28 सितंबर 2015, वह दिन जब भारत के इतिहास में नफरत का एक नया अध्याय शुरू हुआ, एक ऐसा अध्याय जिसे आने वाली पीढ़ी पढ़कर अपने पुरखों के कृतियों पर शर्म करेगी।
दादरी में छोटा सा परिवार रात में खा पीकर सोने की तैयारी कर रहा था अचानक उसके घर में भीड़ धमक पड़ी और उसके ऊपर इल्जाम लगाया गया कि उसने गौ हत्या की है, उसके घर की तलाशी ली गई उसके घर के फ्रीज में गोश्त भी मिल गया, घर में गोश्त मिलना कोई बड़ी बात नहीं थी अखलाख चिल्ला चिल्ला कर यह कह रहा था कि यह गाय का गोश्त नहीं बकरे का गोश्त है लेकिन किसी ने उसकी नहीं सुनी उसे मारा गया और इतना मारा गया कि उसकी मौत हो गई। उसके छोटे बेटे दानिश (22) को मार मारकर अधमरा कर दिया गया मगर उस भीड़ से कोई भी ऐसा निकल कर नहीं आया जो अखलाख को बचा सके।
अखलाक मर गया उसके साथ उसका यकीन भी मर गया कि वह 70 साल से जिस कस्बे में दूसरे समुदाय के बीच में रह रहा है वो उसे अपना समझ रहे हैं, इस घटना के बाद अखलाक का परिवार उस इलाके को छोड़कर दूसरी जगह पलायन कर गया।
नरभक्षी भीड़ के मुंह में खून लग गया था, नफरत की यह भीड़ अब अपनी खुराक मांगने लगी, अखलाक के बाद भीड़ ने अपने दामन पर रकबर, जुनैद, पहलू, जफर, रियाजुद्दीन, मुन्ना और जाने कितनों के खून के दाग ले लिए। भीड़ की हिंसा जो गाय के नाम पर शुरू हुई थी अब पशु चोरी और बच्चा चोरी के नाम पर बढ़ने लगी, यूपी के दादरी से निकलकर हिंसा का यह वायरस दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा, मध्य प्रदेश, झारखंड, बिहार और देश के दूसरे हिस्सों में पहुंच चुका था।
कुछ लोगों को लगता था कि भीड़ सिर्फ मुसलमानों को अपना टारगेट बना रही है फिर इस भीड़ ने अपने चपेट में दलितों, किसानों, पत्रकारों और फिर पुलिस तक को ले लिया। जी हां पुलिस! पुलिस भी सुरक्षित नहीं रह सकी, धर्म के नाम पर बनाई गई भीड़ अब अपनी खुराक मांगने लगी है, और यह अब अपने सामने पड़ने वाले हर व्यक्ति का भक्षण करने को तैयार है चाहे वह किसी धर्म का हो, जाति का हो, संप्रदाय का हो, किसी और रंग का हो, या किसी राज्य का।
हंसी तो तब आती है जब इतने क्रूर कृत्य को भी कुछ लोग अपने कुतर्कों से सही साबित करने में लगे पड़े हैं। कुछ राजनीतिक पार्टियां इन बेगुनाहों की हत्या पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने में लगी है। मुझे नहीं पता कि वे लोग बेगुनाहों के खून में सनी और उनके परिवार की चीख और पुकार से उठने वाली आंच पर पकने वाली रोटी कैसे खाएंगे।
अब बात आती है कि भीड़ को हिंसा के लिए उकसाता कौन है? क्या वह सिर्फ किसी सांप्रदायिक शक्तियों या राजनीतिक बल पर ऐसा कर गुजरती है? अगर आपको ऐसा लगता है तो आप चूक रहे हैं। ज़रा टीवी खोलिए और देखिए उसमें डिबेट के मुद्दे क्या है, क्या उसमें आप की बच्चों की शिक्षा, आपके स्वास्थ्य, रोजगार, आपके घर, चौराहे, और शहर की सड़कों पे बातें हो रही है अगर बातें नहीं हो रही है तो फिर किस मुद्दे पर बात हो रही है। आप चैनल बदलकर थक जाएंगे लेकिन आपको इन मुद्दों का जिक्र भी नहीं मिलेगा।
भीड़ की हिंसा कैंसर की तरह हमारे देश में फैलती जा रही है जिसके बीज ना सिर्फ हमारे देश के नेता बल्कि न्यूज़ चैनल के एंकर अपने चैनल पर बैठकर प्राइम टाइम के स्लॉट से बांट रहे हैं। ये एंकर अपने चैनल से बैठकर लोगों को राष्ट्रीयता और देशभक्ति का सर्टिफिकेट बांटते हैं यह आपके बच्चों को देश का वह इतिहास बताते हैं जो इतिहासकारों की किताबों में नहीं मिलता लेकिन इन नफरत वाले चैनेल की शाखाओं में आपको मिल जाएगा।
अगर आप सहज हैं और आपको लगता है कि आप इन चैनल के नफरत से और भीड़ की हिंसा से सुरक्षित हैं तो आप गलत हैं याद रखिए कि नफरत वाली भीड़ अपनी खुराक मांगती है और एक दिन यह नफरत वाली भीड़ अगर आपके गिरेबान तक पहुंच जाए तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं।