जुलाई 2017 की शुरुआत में ही, कश्मीर में अमरनाथ यात्रियों से भरी बस पर एक आंतकवादी गुट ने हमला कर दिया। गनीमत यह रही कि किसी भारी जान-माल के नुकसान होने से यहां बचाव हो गया। वहीं हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री जी ने इस हमले के कुछ ही समय बाद कुल मिलाकर 4 ट्वीट किये, जहां उन्होंने इस हमले की कड़ी निंदा करने के साथ-साथ इस कार्यतापूर्ण हमले के सामने भारत के ना झुकने का हवाला भी दिया।
इन्हीं रोज़ मीडिया के कैमरे इस खबर के इर्द-गिर्द ही घूमने लगे। कश्मीर से लेकर गुजरात तक, जहां की यह बस थी, हर एक छोटी से बड़ी खबर को मीडिया कैमरा जू़म करके दिखाने लगा। कुछ समय बाद गुजरात में विधानसभा के चुनाव होने वाले थे। अब इस आतंकवादी हथियारबंद हमले का गुजरात राज्य चुनाव से कोई मेल करना वास्तव में कोई औचित्य नहीं रखता। फिर भी एक ज़मीन से जुड़ा हुआ इंसान जो हर घटना को अपनी मानसिकता में पिरो लेता है और उसका विश्लेषण करके अपने सार्वजनिक हितों की पैरवी करता है उसके लिये बार-बार इस हमले को टीवी पर देखना वास्तव में क्या असर रखता होगा?
कश्मीर में जहां यह हमला हुआ वो आंतकवादी गुट मुसलमान बताये जा रहे थे, वहीं बस में सवार यात्री हिंदू थे और गुजरात जहां चुनाव होने थे इस प्रदेश की बहुताय आबादी हिंदू है।
इस साल फरवरी में सेना प्रमुख बिपिन रावत ने असम की एक राजनीतिक पार्टी ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के संबंध में कहा था,
इस पार्टी को गैर कानूनी तरीके से भारत में आये मुसलमान समुदायों का समर्थन है और यह भी एक वजह है कि असम के कई ज़िलों में मुस्लिम आबादी बहुताय हो गई है।
इस तरह के बयान भूतकाल में किसी सेना प्रमुख ने दिये हो, ऐसा मेरी व्यक्तिगत जानकारी में नहीं है। ऐसा क्या हो रहा है और क्या वजह है कि श्री बिपिन रावत बतौर सेना प्रमुख देश के राज्य के अंर्तगत मामलों पर सार्वजनिक रूप से टिप्पणी कर रहे हैं और एक राजनीतिक पार्टी पर दोष लगा रहे हैं, जिसे भारतीय चुनाव आयुक्त ने मान्यता दी है। जिसके चुने हुए सासंद लोकसभा में मौजूद हैं।
अब हाल ही में पंजाब में, हमारे थल सेना के प्रमुख यह बयान सार्वजनिक रूप से देकर आये थे कि चाहे पंजाब पिछले दशकों से शांत है लेकिन यहां अभी भी आंतकवाद के पनपने की गुंजाइश को चिंगारी मिलती रहती है। इनका इशारा हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान की ओर था और ज़ोर इस बात पर दिया गया कि कश्मीर के आंतकवादी संगठनों के साथ मिलकर कुछ पंजाब के आंतकवादी संगठन पंजाब में कोई वारदात को अंजाम दे सकते हैं।
इससे पहले भी कई बार प्रेस द्वारा पूछे जाने पर भूतपूर्व सेना अध्यक्ष बस इतना कहने तक सीमित रहते थे कि उनके पास खुफिया जानकारी है। वैसे अमूमन सेना अध्यक्ष सार्वजनिक रूप से खुद को कम ही पेश करते रहे हैं, अगर कुछ जानकारी मीडिया के साथ साझी करनी है, तो सेना के प्रवक्ता मौजूद रहते हैं।
कहने का तात्पर्य है कि तत्कालीन सेना अध्यक्ष ने जिस तरह पंजाब पर चिंता सार्वजनिक रूप से व्यक्त की है वह सेना अध्यक्ष के पद पर रहते हुए कितना योग्य है? मसलन क्या इस तरह के तथ्य राज्य सरकार, राज्य पुलिस, खुफिया विभाग के साथ साझे करने की ज़रूरत होती है? वहीं सार्वजनिक रूप से इस तरह के तथ्य को व्यक्त करना समाज में एक असुरक्षा की भावना को भी व्यक्त करती है और चिन्हों के माध्यम से एक आम नागरिक से मदद की भावना भी शब्दों में व्यक्त होती दिखाई देती है।
वहीं एक आम नागरिक का यह प्रश्न होता है कि इतना सरकारी तामझाम है फिर भी हमें असुरक्षित ही रहना है। इसके पश्चात शायद यह पहली बार हुआ है कि पंजाब के शहर अमृतसर में कश्मीर के एक आतंकवादी के पोस्टर बाज़ार की दीवार पर देखें गये, जहां कहा यह गया कि यह आंतकवादी अमृतसर के आस-पास देखा गया है। ज़ाहिर है जनता को आगाह करने के लिये यह पोस्टर पंजाब में लगाये गये।
सवाल फिर वही रहता है कि एक आम नागरिक की सुरक्षा के लिये राज्य सरकार, राज्य पुलिस, खुफिया विभाग क्या कर रहा है? यहां पर भी एक आम नागरिक का यही सवाल है कि जब खुफिया विभाग के पास यह जानकारी है कि मुशा नाम का आंतकवादी शहर में देखा गया है तो इनके पास यह भी जानकारी होनी चाहिये कि यह अब कहां है?
