दुष्यंत कुमार का एक खूबसूरत शेर है, “मत कहो आकाश में कोहरा घना है, ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है”। हिंदुस्तान के मौजूदा हालात पर इस शेर का तंज बिलकुल सटीक बैठता है। इसी घने कोहरे की ओर इशारा करने की गलती इस बार नसीरुद्दीन शाह ने कर डाली।
हमारे संविधान ने हर बाशिंदों को बुनियादी हकों में ख्यालों की आज़ादी का हक भी मयस्सर करवाया है परंतु उसे इस्तेमाल करने की कीमत आज मौजूदा परिस्थितियों में अदा करनी पड़ रही है। उन तमाम कलाकारों, साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों और विवेकशील नागरिकों जिन्होंने मौजूदा निज़ाम की हुकूमत से असहमति जताने का प्रयास मात्र किया उन्हें देशद्रोही, पाकिस्तान परस्त, शहरी माओवादी की उपाधियों से नवाज़ा गया।
दूसरी ओर मज़हबी गड़रिये सत्ता की गोद में बैठकर सांप्रदायिकता के लावे सुलगाते एवं धार्मिक अतिवाद की नई इबारत लिखते नज़र आए। उन्हीं मज़हबी आकाओं की सरपरस्ती में दिशाहीन आवारा भीड़ का निर्माण मुल्क के हर कोने में करने का प्रयास बदस्तूर जारी है। वतन के असल मुद्दों को ढककर हर तरफ मज़हबी प्रयोगशाला खुल रही है, जिससे आवाम अपने मसलों को बिसरा कर अपने-अपने धर्म की रक्षा में संलग्न रहे।
हाल ही में हुए घटना क्रम की ओर हम अपनी नज़र दौड़ाए तो पाते हैं कि मॉब लीचिंग की घटनाएं विगत 5 वर्षों में समान हो चली हैं। मज़हब के नाम पर भीड़ एकत्रित की जाती है फिर उस भीड़ को अल्पसंख्यक समुदाय के साथ बर्बरता करने की खुली छूट दे दी जाती है। ऐसी वारदातों को प्रशासन सिर्फ मूक दर्शक बनकर देखता रह जाता है क्योंकि जिनकी सरपरस्ती में ऐसी हिंसा को अंजाम दिया जाता है उनकी पैठ सत्ता के शिर्ष नेतृत्व तक देखी जा सकती है।
जब सरकारें भीड़ को काबू करने में विफल हो जाती हैं, तब मुल्क की जम्हूरियत की मयार अपने पतन की ओर अग्रसर होती है। लोकतंत्र पर भीड़तंत्र जब हावी होता है तब एक बीमार समाज का सृजन स्वतः हो जाता है। सबसे खौफनाक पहलू इन घटनाक्रम में जो हमारे समक्ष आता है, इन हत्यारों को देशभक्ती का लिबास पहनाया जाना एवं इनके गुनाहों को राष्ट्रप्रेम का दर्जा दिया जाना है।
जिस दहशत और धार्मिक असहिष्णुता का निमार्ण मौजूदा सत्ताधारी अपने सियासी लोभ से प्रेरित होकर कर रहे हैं उससे निश्चित ही खौफा का माहौल उत्पन्न हुआ है। उन तमाम बाशिंदों को डरना आवश्यक हो गया है जिन्होंने मज़हबी घाट का पानी नहीं चखा एवं आज तक धर्मनिरपेक्ष हिंदुस्तान की सुंदर छवि अपने भीतर संजोए रखी है।
हमने उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में हुई हिंसा को देखा, इस घटना में यूपी पुलिस के इंस्पेक्टर और एक शख्स की मौत हो गई। हमने देखा आरोपी अब तक प्रशासन की पहुंच से ना केवल फरार है अपितु अपने आप को वीडियो संदेश जारी कर निर्दोष भी घोषित कर रहा है। उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था का मखौल उड़ाने वाली यह कोई पहली घटना नहीं है।
देश में असहिष्णुता को लेकर फिल्म अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने अपने बयान में कहा
