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“हत्या के लिए भीड़ को अब नेता नहीं न्यूज़ चैनल उकसा रहे हैं”

2018 की समाप्ति होते-होते देश पर जो संकट मंडरा रहा है वह संविधान का चौथा स्तम्भ कहलाया जाने वाला मीडिया है। पढ़कर चौंकने की ज़रूरत से ज़्यादा हमें आस-पास देखने और परखने की ज़रूरत है।

आज का माहौल खराब नहीं निंदनीय है। संविधान की शपथ लिए बैठे नेता तो बेकार हो ही गए हैं लेकिन मीडियाकर्मियों की गलती आज देश के लिए घातक सिद्ध हो रही है। बुलंदशहर की घटना चौंका देने वाली इसलिए भी है क्योंकि अब भीड़ से पुलिस भी सुरक्षित नहीं है।

बीते दिन एसएचओ सुबोध कुमार सिंह को गो रक्षकों ने गोली मार दी। सुबोध कुमार एक इन्स्पेक्टर थे और विशेष रूप से वह अखलाक के केस से जुड़े हुए थे। हिन्दू-मुस्लिम बहस ने अब पुलिस को भी नहीं बख्शा और इसका श्रेय किसी नेता के माथे पर नहीं मीडिया को ही जाता है।

इंस्पेक्टर सुबोध। फोटो सोर्स- सोशल मीडिया

मीडिया का काम दूरदर्शन से शुरू हुआ और देश की दूरदर्शिता तक पहुंच चुका है। देश के तमाम मीडियाकर्मी संविधान का रोज़ मज़ाक उड़ाते हुए जनता को गुमराह करते जा रहे हैं। निरंतर बहस का मुद्दा हिन्दू-मुस्लिम पर किया जा रहा है और फर्ज़ी राष्ट्रवाद का झण्डा पुरज़ोर रूप से लहराया जा रहा है।

भारत की पहचान एक धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में थी और कुछ पैसों के लिए देश की पहचान को छिन्न-भिन्न किया जा रहा है। आज खबरें सुनाई नहीं जाती बल्कि ज़बरदस्ती का संदेश लोगों के कानों में डाला जा रहा है। देश के अधिकांश लोग टेलीविज़न के माध्यम से ही खबरों का जायज़ा लेते हैं लेकिन मीडिया एक घातक माध्यम बन रहा है।

एक मुस्लिम की पहचान केवल उसकी दाढ़ी व टोपी से तो हुआ करती थी लेकिन उसके खाने को लेकर भी बार-बार बहस की जा रही है। अखलाक की हत्या केवल इसलिए हुई क्योंकि वो मुसलमान था और देश का चौथा स्तम्भ उसकी हत्या पर नहीं उसके मज़हब को लेकर बात कर रहा है और केवल बात नहीं हंस रहा है, हाथ पीटता है या कभी एक हिंदू पंडित को उठाकर बहस करा देता है। जनता बेवकूफ नहीं है लेकिन उसे बनाया जा रहा है।

अगर बात करें तो मुख्य रूप से जिनका नाम इस बेकार की बहस को लाने में है तो वे नाम हैं, अमिश देवगन, रोहित सरदाना, रुबिका लियाकत, सुधीर चौधरी, अंजना ओम कश्यप, राहुल शिवशंकर, नविका कुमार, सुरेश चव्हाणके। रोहित सरदाना का दंगल जिसपर बहस कभी रोहिंग्या मुसलमानों पर होती है तो कभी लव-जिहाद को प्रोमोट किया जाता है और बताया जाता है कि यह बहस कितनी सही है और बाकी ज़रूरी मुद्दे कितने गैरज़रूरी।

अमन चोपड़ा का प्रोग्राम जो कि पहले रुबिका लियाकत भी होस्ट करती थीं उसपर भी हनुमान की जाति तो कभी राम मंदिर पर यह दोनों पत्रकार टेबल पीटते दिखते हैं। यह जानलेवा ज़हर रोज़ आपके टेलीविजन के माध्यम से आपके दिमाग में डालते हैं।

लगभग हर एंकर चाहे वो नविका कुमार हो या अंजना ओम कश्यप, कोई भी इसमें पीछे नहीं हैं। पार्टी के प्रवक्ता को लाना और उनसे सरे आम गाली गलौज़ करना या मौलाना या पाकिस्तान भेज देने जैसे शब्दों का इस्तेमाल करना, आम बात हो गई है। कभी यह एंकर जानबूझकर एक पंडित और दूसरी ओर मौलाना या मौलवी को लाते हैं ताकि बहस को हिन्दू-मुस्लिम के इर्द-गिर्द रखकर टीआरपी बटोरी जाय।

ये पत्रकार नहीं केवल दंगाई का काम कर रहे हैं और ये लोग रोज़ टेलीविज़न पर देश की धर्मनिरपेक्षता की छवि को ऐसी खाई में खदेड़ रहे हैं जिसके कारण कई लोग इसमें झुलस चुके हैं और कुछ आगे भी झुलसे जाएंगे।

देश के लोगों को अब जंतर-मंतर पर प्रदर्शन ना करके मीडिया के दफ्तरों में जाकर करना चाहिए। देश के सबसे बड़े गुनहगार नेता नहीं बल्कि ये सब हो गए हैं क्योंकि नेता केवल कुछ रैलियों तक सीमित हैं लेकिन ये आपके घर रोज़ दस्तक देते हैं। ये कभी हिन्दू-मुस्लिम पर चीखते हैं कभी लव-जिहाद जैसे बेबुनियद मुद्दों पर बहस करते हैं। किसी पार्टी के प्रवक्ता जैसे ये पेश आते हैं और फर्जीवाड़ा फैलाते हैं।

125 करोड़ देशवासियों को तय करना है कि इस खाई से अपने आप को निकाले और सही राह चुने। देश के पास ज़रूरी मुद्दे जैसे शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य होने चाहिए लेकिन वह अपने आपको इस बहस का सहभागी बना रहा है। प्रदर्शनकारियों से उम्मीद है अब वो संसद का नहीं मीडियाकर्मियों के दफ्तरों की ओर अपना रुख करेंगे।

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फोटो सोर्स- सोशल मीडिया

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