मसलन, मुशा के पोस्टर शहर की दीवारों पर लगाना, एक तरह से आम नागरिक को उसके खुद के ज़िम्मे सौंपना है, जहां उसकी सुरक्षा की जवाबदेही से सरकार हाथ खड़े करती हुई प्रतीत होती है।
वही पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह की सरकार अपने 18 महीने का कार्यकाल लगभग खत्म कर चुकी है लेकिन इसी समय अमरिंदर सिंह उन सब तथ्यों को ज़मीनी जामा पहनाने में नाकामयाब प्रतीत हो रहे हैं, जिन वादों के दम पर कैप्टेन अमरिंदर सिंह के रूप में कॉंग्रेस को पंजाब के लोगों ने भारी बहुमत से सरकार बनाने के लिये चुना था।
मसलन, चुनाव से पहले नशे के संबंध में सिख धार्मिक पुस्तक को हाथ में लेकर अमरिंदर सिंह ने सार्वजनिक सभा में कसम खाई थी कि उनकी सरकार नशे की समस्या को जड़ से उखाड़ देगी, किसानों के कर्जे़ के साथ-साथ किसानों की और भी समस्याओं को सुलझाया जायेगा। वहीं रोज़गार के अवसर भी बनाये जाएंगे, जहां हर घर में एक व्यक्ति को रोज़गार देने का वादा किया गया था।
अमरिंदर सिंह की सरकार नशे को मिटाने में नाकामयाब रही है। नशे की ज़्यादा मात्रा के कारण हुई कई नौजवानों की मौत ने एक आम पंजाबी को सड़कों पर ला खड़ा किया है। वहीं किसानों द्वारा की जा रही खुदखुशी अभी भी बदस्तूर जारी है और रोज़गार कहीं दिखाई नहीं दे रहा है।
रोज़गार के सिलसिले में हालात यह हैं कि सरकारी की वित्त ढांचे में कमी को देखते हुए सरकारी शिक्षक जो पिछले कई सालों से सरकारी कॉन्ट्रैक्ट पर काम कर रहे हैं उनकी मासिक तनख्वाह में भारी कमी करके, सरकार ने 15000 तक सीमित कर दिया गया है। शायद यही वजह रही है कि सरकार बनने के बाद अब तक अमरिंदर सिंह सार्वजनिक रूप से कम ही दिखाई देते हैं।
साल 2015 में तथाकथित गुरु ग्रंथ साहिब जी की बेअदबी और इसके विरोध में शांतिमय तरीके से विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों पर पंजाब पुलिस द्वारा गोली चलाये जाने पर बहबल कलां में 2 नौजवानों की मौत हो गई थी और कोटकपूरा में एक व्यक्ति घायल हो गया था।
यह घटना इतनी बड़ी इख्तियार हो गई कि 2017 के चुनाव में शिरोमणि अकाली दल मुश्किल से कुछ सीटों तक ही सिमट कर राज्य में कॉंग्रेस, आप के बाद तीसरे स्थान पर रह गई। इस चुनाव में प्रकाश सिंह बादल और उनके पुत्र सुखबीर सिंह बादल को भी अपनी जीत के लिए एड़ी चोटी का दम दिखाना पड़ गया।
2017 के चुनाव के बाद जब कैप्टेन अमरिंदर सिंह की सरकार भी इस मसले पर ज़्यादा सुस्त दिखाई दी तो कई सिख संगठनों ने मिलकर बरगाड़ी में इन घटनाओं के सबंध में शांतिमय तरीके से मोर्चे का ऐलान किया जो कि 6 महीने से भी ज़्यादा समय तक अपनी मांगों पर अड़े हुए हैं।
वहीं इस सिलसिले में जस्टिस रंजित सिंह की रिपोर्ट को विधानसभा में रखा गया, जहां प्रकाश सिंह बादल को गोलीकांड के बारे में जानकारी होने की हामी भरी गई थी। मसलन, एक तरफ बरगाड़ी का मोर्चा और दूसरी तरफ सरकारी रिपोर्ट, हर जगह बादल परिवार का विरोध हो रहा है।
अब इस तरह की राजनीतिक घेराबंदी में बादल परिवार राज्य की शांति के लिये अपनी चिंता सार्वजनिक रूप से प्रकट कर रहा है, जहां प्रकाश सिंह बादल तत्कालीन अमरिंदर सिंह की कॉंग्रेस सरकार को राज्य की शांति के लिये एक खतरा मान रहे हैं, वहीं राज्य की शांति के लिये अपने प्राणों की आहुति देने के लिये भी सार्वजनिक रूप से हुंकार भर रहे हैं। वहीं इनके पुत्र सुखबीर सिंह बादल, बरगाड़ी मोर्चा में शामिल संत बलजीत सिंह दादूवाल को पाकिस्तानी खुफिया संस्था आईएसआई का एजेंट भी बताने में पीछे नहीं हट रहे हैं।
