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जानिए कमलनाथ के मुख्यमंत्री बनने से क्यों खफा है सिख समुदाय

कमलनाथ

कमलनाथ, फोटो साभार- ट्विटर

आमतौर पर भारतीय रेल में अंजान लोगों के साथ सफर कभी-कभी बहुत यादगार साबित होता है। अभी हाल ही में अहमदाबाद से दिल्ली आते वक्त आश्रम एक्सप्रेस में एक अंजान मुसाफिर से मेरी मुलाकात हुई जिनकी उम्र 55-60 वर्ष के बीच थी। इसी यात्रा के दौरान हम दोनों के बीच जब राजनीति पर बातचीत शुरू हुई तब उन्होंने मुझे बताया कि किस तरह इमरजेंसी के दौरान पुरानी दिल्ली के मुस्लिम बाहुल्य इलाके को जबरन सरकारी बंदोबस्त में खाली करवाया गया था।

बातचीत के दौरान वो शख्स संजय गाँधी और काँग्रेस का गुणगान कर रहे थे। वैसे कहा जाता है कि संजय गाँधी द्वारा दिल्ली को खूबसूरत बनाने की कवायद ने इस बस्ती को उजाड़ने का काम किया था। उस समय दिल्ली के गवर्नर जगमोहन थे। जिस बस्ती को खाली करवाया गया, ‘कनॉट प्लेस’ और ‘जामा मस्जिद’ के बीच मौजूद उस जगह का नाम ‘तुर्कमान गेट’ था।

सरकारी वर्दी द्वारा जबरन खाली करवाई जा रही बस्ती का विरोध इतना उग्र हो गया था कि पुलिस और बस्ती के लोग आमने-सामने थे। उस मुठभेड़ में पुलिस कर्मी भी घायल हुए लेकिन सुरक्षाबलों द्वारा गोलीबारी में बहुत लोगों की जानें भी गईं। बस्ती की बिजली और पानी की सप्लाई काट दी गई और तब तक बुलडोज़र चलते रहे जब तक कि बस्ती को खाली नहीं करवा दिया गया।

इस गोलीबारी में कितने लोग मारे गए, इसका सरकारी आंकड़ा कभी सामने नहीं आया लेकिन एक अनुमान के मुताबिक 21 महीनों के अंदर करीब 70,000 लोगों ने पलायन किया था।

वही इमरजेंसी के दौरान एक साल के अंदर लगभग 62 लाख लोगों की नसबंदी करा दी गई थी। जनसंख्या रोकने के लिए जबरन चलाई गई इस अभियान की कमान संजय गाँधी के हाथों में थी। इस अभियान के अंतर्गत ज़्यादातर मुसलमान वर्गों को निशाना बनाया जा रहा था। जबरन जनसंख्या नियंत्रण और तुर्कमान गेट को खाली करवाए जाने से संजय गाँधी की एक कट्टर हिंदू और मुसलमान विरोधी की छवि बन गई थी। यह वही छवि थी जिसका गुणगान रेल में सफर के दौरान मेरे साथ बैठे अंजान मुसाफिर कर रहे थे

इंदिरा गाँधी। फोटो साभार: सोशल मीडिया

वही 1971 की भारत-पाकिस्तान जंग के बाद इंदिरा गाँधी की लोकप्रियता में इस हद तक इज़ाफा हो गया कि अब लोग ‘इंदिरा इज़ इंडिया‘ का नारा लगाने लगे थे। उस वक्त देश के आवाम जो पानी, सड़क, पक्की छत से कोसों दूर थे, उनके लिए इंदिरा गाँधी एक उम्मीद थी। मसलन आम जनता में इंदिरा गाँधी को अब माँ कहकर सम्मानित किया जाता था। इंदिरा गाँधी अमूमन अपनी हर सार्वजनिक दौरे पर हिंदुओं के धार्मिक स्थानों में निश्चित तौर पर जाना ज़रूरी भी समझती थीं।

इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद सिख नरसंहार होता है जहां नारा था, ‘सिखों ने हमारी माँ को मारा है।’ इसके पश्चात हुए आम चुनाव से पहले प्रचार के दौरान राजीव गाँधी ने करीब 50,000 किलोमीटर का फासला हेलीकॉप्टर, कार और हवाई जहाज़ से किया था। इस चुनाव प्रचार में राजीव गाँधी बहुत ही उग्र स्वर से आम जनता को यह बता रहे थे कि सिख एक अलग देश की मांग पर अड़े थे।

इस दौरान राजीव गाँधी और आरएसएस प्रमुख बालासाहब देवरस की एक गुप्त मीटिंग की चर्चा भी आम थी। शायद यही वजह थी कि 1984 के आम चुनाव में राजीव गाँधी की काँग्रेस को आरएसएस ने अपना समर्थन दिया था। राजीव गाँधी के प्रधानमंत्री कार्यकाल में ही अयोध्या में विवादित राम जन्मभूमि स्थान का ताला खोला गया और धार्मिक रीति रिवाज़ से यहां पूजा अर्चना की इजाज़त दी गई।

