छत्तीसगढ़ में भाजपा को पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में सबसे निरापद माना जा रहा था लेकिन चुनाव परिणामों में डा. रमन सिंह के तेजतर्रार नेतृत्व के बावजूद उनके पैर बुरी तरह उखड़ गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने आदिवासी बाहुल्य इस राज्य में कॉंग्रेस को नक्सल समर्थक ठहराने की कोशिश की थी। इसे भाजपा के रणनीतिकार अमोघ ब्रह्मास्त्र मान रहे थे लेकिन कॉंग्रेस को शायद यह आरोप घातक बनने की बजाय फल गया।
छत्तीसगढ़ में भाजपा की करारी हार के तमाम कारण गिनाए जा रहे हैं लेकिन कॉंग्रेस को नक्सली ठहराने से चुनाव की स्थिति में क्या मोड़ आया, इसकी मीमांसा विशेषज्ञों के बीच नदारद रही। जबकि इसपर भी विचार होना चाहिए।
90 सदस्यीय छत्तीसगढ़ विधानसभा में भाजपा 2013 में मिली 49 सीटों के मुकाबले 15 सीटों पर सिमट गई है। दूसरी ओर कॉंग्रेस जिसे 2013 में 39 सीटें मिली थीं उसका ग्राफ ऐसा चढ़ा कि वह 68 सीटें बटोर ले गई। अजीत जोगी की जनकॉंग्रेस छत्तीसगढ़ और बसपा के गठबंधन द्वारा कॉंग्रेस के समानांतर चुनाव लड़ने के फैसले से भाजपा के नेताओं की बांछें खिली हुई थीं, जो यह मान रहे थे कि इससे कॉंग्रेस के वोट बैंक में ज़ोरदार सेंध लग जाएगी।
लोगों की च्वाइस भाजपा बनाम कॉंग्रेस में केंद्रित हो गई और भाजपा विरोधी वोट एकतरफा कॉंग्रेस के पाले में ध्रुवीकृत हो गए। राज्य में जनकॉंग्रेस को 5 और बसपा को सिर्फ दो सीटों पर संतोष करना पड़ा। ज़ाहिर है कि इस तरह की मानसिकता मतदाताओं में तब बनती है जब या तो वे एक पार्टी को हराने की ठान बैठे हों या किसी पार्टी को जिताने की। तय है कि छत्तीसगढ़ में भाजपा को सत्ता के गलियारे से बाहर फेंकने का दृढ़ निश्चय मतदाता किए हुए थे। जिसमें गफलत ना हो जाए इसलिए वे विकल्प के तौर पर इधर-उधर नहीं भटके।
भारतीय संस्कृति में शब्द को ब्रह्म कहा गया है इसलिए शब्दों को बहुत नाप-तौलकर इस्तेमाल करने की अपेक्षा की जाती है लेकिन नरेंद्र मोदी एंड कंपनी ने शब्दों को खिलवाड़ की विषयवस्तु बनाकर उन्हें प्रभावहीन कर दिया है। प्रतिपक्ष को देशद्रोही और आतंकवाद समर्थक बताने की हद तक चले जाने को शगल बनाना अब उनकी कमज़ोरी का कारण बन गया है। जिससे लोग उनके आरोपों को गंभीरता से लेने की बजाय उन्हें सुनकर चिढ़ने लगे हैं।
आखिर मोदी को यह क्यों समझ में नहीं आया कि कॉंग्रेस का देश में 70 वर्ष शासन रहा जिसके नाते उसे सबसे ज़्यादा पाकिस्तान का मुकाबला करना पड़ा। उसके खाते में दो बार पाकिस्तान को पराजित करने और उसके टुकड़े करने की उपलब्धि दर्ज है। कॉंग्रेस ही क्या कोई प्रमुख दल नहीं है जो देश की शत्रु ताकतों से हाथ मिलाने की सोच सके। इस तरह का आरोप हद दर्जे की घटिया मानसिकता का परिचायक है।