ये ज़हर फैल चुका है और दोबारा इस जिन्न को बोतल में बंद करना बड़ा मुश्किल होगा। खुली छूट मिल गई है कानून को अपने हाथों में लेने की। कई इलाकों में हम लोग देख रहे हैं कि एक गाय की मौत को ज़्यादा अहमियत दी जाती है, एक पुलिस ऑफिसर की मौत के बनिस्बत। मुझे फिक्र होती है अपनी औलाद के बारे में सोचकर, क्योंकि उनका मज़हब ही नहीं है।
देश के महान अदाकार नसीरुद्दीन शाह को देशद्रोही बताना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है और उनके वक्तव्य पर जो बेहूदी प्रतिक्रिया सामने आ रही है वो उन्हीं के अल्फाजों पर मोहर लगा रही है। हमें आदत है हमारे महानायकों को पूंजीपतियों के घर शादी में खाने परोसने की छवि में देखने की।
आज जब कोई कलाकार जम्हूरियत के खिलाफ हो रही साज़िश के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद कर रहा है, उसे देशद्रोही बताना एक फूहड़ मज़ाक लगता है। अगर नसीरुद्दीन शाह देशद्रोही हैं तो क्या देशभक्त इंस्पेक्टर सुबोध के कातिल हैं जो प्रशासन की पहुंच से अब तक फरार हैं।
देशद्रोह और देशप्रेम की बहस जब इस मुकाम पर आ पहुंची है, जहां हम हर दूसरे चेहरे में कोई देशद्रोही देखना चाहते हैं, तब शायद हमें अपनी प्राथमिकताएं तय कर लेनी चाहिए, क्योंकि बीच का कोई रास्ता हमारे लिए शेष रह नहीं जाता है। हमें यह तय करना होगा कौन है देशद्रोही, वे हत्यारे जिनकी हिंसा का शिकार बुलंदशहर में इंस्पेक्टर सुबोध को होना पड़ा और उनके सियासी संरक्षण प्रदान करने वाला खोखला प्रशासन या फिर वे आवाज़ें जो हिंसा के पीड़ितों के इंसाफ के हक में आवाज़ें उठा रही हैं।
एक सज्जन ने नसीरुद्दीन शाह के लिए पाकिस्तान का टिकट काटकर सुर्खियां बटोरी पर वो जनाब उन दंगाइयों को कौन सा देश मुकर्रर करेंगे जिन्होंने अपने हाथ मासूमों के खून से रंगे हैं। क्या वह उनके लिए भी किसी देश का टिकट काटने की फिराक में बैठे हैं या फिर वह अपने ही संकीर्ण मानसिकता एवं अल्पसंख्यकों के प्रति पूर्वाग्रहों के शिकार हैं।
अल्पसंख्यकों के प्रति पूर्वाग्रह रखने वाला कुनबा ही है, जिन्होंने नसीरुद्दीन शाह के खिलाफ अजमेर लिटरेचर फेस्टिवल के बाहर विरोध प्रदर्शन कर उनका कार्यक्रम रद्द करवा दिया। दिलचस्प बात यह है कि यह कुनबा तब खामोश रहता है जब अखलाक के हत्यारों को मरणोपरांत तिरंगे में लपेट कर शहादत का दर्जा दिया जाता है। क्या अखलाक के हत्यारे देशभक्त थे? यही कुनबा है जो कठुआ में 8 साल की बच्ची के बलात्कारियों के समर्थन में तिरंगा यात्रा निकालता है।
इनके छद्म राष्ट्रवाद के पीछे खौफनाक साम्प्रदायिक चेहरा छुपा है। कौन भूल सकता है केंद्रीय मंत्री द्वारा लिंचिग मामले में जमानत पर बाहर आए आठ दोषियों के माल्यार्पण कर स्वागत करना। इस शर्मनाक कृत्य को वो छद्म राष्ट्रवादी कुनबा किस श्रेणी में रखना चाहेगा? आज तक उनकी निंदा भी नहीं की गई इनके तथाकथित स्वघोषित देशभक्तों द्वारा।
इसमें भी कोई आश्चर्य की बात नहीं कि जिन दंगाईयों को सरकार आज मालाएं अर्पण कर रही हैं कल चलकर वे किसी प्रदेश की गद्दी संभालने के योग्य हो सकते हैं। गद्दी संभालने के बाद वही हमें वतनपरस्ती की परिभाषा भी समझाएंगे।