अभी-अभी मैं हॉस्टल (गया में दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय) के मेस से खाना खाकर लौटा हूं। मन हुआ कि कुछ लिखा जाए। लैपटॉप पर उंगलियां बार-बार कुछ लिखकर मिटा दे रही हैं। आज कुछ-कुछ सच्चा लिखने का मन हुआ, कुछ ऐसा जो हमारे आस-पास रोज़ चलते रहता है पर हम ध्यान नहीं देते।
बहरहाल, मेस से शोर की आवाज़ आ रही है, यह शोर अब मुझे परेशान नहीं करता। मुझे परेशान करती है यहां के रसोइयों और कामगारों की वो खामोश आंखें जिनमें आशा की कोई किरण नहीं है। मैंने सुना है कि पिछले तीन महीनों से मेस के कर्मचारियों को वेतन नहीं मिला है। यह खामोश आंखें शायद उसी वेतन की बाट खोजती हैं।
कुछ दिनों पहले मैंने सुना एक रसोइये को अपने घर पर बात करते हुए, 500 रुपये तक नहीं थे उसके पास अपने घर भेजने को। अब ज़रा सोचिये, हमारे-आपके लिए 500 रुपये का क्या मतलब है? एक वक्त का पिज्ज़ा या किसी फिल्म का टिकट? मैंने उन लोगों में से एक से पूछा भी कि भैया यहां पैसे नहीं मिलते तो काम छोड़ क्यों नहीं देते? जवाब में उसने जो कहा वो हम सबको सुनना और समझना चाहिए, “भैया अगर हम घर चले गए तो क्या होगा? एक आदमी और बढ़ जाएगा खाने के लिए। यहां कम से कम खाना तो नसीब होता है।”
उसका यह जवाब हमें बाताता है कि आज हमें मंदिर-मस्जिद से ज़्यादा ज़रूरत है रोज़गार के अवसर पैदा करने की। रोज़गार की स्थिति हमारे देश में कमोबेश मंदिर वाली ही है। वो भी नहीं बन रहा है, यहां भी कुछ काम नहीं बन रहा है।
फिलहाल जो रोज़गार है, उनमें सही से लेबर लॉ की धाराएं अमल में नहीं लाई जाती। जब पेट में खाने को कुछ नहीं हो तो कानून क्या ही समझ आता है? हमारे देश में ऐसे हज़ारों हॉस्टल हैं, जहां ऐसे हज़ारों कामगार काम करते हैं।
हमें लगता है कि मेस का खाना सही क्यों नहीं बन रहा है? हम सारा ध्यान खाने पर ही लगा देते हैं, अगर खाना बनाने वाले पर ज़रा भी ध्यान देकर देख लें तो शायद सारी कहानी समझ आ जाए।
असल में रोज़गार के दो दर्जे होते हैं। एक होता है वह दर्जा जिसमें कानून की सारी धाराएं अमल में लाई जाती हैं। दूसरा दर्जा वह दर्जा है जिसमें कोई कानून नहीं होता। यह वही दर्जा है जहां आते-आते कानून की सारी धाराएं दम तोड़ देती हैं। यह बंधुआ मज़दू़री से थोड़ा ही कम है, या शायद यूं कहे कि यह बंधुआ मज़दूरी का ही दूसरा संस्करण है।
इसी मज़दूरी का दूसरा संस्करण है, असंगठित क्षेत्र के ऐसे मज़दूर जिन्हें कोई भी हक नहीं मिला, ना तो हमारे कानून से ना ही इस समाज से। ऐसे लोग रोज़गार की खोज में अपने क्षेत्र से पलायन कर जाते हैं पर मनमाफिक काम ना मिलने के बावजूद पलायन किये गये क्षेत्र में रुके रहना इनकी मजबूरी बन जाती है।