अमूमन राजनीतिक गलियारों में इस बात की चर्चा थी कि इस प्रयास के पीछे राजीव गाँधी के मुख्य सहयोगी अरुण नेहरू की रणनीति थी जहां हिंदू भावना को उजागर करके अगले आम चुनाव के लिए एक माहौल तैयार करने का एक प्रयास किया जा रहा था, लेकिन शिलान्यास से विश्व हिंदू परिषद और राम जन्मभूमि आंदोलन को बल मिल गया, जिसके पश्चात मुख्यतः हिंदी भाषित प्रदेश बिहार और उत्तर प्रदेश में हिंदू और मुसलमानों के बीच दंगे शुरू हो गए थे।

राजीव गाँधी। फोटो साभार: Flickr

राजीव गाँधी के नाम ‘बोफोर्स घोटाले’ से जुड़ने के कारण 1989 के चुनाव में काँग्रेस को हार का सामना करना पड़ा। वही 1991 में तमिलनाडु में एक चुनाव प्रचार की सभा को संबोधित करने से पहले श्रीलंका के आंतकवादी संगठन द्वारा एक आंतकवादी हमले में राजीव गाँधी की हत्या कर दी गई। इसके पश्चात गाँधी परिवार राजनीति से दूर ही रहा लेकिन 1998 में सोनिया गाँधी काँग्रेस अध्यक्ष बनीं और 2004 में यूपीए के तहत काँग्रेस फिर केंद्र की सत्ता में कायम हो गई जो साल 2014 तक अपना दबदबा बनाने में कामयाब रही।

इसी दौरान भाजपा ने हिंदू समाज की अगुवाई की रूपरेखा में खुद को प्रस्तुत कर दिया था जिसकी पैरवी एक कट्टर हिंदू छवि रखने वाले नरेंद्र मोदी कर रहे थे। वही गाँधी परिवार कहीं भी खुद की हिंदू भूमिका को तरजीह नहीं दे रहे था, नतीजतन 2014 के आम चुनाव में काँग्रेस की बहुत बड़ी हार हुई। इसी के साथ कई हिंदी भाषित प्रदेशों में भाजपा अपनी सरकार बनाने में कामयाब रही।

भाजपा एक कट्टर हिंदुत्व की राजनीति को प्रमुखता देती है। रामजन्म भूमि, मंदिर, गाय, देश, राष्ट्रवाद इत्याद को भाजपा खुद को समर्पित करती दिखाई देती है। इन चीज़ों से प्रेरित होकर पार्टी के कई नेताओं के विवादित बयान आते रहते हैं, वही काँग्रेस एक लिबरल हिंदू छवि के साथ हमेशा राजनीति में रही है।

इसी मार्ग पर अब राहुल गाँधी बढ़ रहे हैं। मसलन 2019 के आम चुनाव में अगर यहां नरेंद्र मोदी की हार और राहुल गाँधी की जीत होती है तब यह किस विचारधारा की जीत होगी? ऐसा हो सकता है कि अल्पसंख्यक समाज पर हो रहे हमले थम जाएं। जेएनयू के गायब हुए छात्र नज़ीब की तरह और कोई अल्पसंख्यक समुदाय का विद्यार्थी गायब ना हो और किसी माँ को राजधानी की गलियों में अपने बेटे के लिए प्रदर्शन ना करना पड़े।

कमलनाथ। फोटो साभार: Getty Images

1984 के सिख कत्लेआम के समय एक अखबार में बतौर रिपोर्टर रहे संजय सूरी ने अपनी क़िताब में भी लिखा है कि दंगे के दौरान गुरुद्वारा रकाबगंज में कमलनाथ भीड़ को कंट्रोल करते हुए प्रतीत हो रहे थे। संजय सूरी की उपस्थिति में भीड़ में मौजूद लोग कमलनाथ को देख रहे थे, जैसे उनके इशारे का इंतज़ार किया जा रहा हो और इसी समय संजय सूरी के यहां आने से पहले दो सिख नागरिकों की आग लगाकर हत्या कर दी गई थी। वही संजय सूरी का यह भी बयान है कि कमलनाथ की मौजूदगी में ही भीड़ ने रकाबगंज गुरुद्वारे पर हमला कर दिया था।

अब राहुल गाँधी द्वारा मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर कमलनाथ की ताजपोशी किस ओर इशारा कर रही है, यह चिंता का विषय है। व्यक्तिगत रूप से मेरा यह मानना है कि चुनाव अब जीत की प्रक्रिया मात्र रह गई है जहां जीत का नंबर मायने रखता है। ऐसे में देश की कुल आबादी की 2% से भी कम जनसंख्या वाली सिखों और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के लिए भी चुनाव का लोकतंत्र एक सुरक्षित वातावरण देने में नाकामयाब ही साबित होता दिखाई पड़ रहा है।

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