पांच राज्यों के चुनाव परिणाम सामने आ गए हैं जिनमें लोगों की निगाह सबसे ज़्यादा हिन्दी पट्टी के तीन महत्वपूर्ण राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के नतीजों पर टिकी हुई थी। ये तीनों राज्य भाजपा के हाथ से निकल गए हैं, जिसके पीछे तमाम कारक हैं। एक महत्वपूर्ण कारक जिसकी भी चर्चा बहुत हो रही है, उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा हनुमान जी को राजस्थान के अलवर ज़िले की एक जनसभा में दलित के रूप में पेश करने वाला भाषण है। इससे ऊंची जातियों के लोग बौखला गए।
भाजपा का समर्थन करने वाले कई पुरातनपंथियों ने इसके बाद गुस्से में ना केवल खुद वोट देते समय उसे सबक सिखाया बल्कि विषाक्त प्रचार कर दूसरों को भी भाजपा के खिलाफ उकसाया। योगी को समझ लेना चाहिये कि अपने अभियानों से उन्होंने जिस सांस्कृतिक घमंड को हवा दी है उसकी वजह से उन्हीं के लिए भस्मासुर पैदा हो रहे हैं। उनकी सकारात्मक पहल भी इसके चलते उल्टी पड़ेगी जिसकी यह प्रत्यक्ष बानगी है।
दरअसल यह दलितों को अपवित्र मानने की ग्रंथि का परिणाम है जिसकी वजह से उन्हें भगवान के दर्शन के लिए मंदिरों में प्रवेश की अनुमति देना तक इस धर्म के ध्वजवाहकों को स्वीकार नहीं है। आज़ादी के बाद छुआछूत व ऊंच-नीच पर आधारित भावना को राजनीतिक सामाजिक प्रयासों ने काफी हद तक हल्का किया लेकिन अब यह भावना फिर से सिर उठाने लगी है। इसके लिए बहुत हद तक योगी खुद ज़िम्मेदार हैं।
योगी ने हनुमान को दलित इसलिये कहा ताकि समाज में भाईचारा बढ़े। हिन्दू धर्म में छिटके हुए लोग और समुदायों को अहसास कराया जाये कि उसके गौरव में उनकी भी हिस्सेदारी है जो भगवान द्वारा उनके बीच भी अवतार लेने की लीला से सिद्ध किया जा सकता है। योगी उम्मीद कर रहे थे कि इससे हिंदुत्व की धारा के प्रति दलितों में लगाव गाढ़ा करके वे अपनी पार्टी का राजनीतिक भार बढ़ा सकेंगे लेकिन लोगों ने इसे हनुमान जी को दलित कह कर अपवित्र किए जाने की कुचेष्टा के रूप में संज्ञान में लिया। अंदर ही अंदर यह मामला तूल पकड़ गया जिससे चुनाव में फायदे की जगह भारतीय जनता पार्टी को नुकसान हुआ।
कुतर्क की हद तो यह है कि यह कहा जा रहा है भगवान की कोई जाति नहीं होती इसलिये योगी द्वारा हनुमान जी को दलित कह कर उनकी जाति निर्धारित कर महापाप किया गया है। जब क्षत्रिय महासभा ने कुछ दिन पहले कहा था कि भगवान राम क्षत्रिय थे इसलिये अयोध्या में क्षत्रिय महासभा उनका मंदिर बनाएगी तब भगवान को जाति के दायरे में घेरने से रोकने के लिए कोई आगे क्यों नहीं आया?
यह ध्यान रखा जाना चाहिये कि रामकथा में हनुमान जी की भूमिका प्रभू के सेवक की है। संघ की लाइन में सामाजिक समरसता के लिए वर्ण व्यवस्था के करुण स्वरूप को अपनाया गया है। इस व्यवस्था में सेवा के दायित्व से बांधे जाने वाले दलितों को करुणा की वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। सेवक के उत्पीड़न की बजाय उसके प्रति ममत्व के व्यवहार को संघ लागू करना चाहता है। वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत ईश्वर में दलित अपना अस्तित्व कहां खोजे इस गुत्थी को सुलझाने का तकाज़ा योगी को हनुमान जी के दलित के रूप में प्रस्तुतिकरण की ओर ले गया। हालांकि बाबा साहब अंबेडकर को चिढ़ की हद तक इस पर आपत्ति थी। वे कहते थे कि दलितों को करुणा नहीं आत्म निर्णय का अधिकार चाहिये। वे अपने को सेवक तक सीमित रखने की बजाय स्वामी के भी रूप में देखे जाने का आग्रह रखते हैं।
बहरहाल इस मामले में योगी के बयान को लेकर जो प्रतिक्रिया हुई वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। विपक्ष ने भी इसे तूल देने में कसर नहीं छोड़ी। समाज में गलत समझदारी को बढ़ावा देना शुभ लक्षण नहीं है। राजनीति में विरोधियों के काम करने की भी एक लक्ष्मण रेखा है और इसलिये विपक्षी कर्तव्य को समाज हित के दायरे से आगे ना बढ़ने देने की सर्वानुमति बनाई जानी चाहिये।