प्रतिपक्ष में तमाम और ऐब हो सकते हैं जिन्हें ज़रिया बनाकर किया गया हमला अधिक सटीक और प्रमाणिक रहता लेकिन देशभक्ति की एकमात्र ठेकेदार बन जाने के अहम में अपने अलावा अन्य राजनीतिक प्रतिष्ठानों को शत्रुओं का एजेंट साबित कर भाजपा पता नहीं लोकतंत्र की किस तरह की सेवा कर रही है।
उत्तर प्रदेश कॉंग्रेस के अध्यक्ष राज बब्बर भी अपनी पार्टी के प्रचार अभियान के सिलसिले में छत्तीसगढ़ पहुंचे थे, जहां उन्होंने नक्सलियों को गुमराह क्रांतिकारी बताया। जिसे लेढ़ने का प्रयास नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने जिस तरह किया उसे लोकतंत्र की गरिमा के अनुरूप स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का लक्षण नहीं कहा जा सकता।
कॉंग्रेस नक्सलियों की समर्थक कैसे हो सकती है जबकि उसकी पार्टी के ही नेता सबसे ज़्यादा नक्सलियों के हाथों मारे गए हैं। राज बब्बर ने नक्सलियों की हिंसा को अपने भाषण में स्पष्ट तौर पर गलत ठहराया था लेकिन यह कहा था कि जो लोग अभाव में हैं और जिनके अधिकार छीने गए हैं उन्हें हिंसा के रास्ते पर आगे बढ़ने से रोकने के लिए व्यवस्था को न्यायपूर्ण बनाने की ज़िम्मेदारी पर ध्यान देना होगा।
नक्सल समस्या का एक पहलू कानून व्यवस्था से जुड़ा है तो दूसरा व्यवस्था की विसंगतियों से। हर जनविक्षोभ को पुलिस या सेना के ज़रिये दबा देने की सोचने वाली भाजपा में दूरदृष्टि का अभाव है। जिसके कारण वह ऐसी जटिल समस्याओं के राजनीतिक समाधान की दिशा में कदम नहीं बढ़ा पाती।
भाजपा के इस रवैये का देश को दूरगामी नुकसान होने वाला है। भाजपा निष्कर्ष पहले निकाल लेती है और उसके बाद उसके औचित्य को सिद्ध करने के लिए तथ्यों को मनमाने ढंग से संयोजित करती है जबकि ईमानदारी से तथ्य जानकर निष्कर्ष निकालने की कोशिश होनी चाहिए।
मार्क्सवाद के बारे में उसका यही रवैया है। मज़दूरों और दलित जनता के लिए बराबरी की बात करने की आवश्यकता को आप मार्क्सवाद के नाम पर खारिज़ नहीं कर सकते। समरसता की चादर डालकर यथास्थितिवाद का पोषण आज के समय संभव नहीं है। मार्क्स की थ्योरी के हिसाब से उसकी विचारधारा के आधार पर रूस या चीन की बजाय अमेरिका और ब्रिटेन में क्रांति होनी चाहिए थी लेकिन इन औद्योगिक राष्ट्रों ने चीज़ों को प्रबंधित करके क्रांति के संकट से अपने को उबार लिया। जो मेहनतकश तबके के मेहनताने से लेकर तमाम जीवन स्थितियों में बेहतरी की बातें सेवा शर्तों में जोड़कर संभव हो पाया। नक्सलियों को यहां भी इसी तरह से अप्रासंगिक बनाया जा सकता है पर भाजपा इसके लिए तैयार नहीं है।
बहरहाल छत्तीसढ़ में भाजपा की पराजय में कहीं ना कहीं नक्सलपंथ की आड़ में बराबरी के समाज के लिए उठाई जाने वाली आवाज़ को दबाने की भाजपा की जहनियत उजागर होने के कारक ने भी भूमिका निभाई है। जिससे पार्टी सबक ले और गरीबों, आदिवासियों व वंचितों को भी विकास में वास्तविक भागीदारी दिलाने के लक्ष्य को अपने एजेंडे में शामिल करे।