मसलन, सिख रिवायतों की राजनीतिक पार्टी कही जाने वाली शिरोमणि अकाली दल अब सिख संगठनों के निशाने पर है और बयानबाज़ी का दौर अपने पूरे सुरूर पर है। अब जिन्होंने 1978 से लेकर 1992 तक के पंजाब के हालात देखे हैं, वहीं जो आज राजनीतिक सोच रखते हैं। मसलन, पंजाब जहां शांत राज्य है लेकिन पिछले कई महीनों की राजनीतिक उठापठक और तत्कालीन राज्य सरकार का हर मोर्च पर नाकामयाब होने से हर एक पंजाबी यह कयास लगा रहा था, जिसमें मैं भी व्यक्तिगत रूप से शामिल था कि पंजाब में कोई अप्रिय घटना हो सकती है।
अब, तारीख 18 नवंबर 2018, रविवार के दिन अमृतसर के पास निरंकारी भवन में एक ग्रेनेड फेंका गया, जहां तीन लोगों की मौत के साथ-साथ कुछ लोग घायल भी हो गये। इस हमले के बाद पंजाब सरकार ने सख्ती दिखाते हुए आरोपियों की जानकारी देने वाले को 50 लाख रुपये इनाम के रूप में देने की घोषणा कर दी।
वहीं कुछ ही दिनों में पंजाब पुलिस ने अपनी छानबीन के दौरान दो नौजवानों को इस हमले के दोष में साजिशकर्ता होने की पुष्टि की। खुद अमरिंदर सिंह ने एक प्रेस कॉंफ्रेंस की, जहां फेंके गए ग्रेनेड को पाकिस्तान से भी जोड़ा गया।
मसलन, जो सरकार अपने शिक्षकों की तनख्वाह में कटौती कर रही थी वह आंतकवाद के नाम पर मुस्तैदी से 50 लाख की इनामी घोषणा करती है। अमरिंदर सिंह जहां हर मसले पर फेल हो रहे हैं, वह खुद दोषियों के सिलसिले में प्रेस कॉंफ्रेंस करके अपनी पीठ थपथपा रहे हैं लेकिन वो यह बताने में नाकामयाब रहें कि इस हमले को पहले रोकने में वह कामयाब क्यों नहीं हुए।
वहीं बादल परिवार तो पहले से ही राज्य की शांति भंग होने के कयास लगा रहा था अब वह इस हमले के लिए संत दादूवाल और खुद अमरिंदर सिंह को दोषी बता रहा है। वहीं यह हमला सिख हिंदू समाज में भी दूरिया लाने का काम कर सकता है।
अब हमला ज़रूर हुआ, पुलिस भी काम कर रही है लेकिन अगर राज्य में बेरोज़गारी, किसानों की आत्महत्या, नशे के कारण हो रही मौत, राज्य हर पहलू से कमज़ोर हो रहा है। जहां एक ऐसी स्थिति तो आनी सुनिश्चित लग रही थी कि कुछ अप्रिय हो सकता है लेकिन इसके लिये कौन ज़िम्मेदार है?
काफी साल पहले एक अजनबी बुज़ुर्ग ने मुझे एक बात कही थी कि जब सरकारें अपने नागरिकों को उसकी मूलभूत सुविधाएं देने में नाकामयाब रहती हैं तब आतंकवाद का डर बनाया जाता है, जिसकी चपेट में वही नागरिक आते हैं जिसे अभी भी अपने मूलभूत अधिकारों से और सुविधाओं से वंचित रखा गया है।
इतना कहकर वह बुज़ुर्ग अपनी जुती में से रेत झाड़कर आगे चला गया। उसकी शरीर की रचना से उसकी मेहनत दिखती थी लेकिन उसके फटे कपड़े उसे उसकी मूलभूत सुविधाओं से वंचित आज भी बता रहे थे। शायद वह 1978 ओर 1992 के समय का नौजवान रहा होगा, जब पंजाब काले दौर से गुज़रा था। अब आज के पंजाब के नौजवान का क्या भविष्य होगा, यह एक चिंता का विषय है लेकिन एक बात तय है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह और बादल परिवार, कभी भी अपने अधिकारों से वंचित नहीं रहेंगे।