वक्त के थपेड़ों के आगे बेबस होकर यह लोग जहां जो काम मिला करने में जुट जाते हैं। मैं कानून का छात्र हूं। लेबर लॉ पढ़ा हूं और मैं यह बात दावे के साथ कह सकता हूं कि मज़दूरों की स्थिति हमारे देश में आज भी वही है जो 70 साल पहले थी। हम आज़ाद तो हो गए पर आर्थिक रूप से आज भी हम गुलामी पूर्ण मानसिकता के शिकार हैं।
असंगठित क्षेत्र के कामगारों को आज भी मूलभूत हक नहीं मिले हैं और उनका ये हक कोई और नहीं, हम और आप जैसे आम लोग ही मारते हैं। याद कीजिए कि आपने आखिरी बार कब अपनी हाउस हेल्पर से या अपने घरेलू कामगारों से उसका हाल चाल लिया था? बड़े शहरों को छोड़ दें तो ज़्यादातर जगहों पर इन्हें न्यूनतम आय भी नहीं नसीब है। ये लोग अपने मेहनत से हमारा संसार रचते हैं। अगर इन लोगों की हकमारी होती है तो ये पूरी इंसानियत पर एक सवालिया निशान लगाता है।
मैंने एक इंटर्न के रूप में कई सारी गैर-सरकारी संस्थाओं में काम किया है। इस दौरान मैंने और मेरी टीम ने कई सारे सर्वे किए, जिनसे यह साफ सबित होता है कि आज भी असल न्यूनतम मज़दूरी दर सरकारी दर से कई फीसदी कम है। वर्ष 2017 में मैं दिल्ली की मशहूर गैर-सरकारी संस्था ‘गूंज’ में फेलोशिप कर रहा था। फेलोशिप के दौरान मुझे अपने बॉस रेमन मैग्सेसे अवार्डी श्री अंशु गुप्ता से इस विषय में भी कई बार बातचीत करने का अवसर मिला। उनकी राय में सारी ज़िम्मेदारियां सरकार पर नहीं छोड़ी जा सकती बल्कि आम नागरिकों को भी कुछ कदम बढ़ाने होंगे।
गूंज एक संस्था के रूप में दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में ‘शहरी गरीबी’ की समस्या को लेकर काफी काम कर रही है। मुझे याद है जब लोगों से जमा किये गए कपड़े और अन्य सामान हम झुग्गियों में बांटने जाते थे तो वहां रौनक बढ़ जाती थी। वहां मुझे पहली बार एहसास हुआ कि इस देश में इतनी ज़्यादा गरीबी है कि किसी के उतारे हुए कपड़े, किसी की उतरन भी किसी के काम आ जाती है।
यह घोर विडंबना नहीं तो और क्या है कि जिस देश की जनता का एक बड़ा हिस्सा आज भी झुग्गीनुमा कस्बों में जूठन के ढेर पर अपना जीवन गुज़ारने को विवश है उस देश में 3000 करोड़ की बेजान मूर्ति लगाई जा रही है। हम अगर यह 3000 करोड़ रुपये वहां मूर्ति लगाने के बजाय किसी फैक्टरी या रोज़गार निहित योजना बनाने में लगाते तो आज रात वे कितने ही घर जो ठंडे चूल्हे के साथ सोये हैं, शायद भूखे पेट ना सोते।
कभी-कभी तो लगता है कि कौन खुश है इस देश में? ना हमारे अन्नदाता किसान खुशहाल हैं ना ही हमारे विश्वकर्मा समरूप मज़दूर। सामाजिक न्याय की सारी बातें तब बेमानी लगने लगती हैं जब आपको एहसास होता है कि दूर कहीं कोई कड़ाके की ठंड में फूटपाथ पर भूखे पेट लेटा होगा और इस एहसास के साथ जो विवशता और खीज आप अपने अंदर महसूस करते हैं असल में वही एक खीज आपको और हमको इंसान बनाए रखती है।
बहरहाल, सच्चाई तो यही है कि राम राज्य की कल्पना करते-करते हम आज उस दोराहे पर खड़े हैं जहां ना माया मिल रही है ना राम।