एडिटर्स नोट- यह लेख पहले Ichowk पर प्रकाशित किया जा चुका है
राजस्थान में कई दशकों से ऐसे मुद्दे हैं जो आज तक सुलझ नहीं पाए। कर्ज़ में दबे किसानों की हालत बद से बद्तर होती जा रही है, वो आत्महत्याएं कर रहे हैं। वहीं ज़्यादातर परिवार जो ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं उनकी पीढ़ियों के लिए अच्छी गुणवत्ता और बेहतर इनफ्रास्ट्रक्चर वाले स्कूलों की कमी। कई स्कूल ग्रामीण क्षेत्र की पहुंच से दूर हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित स्कूलों का इनफ्रास्ट्रक्चर और गुणवत्ता ऐसी नहीं है कि भविष्य में मुंह खोले खड़ी बेरोज़गारी से देश के भविष्य को बचाया जा सके। इन मुद्दों पर राजनीति होती है, सत्ता और विपक्षी दल एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते हैं जो जनता में अविश्वास को पनपाता है।
पिछले कुछ वर्षों के विधानसभा चुनावों के नतीजों पर नज़र डालें तो यह साफ तौर पर सामने आता है कि हर टर्म के बाद सरकार का बदलना जारी है। राज्य में 200 विधानसभा सीटें हैं। वर्ष 2003 में 120 सीटें भाजपा ने जीतीं तो कांग्रेस के पास 56 सीटें आईं और बाकी पर अन्यों ने जीत दर्ज की। वर्ष 2008 में कांग्रेस का प्रदर्शन सुधरा और करीब 96 सीटों पर विजय प्राप्त की तो वहीं भाजपा की झोली में करीब 78 सीटें आईं। वर्ष 2013 में भाजपा ने 162 सीटों के साथ भारी भरकम जीत दर्ज की। वहीं काँग्रेस के पास 21 सीटें ही रह गईं। इन परिणामों में कभी भाजपा सरकार बनाती है तो कभी काँग्रेस। हर पांच साल में कार्यकाल पूरा होने के बाद होने वाले चुनावों में कांग्रेस या भाजपा, दोनों में से एक पार्टी सत्ता पर काबिज़ हो जाती है।
राजस्थान में सरकार बदलने का सिलसिला इस तरह क्यों है जैसे कोई मनुष्य अपना वस्त्र धारण कर उसके बाद दूसरा वस्त्र धारण करता है। इस सवाल के जवाब में हमें थोड़ा मानवीय अर्थशास्त्र को समझना होगा। हर मनुष्य अपनी सूझ-बूझ से चीज़ों को चुनता है लेकिन एक ऐसा समय आता है जब वो उससे असंतुष्ट होता प्रतीत होता है। यही असंतुष्ट होने की प्रक्रिया ही राजनीतिक पार्टी के चुनाव में राजस्थान में अहम भूमिका निभाती है। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि सिर्फ यही एक कारण है। दरअसल, मूल कारण तो उस संतुष्टि की वजहों में छिपा है। मूल कारणों को जानने के लिए हमें जनता की असंतुष्ट होने की वजहों को टटोलना होगा।
पहली वजह
राजस्थान की करीब 7 करोड़ जनसंख्या में से करीब 75 फीसदी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है, जिसके लिए बेहतर स्कूली शिक्षा नहीं है। ज़्यादातर जनसंख्या का जीवन यापन करने का ज़रिया खेती है। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले किसानों की खेती ग्लोबल वार्मिंग के चलते लगभग बर्बाद हो चुकी है। अच्छी उत्पादकता के लिए किसानों को इतना रुपया खर्च करने के साथ ही मेहनत लगानी पड़ती है कि उसकी तुलना में फसल की वाजिब कीमत मंडी में उन्हें नहीं मिल पाती। मिल भी पाती है तो लागत तक वसूल नहीं हो पाती। मजबूरन किसानों को कर्ज में दबना पड़ता है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2017 के दौरान दो माह के भीतर ही 8 किसानों ने आत्महत्या की। वहीं इस रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2017 के बजट सत्र के दौरान गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने बताया था कि 2008 से 2015 तक 2870 किसानों ने आत्महत्या की है। हालांकि वर्ष 2015 में आत्महत्या की संख्या तीन बताई। जो घटता हुआ है लेकिन इसके विपरीत देखा जाए तो वर्ष 2017 में दो माह के भीतर 8 किसानों ने आत्महत्या कर ली।
दूसरी वजह
दैनिक भास्कर की इस रिपोर्ट के अनुसार राजस्थान राज्य में 50 हज़ार 993 स्कूलों में 36 लाख 48 हजार 994 छात्र पढ़ते हैं। 36 लाख छात्रों की आबादी पर करीब 50 हज़ार स्कूल और भी ऐसे राज्य में जो क्षेत्रफल के मामले में सबसे बड़ा है। एक तो स्कूलों की कमी और ग्रामीण इलाकों से स्कूलों का दूर होना और एक ही छत के नीचे खराब इंफ्रास्टक्चर के कारण छात्र प्रोत्साहित नहीं हो पाते।
