कभी-कभी नहीं बार बार मुझे यह लगता है कि जो देश या राष्ट्र अपनी आधी आबादी के लिए सम्मानजनक सोच नहीं रख सकता, वह कैसे स्वयं को लोकतांत्रिक कह सकता है? उस देश या राष्ट्रवाद से महिलाएं खुद को कैसे जोड़ कर देखती होंगी? यह एक विचारणीय सवाल है जिसपर शायद ही कभी सोचा जाता होगा। अगर सोचा जाता तब सोनिया गांधी को पहले विदेशी फिर विधवा या वसुंधरा राजे को मोटी रानी कहने का साहस रजनीतिज्ञ कभी नहीं करते।
वंसुधरा राजे ने मौजूदा दौर की राजनीति में तमाम दबाव के बाद भी अमित शाह और नरेंद्र मोदी की राजनीति को हावी नहीं होने दिया, वही सोनिया गांधी संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकरों से भारतीय ही नहीं बल्कि भारतीय राजनीति के केन्द्रीय धुरी में रही हैं।
सार्वजनिक मंच पर वरिष्ठ नेताओं का इस तरह का प्रलाप यह दिखाता है कि सत्ता के केन्द्र में किसी भी महिला की भागीदारी पुरुषवादी राजनीति को फूटी आंख नहीं सुहा रहा है, भले ही उनकी राजनीतिक विरासत या विचारधारा कुछ भी हो।
भले ही पहली महिला शासक के रूप में स्कूलों में रजिया सुल्तान का नाम रटवा दिया जाए और विदेशों के सीनेट में भारतीय महिलाओं के चुने जाने पर भारतीय मूल की महिला बताकर अहलादित होता रहे। सार्वजनिक जीवन में काम करने वाली महिलाओं के लिए बदजुबानी सीता के लिए लक्ष्मण रेखा खीचनें सरीखा है।
मौजूदा राजनीति में मौजूद महिलाएं कभी ना कभी किसी ना किसी सार्वजनिक मंच पर अपमानित और प्रताड़ित होती ही रही हैं, जिसके लिए ना तो कभी खेद प्रकट किया जाता है और ना ही सफाई दी जाती है।
अफसोस यह भी है कि सर्वाजनिक सभा में मौजूद लोग भी इसका मज़ा लेते हैं लेकिन किसी की तरफ से कोई आपत्ति नहीं होती है, क्योंकि समाज की इज्ज़त या जगहसांई की अवधारणा केवल अपने घर की महिलाओं के लिए है। दहलीज़ की बेड़ियां तोड़ती महिलाएं तो सामाजिक हो जाती हैं जिनकी अस्तित्व को कोई भी चुनौती दे सकता है। सोशल मीडिया पर भले ही इसकी आलोचना हो रही है लेकिन वह बहस की जगह कभी नहीं बन पाती है।
किसी भी महिला के लिए इतनी बकवास सोच रखने वाले लोग महिलाओं के हक में नीतियां बनाने में कितने गंभीर हो सकते हैं। यह सोचना ज़रूरी है क्योंकि ऐसा लगता है आधी आबादी भारतीय राजनीति के शतरंज के बिसात पर बस प्यादे सरीखे मोहरे हैं जो मतदाता के लिए जितनी भी भागीदारी करें, उनकी समस्या और अस्तित्व का सवाल तो हाशिये से भी बाहर है।
महिलाओं के लिए निजी और सार्वजनिक स्पेस में अस्मिता अनुकूल महौल बनाने के लिए समाज को हर खेदजनक घटना, ज़ुबान फिसलने या बदजबानी के लिए सवाल पूछना ज़रूरी है। काश महिला नेतृत्व पर तुम्हारे दिमाग की सारी इंद्रिया जैसे काम करने लगती है, ठीक वैसे ही तुम उनके अधिकारों और समानता को समझ पाने में अपना दिमाग लगा पाते।
एक महिला नेतृत्व के ख्याल से तुम्हारे अंदर की घबराहट और बैचेनी तुम्हारे होश उड़ा देते हैं, तो सुनो तुम निहायत ही डरे हुए लोग हो जो सामाजिक न्याय और महिला न्याय का स्लोगन तो दे सकते हो लेकिन सामाजिक बराबरी की समझ से बहुत दूर है।
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