दलितों का सैकड़ों सालों से शोषण होता आ रहा है जिसके विरोध में हमेशा से आवाज़ें उठती रही हैं। उत्तर वैदिक युग में वर्ण व्यवस्था के खिलाफ जैन तथा बौद्ध धर्म को विकसित किया, मध्य युग में कबीर, चैतन्य, वल्लभाचार्य और रामानुज ने ऊंच-नीच की आलोचना की। गुरुनानक ने जाति व्यवस्था के विरोध में ही सिख धर्म की स्थापना कर दी। वही 20वीं सदी में स्वतंत्रता आंदोलन के अन्तर्गत महात्मा गाँधी और भीमराव आंबेडकर ने जातिगत असमानताओं का खुलकर विरोध किया।
जाति प्रथा के खिलाफ लगातार हो रहे शोषण के बावजूद भी यह हमारे समाज का हिस्सा बन गया है। अब तो दलित शब्द के ज़रिए राजनीति भी होने लगी है। दलितों के नाम पर राजनेता वोटों की भीख मांगते हैं लेकिन दलितों की स्थिति सुधारने के लिए उनका रवैया शून्य ही रहता है।
भारतीय समाजशास्त्री एमएन श्रीनिवास का कहना है, “यदि आप सोचते हैं कि भारत में आसानी से जाति विभाजन से मुक्ति पाई जा सकती है तब आप एक बड़ी गलती कर रहें हैं। जाति बहुत शक्तिशाली संस्था है और समाप्त होने से पहले यह काफी खून खराबा कर सकती है।”
यदि भविष्य में शिक्षा तथा सामाजिक जागरूकता में वृद्धि होगी तथा राजनितिक पार्टियां गुटबाज़ी से ऊपर उठकर सिद्धांतों पर आधारित राजनीति के प्रति जागरूक होंगे तब जाति प्रथा का असमानताकारी और शोषणकारी रूप समाप्त हो सकता है।
महात्मा गाँधी ने इन तथाकथित जातियों को हरिजन तथा आंबेडकर और ज्योतिबा फुले ने दलित कहा। वही सन् 1931 की जनगणना के अध्यक्ष जे.एस. हट्टन ने इन जातियों को ‘बाहरी जाति’ कहा। उनका तर्क यह था कि हिन्दू समाज का अंग होते हुए भी उन्हें उच्च जातियों के हिंदुओं के समान कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। ऐसे में उन्हे हिंदू समाज से बाहर की जाति मानना उचित है।
12 और 13 जनवरी सन् 2002 को भोपाल में दलित बुद्धिजीवियों का महासम्मेलन हुआ था जिसमें 21 सूत्री घोषणा पत्र तैयार किया गया। इस घोषणा पत्र में सरकार से यह मांग की गई कि प्रत्येक दलित परिवार को खेती के लिए पर्याप्त कृषि भूमि दी जाए, अनुसूचित जातियों के खेतिहर मजदूरों और स्त्रियों को समुचित मज़दूरी देने के लिए सख्ती से कानून लागू किए जाएं और दलितों की ज़मीनों पर होने वाले अवैध कब्ज़ों को कड़ाई से रोका जाए।
यही नहीं बंधुआ मज़दूरों तथा दलितों के बीच बाल मज़दूरी को तुरंत समाप्त किया जाए, दलितों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के प्रावधान को व्यावहारिक रूप से लागू किया जाए, दलित महिलाओं को ‘विशेष महिला श्रेणी’ में सम्मिलित किया जाए, अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम 1989 को कड़ाई से लागू किया जाए, सभी राज्यों में दलितों की आबादी के अनुसार विकास की राशी आवंटित हो।