इससे राजस्थान राज्य में अभिभावकों सहित दूसरे राज्य की ओर पलायन करना बदस्तूर जारी है। कुछ अच्छी शिक्षा के लिए तो कुछ रोज़गार के लिए। कई किसान खेती को मजबूरन छोड़कर अन्य विकल्प तलाशते हैं। ये उन्हें असंतुष्ट करता है जिसका परिणाम सरकार में काँग्रेस और भाजपा की रेस में किसी एक की जीत का कारण भी बनता है।
तीसरी वजह
काँग्रेस और भाजपा के अलावा राजस्थान में कोई तीसरी पार्टी का अस्तित्व नहीं है। दशकों से काँँग्रेस और भाजपा ही राजस्थान की राजनीतिक ज़मीन पर योद्धा साबित हुए हैं। कोई तीसरा विकल्प राजस्थान में अभी तक उभरकर सामने नहीं आया है। इन्हीं दोनों विकल्पों में जनता बेहतर विकल्प तलाशती है, जिससे इन दोनों पार्टियों में से किसी एक का सत्ता में आना तय होता है। ऐसे में पार्टियों के भीतर ही गुटबाज़ी शुरू हो जाती है।
ये गुटबाज़ी मुख्यमंत्री बनने की रेस के लिए होती है। काँग्रेस में अशोक गहलोत और सचिन पायलट होता है तो भाजपा में वसुंधरा राजे सिंधिया बनाम गुलाब चंद कटारिया और अशोक परनामी। इन गुटबाज़ियों के चलते लोगों में अलग-अलग विचार बनते हैं, जिसका नतीज़ा वोट प्रतिशत के विभाजन के तौर पर नज़र आता है।
चौथी वजह
राजस्थान में जातिवाद भी एक अहम मुद्दा है। जिसको कुछ दिनों पहले अशोक गहलोत ने हवा दी थी। एक वीडियो में अशोक गहलोत ने भाजपा की वरिष्ठ लीडर और वर्तमान मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पर आरोप लगाया था कि वे जातियों के हिसाब से लोगों से बात कर रही हैं और जातिवाद को भड़का रही हैं।
राजस्थान में आरक्षण भी एक मुद्दा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार देश में कुल आरक्षण अधिकतम 50 फीसदी तक ही दिया जा सकता है। जिसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग शामिल है। गुर्जर, बंजारा, लुहार, रायका और गड़रिया से आने वाले नेता लगातार अपने-अपने समाज के लिए आरक्षण की मांग करते आए हैं। लेकिन सरकार के लिए सुप्रीम कोर्ट का 50 फीसदी वाला नियम मुश्किल का सबब बना हुआ है।
इससे पहले राजस्थान सरकार ने आरक्षण से जुड़ा एक विधेयक पास कर अन्य पिछड़ा वर्ग के 21 फीसदी आरक्षण को 26 फीसदी कर दिया था। लेकिन इस पर कोर्ट के आदेश से रोक लग गई, इसे लागू नहीं किया जा सका। इस आरक्षण के मुद्दे को लेकर हर विधानसभा चुनावों में राजनीति गर्मा जाती है। इससे उस समय की सरकार चला रही पार्टी के प्रति नकारात्मक विचार बन जाता है, जिसका नतीजा चुनाव परिणामों में दिखता है।
पांचवी वजह
धार्मिक हिंसा भी मत विभाजन और हर टर्म में विकल्पों के आभाव के बावजूद अदला-बदली सरकार का कारण बन रही है. मुस्लिम समुदाय और हिंदू समुदाय अलग-अलग राजनीतिक विचार रखते हैं। ऐसे में कोई तीसरी मजबूत पार्टी नहीं उभर पाने की वजह से जनता के सामने कांग्रेस और भाजपा के रूप में ही दो विकल्प बचते हैं। राजस्थान में मोहम्मद अफराजुल की हत्या धर्म विशेष के नाम पर हिंसा का ताज़ा मामला है।
अफराजुल की हत्या में शामिल शंभूलाल रैगर ने इसे लव जिहाद कहकर धार्मिक नफरत फैलाने की कोशिश की थी। इसी कड़ी में पशुपालक पहलू खान की हत्या भी कर दी गई थी। ये हत्या गोररक्षकों ने पहलू खान पर गाय हत्या के शक में की थी।
काँग्रेस ने भाजपा पर आरोप लगाए तो वहीं भाजपा के नेताओं का रुख इन हत्याओं के विरोध में सख्त नहीं दिखाई दिया। जब ये मामला राजनीतिक स्तर पर नहीं सुधरा तो सुप्रीम कोर्ट ने गाय हत्या पर हिंसा को रोकने के लिए राजस्थान सहित कई राज्यों को आदेश देकर स्थिति को काबू में रखने को कहा
यही वजहें राजस्थान में जनता की असंतुष्टि का कारण है और इसी का नतीजा है कि हर पांच साल बाद सरकार की कमान कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा के पास चली जाती है। कुल मिलाकर सरकार के पास सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को सस्ता उपलब्ध कराने का मुद्दा भुनाने के लिए बचता है तो उसकी कसर चिकित्सकों की हड़तालें पूरा कर देती हैं।