यह सवाल खड़ा होता है ऐसा क्यों है?
शायद इस सवाल का जवाब भी हमें पितृसत्ता वाली सोच में मिलेगा। लड़कियों को बचपन से ही पिता, भाई और फिर पति के दबाव में रहना पड़ता है। आगे चलकर कुछ महिलाएं इस पितृसत्ता वाली संस्कृति का शिकार हो जाती हैं और फिर सबरीमाला या तीन तलाक का विरोध करती हैं।
महिलाओं को बचपन से ही ऐसा सिखाया जाता है कि तुम्हारा अस्तित्व किसी मर्द के इर्द गिर्द ही है। फिर वही कमज़ोर औरतें बड़ी ताकत से अन्य महिलाओं के रास्ते में बाधा बन जाती हैं।
ऐसे में कुछ सवाल पीछे छूट जाते हैं। क्या इन तीनों लड़कियों का कदम सही है? तो इसका जवाब हां है। क्योंकि वह लड़कियां वकालत की पढ़ाई करते हुए अपने हक और अधिकार की लड़ाई लड़ रही हैं। भारत के संविधान में समता का प्रावधान है। अगर महिलाओं को मंदिर दरगाह में प्रवेश ना मिले तो वह समता के अधिकारों का हनन होगा।
दूसरा सवाल यह है कि क्या महिलाओं को दरगाह में प्रवेश मिलना चाहिए? इसका जवाब भी हां है, क्योंकि आप सिर्फ लिंग के आधार पर किसी के साथ ऐसा भेदभाव नहीं कर सकते हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक नारी के कारण ही आदमी का अस्तित्व है। इन लड़कियों का यह प्रयास सकारात्मक ही साबित होगा क्योंकि बात सिर्फ दरगाह या मंदिर में प्रवेश की नहीं है बात औरत के आत्मसम्मान की है।
ऐसे में सबरीमाला पर बात होनी भी ज़रूरी है। आखिर ऐसा क्या हुआ है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी महिलाओं को मंदिर में प्रवेश नहीं मिल रहा है? कुछ राजनीतिक दल इस विषय पर राजनीति कर रहे हैं। यह बात देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है।
ऐसे में हमें यह समझना होगा कि विधवा पुनर्विवाह, सती प्रथा को बंद करना यह फैसले भी जन भावना के अनुकूल नहीं थे। उस वक्त इसे भारी विरोध का सामना करना पड़ा लेकिन इसकी बदौलत हम एक अच्छी समाज की नींव रख पाए। 21वीं सदी में भारतीय राजनेताओं को यह बात तय करनी है कि हमें सदी के साथ आगे बढ़ना है या फिर पुरानी बातें उजागर करनी हैं।
ऐसा नहीं है कि पश्चिमी जगत में सब ठीक चल रहा है। आयरलैंड की पार्लियामेंट में 13 दिसंबर को गर्भपात पर लगी पाबंदी हटाने वाला विधेयक पास किया गया यह उस देश की महिलाओं की जीत है। इस कामयाबी के लिए जो उनका अधिकार है उसे पाने के लिए आयरलैंड की महिलाओं को कई साल से सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़नी पड़ी और यह लगभग पूरी दुनिया की तस्वीर है। सिर्फ बात यह है कि अलग-अलग देशों में मुद्दे अलग-अलग होते हैं।