दलितों के व्यवसाय जातीय संरचना के आधार पर सामान्य रूप से पूर्व निर्धारित होते हैं। उन्हें नालियां साफ करने और मैला ढोने जैसा व्यवसाय चुनना पड़ता है जो कि उनके पूर्वज कर रहे थे। मौजूदा वक्त में ज़रूरत है कि सरकारें कम-से-कम ‘प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना’ के लाभ से उन्हें जोड़ें या फिर ‘कुटीर’ तथा ‘गृह उद्योगों’ की स्थापना के लिए अधिक से अधिक योगदान दें।
शिक्षा के अभाव में अधिकांश दलितों को गाँव के सवर्ण महाजनों से अधिक ब्याज़ दर पर लोन लेना पड़ता है और जब वे कर्ज़ चुका नहीं पातें है तब उनकी ज़मीने या ज़रूरी चीजे़ें गिरवी रख ली जाती है। सरकार तथा रिज़र्व बैंक को चाहिए कि गाँवों में बहुत कम ब्याज़ दरों पर दलितों को लोन दिया जाए। दलितों पर अत्याचार की लगातार बढ़ती घटनाओं के बीच ज़रूरी है कि ‘फास्ट ट्रैक कोर्ट’ के ज़रिए मामलों की जल्द सुनवाई हो।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इन जातियों में कई लोग उच्च पदों पर पहुंच गए हैं तथा उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति काफी सुधर चुकी है, फिर भी वे आरक्षण तथा अन्य सरकारी योजनाओं का लाभ उठा रहे हैं। ऐसे में सरकार की कोशिश होनी चाहिए कि इन लोगों को आरक्षण का लाभ ना देकर दलितों में जिनकी आर्थिक स्थिति खराब है, उनके बेहतरी के लिए कुछ किया जाए।
मैला ढोने की अपमानजनक प्रथा को समाप्त किया जाए तथा दलितों को दी जाने वाली सभी तरह की सुविधाओं का निष्पक्ष मुल्यांकन हो। यदि वास्तव में इन योजनाओं को ठीक प्रकार से लागू किया जाए तब दलितों की स्थिति में काफी हद तक सुधार हो सकता है। हमारी सरकारें दलितों के अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं हैं।
मैला ढोने की प्रथा संविधान द्वारा निषेध होने के बावजूद भी रेलवे अपने कर्मचारियों से रेलवे ट्रैक पर पड़े मल साफ करवाता है। मैला ढोने की प्रथा के खिलाफ सरकार को सख्ती बरतने की आवश्यकता है। भारत में सीवर में मरने वालों की संख्या में लगातार इज़ाफा हो रहा है। इसके लिए सीवर की सफाई के अत्याधुनिक साधनों की आवश्यकता है।
कई दलित परिवारों के बच्चे अभी भी मैट्रिक के बाद की पढ़ाई नहीं कर पाते हैं। एक तरफ जहां केन्द्रीय कर्मचारियों के बच्चों के लिए केन्द्रीय विद्यालय हैं, सैनिकों के बच्चों के लिए सैनिक स्कूल हैं, गाँव के मेरिट वाले बच्चों के लिए नवोदय विद्यालय हैं और सामान्य बच्चों के लिए नगर निगम के स्कूल हैं। ऐसे में दलितों के बच्चों के लिए शिक्षा की बेहतर व्यवस्था होनी चाहिए।
प्राइवेट स्कूलों की तो बात ही छोड़ दीजिए जहां अंतरराष्ट्रीय मानकों के आधार पर पढ़ाई हो रही है। इससे एक तरह की असमानता हम लोगों ने ही पैदा कर दी है। समाज का एक विशेष आर्थिक स्थिति वाला व्यक्ति ही अपने बच्चों को यह शिक्षा दे पा रहा है और बाकी के लिए सरकारी पाठशालाएं हैं।
हम अच्छे स्कूलों को खत्म ना करें लेकिन आम लोगों के लिए उपलब्ध शिक्षा व्यवस्था को यदि बेहतर बना सकें तब गरीब तबकों और दलितों के बच्चे भी दूसरों के समान शिक्षा ग्रहण कर पाएंगे।
नोट: लेख में प्रयोग किए गए तथ्य डॉ. गोपाल कृष्ण अग्रवाल की समाजशास्त्र किताब से ली गई है।