विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश अपने पतन की घोर संदिग्ध काल में प्रवेश करने की कवायद में लगा है। लोकतंत्र की परिभाषा को भीड़तंत्र ने ऐसा निगला कि तमाम संवैधानिक संस्थाएं उसके सामने अचेत अवस्था में पड़ी बिलख रही हैं।
सत्ताधीशों की शांति-सौहार्द की गुज़ारिश भीड़तंत्र के सामने पहुंचने से पहले ही दम तोड़ रही है। या यूं कहें कि भीड़तंत्र ऐसी गुज़ारिशों को सत्ताधीशों की सहमति समझने लगी है। उस तंत्र को मिली वैचारिक वरीयता ने उनके ज़हन से कानूनी कार्रवाइयों की धारणाओं को ही खत्म कर दिया है। अचेत अवस्था में पड़ी संवैधानिक प्रतिबद्धता एवं लोकतांत्रिक चेतना कराह रही है।
भीड़तंत्र की हिंसा ने लोकतंत्र को ऐसा ज़ख्मी किया है कि सत्ता के आगे दम तोड़ने के हालात में पड़ा लोकतंत्र बिलख रहा है लेकिन मानवीय संवेदना ना तो सत्ताधीश खर्च करना चाह रहे हैं और ना ही संवैधानिक क्षत्रप। लोकतंत्र की इस अवस्था को देख ज़हन में सवाल यही उठता है कि जब अराजकता को काबू करने वाले संवैधानिक संस्थाओं को ही भीड़तंत्र अपना शिकार बनाने लगे और सत्ताधीशों की टोली भीड़तंत्र के भीतर पनपते वोट बैंक पर नज़र गड़ाए रखे, तो मुल्क के भीतर विविधता में एकता की संस्कृति को कौन संरक्षित करेगा।
भीड़ की अराजकता का वीभत्स तांडव हर दौर में देखा गया है। उदारीकरण और बाबरी विध्वंस जैसे दौर में ही बिहार में गुंडई अपने स्वर्णिम काल में भी प्रवेश कर चुकी थी। 5 दिसंबर 1994 को बिहार में आनंद मोहन गोपालगंज के तत्कालीन ज़िला अधिकारी कृष्णनैय्या की हत्या करता है और उसके बाद दो बार लोकसभा में सांसद बनकर पहुंचता है।
साल 2013 में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ में DSP जिया उल हक की हत्या कर दी जाती है। साल 2016 में उत्तर प्रदेश के मथुरा में भीड़ द्वारा 40 से अधिक लोगों की हत्या की जाती है, जिसमें SP (सुपरिटेंडेंट पुलिस) मुकुल द्विवेदी और फराह पुलिस स्टेशन के ऑफिसर संतोष यादव की मौत होती है।
साल 2017 में श्रीनगर के जामिया मस्जिद के बाहर भीड़ DSP अयूब पंडित की हत्या करती है और उसी कश्मीर में आर्मी ऑफिसर लेफ्टिनेंट उमर फयाज़ की भी हत्या की जाती है और वही नफरती भीड़ बुलंदशहर में यूपी पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध सिंह की हत्या करती है।
सत्ता के मद में बैठे राजनीतिक साहूकारों ने ना तो कभी कोई ठोस कार्रवाई की है और ना ही ऐसे नफरतियों से निपटने की पहल। तो सवाल यह भी उठता है कि क्या देश में उपजी भीड़तंत्र अब सत्ता के ही समानांतर खड़ी हो गई है। क्या सत्ता और भीड़ दोनों एक दूसरे पर ही आश्रित हैं।
भीड़ हमेशा सत्ता के मद से निकलने वाली विचारधारा के खिलाफ खड़े होने वाले को ही अपना शिकार चुनती है और बदले में सत्ता निंदा, आश्वासन के ज़रिए पूरे मामले को ठंडे बस्ते में डाल देती है।
गाय के मांस रखने के आधार पर साल 2015 में भीड़ का एक जत्था अखलाक नाम के एक अधेड़ की हत्या करता है। उस हत्या के आरोपी रवि सिसोदिया की जब मौत होती है तो उसके शव पर राष्ट्रीय तिरंगा रखा जाता है। जबकि शवों पर तिरंगा लपेटने का मतलब राजकीय सम्मान के साथ आखिरी विदाई देनी होती है।
राजकीय सम्मान का निर्णय आमतौर पर राज्य के मुख्यमंत्री अपनी कैबिनेट के वरिष्ठ साथियों के साथ चर्चा के बाद लेते हैं और सच यह है कि राजकीय सम्मान प्राप्त कतारों में महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी, अब्दुल कलाम, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे भारत के वीर सपूतों के नाम हैं।
हालांकि अखलाक हत्या के आरोपी को ना तो राजकीय सम्मान दिया गया और ना ही सरकार ने कोई घोषणा की। किन्तु किसी हत्या के आरोपी के शव पर तिरंगा रखना नेहरू, वाजपेयी जैसे महान सपूतों की कतार में खड़ा करना भी होता है। तो एक सवाल यह भी उठता है कि भीड़ जिसे मारती है, वही भीड़ सरकार की नाक तले अपने सदस्यों को वीर सपूत भी घोषित कर शव पर तिरंगा रखती है और पूरे प्रकरण पर प्रशासन की कोई गंभीर आपत्ति नहीं देखी जाती है।
तो यह सवाल लाज़मी है कि क्या भीड़तंत्र के आगे सत्ता, संविधान और लोकतंत्र सबकुछ शून्य हो चुका है। फिर हर साल 26 नवंबर को संविधान दिवस, 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस और 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस मनाने के पीछे की क्या मंशा है?
जब लोकतांत्रिक अधिकार और संविधान प्रदत्त अधिकारों का अस्तित्व ही नहीं बचता है तो यह राष्ट्रीय दिवस वर्षों से चली आ रहे महज़ एक पारंपरिक त्यौहार के तौर पर ही मनाए जाते हैं या इसके कोई वास्तविक औचित्य भी बचे हैं। नागरिकों को यह विचार करना अत्यंत ज़रूरी है।
21वीं सदी में भारत विश्वगुरू बने या ना बने किन्तु ऐसी स्थितियां बनी रही तो सीरिया, इराक जैसे मुल्कों की कतार के हम खुद को ज़रूर खड़ा पाएंगे। तब हमारे मुल्क की परिभाषा ‘विविधता में एकता’ नहीं होगी बल्कि ‘नफरत में मुल्क और हाशिये पर लोकतंत्र’ होगी।