सियासत लोकतंत्र की गोद में बैठता है या लोकतंत्र सियासत की गोद में शायद इस बात के अंतर को 2014 लोकसभा चुनाव के बाद राज्य दर राज्य अपने फतेह का झंडा गाड़ने वाली भाजपा भूल चुकी थी। भाजपा शायद यह भूल चुकी थी कि हमेशा सियासत और सत्ता के ताज को जनमत की चौखट से ही गुज़रना पड़ता है। इस बात को 11 दिसंबर के बदलते तापमान और सर्दी की हवा में कैद जनता जनार्दन के फैसले ने साबित कर दिया।
भारतीय स्वतंत्र इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ जब ईवीएम में कैद सत्ता के स्वाद को गिनने में लगभग 24 घंटे का वक्त लग गया और फिर स्थिति पूरी तरह से साफ हो पाई। जनता का फैसला आने के बाद काँग्रेसी महकमे में जीत का नगाड़ा और सत्ता का ताज सजाने की तैयारी चल पड़ी तो वही भाजपा गलियारे में 2019 और विधानसभा चुनाव में हुई बड़ी हार के आत्ममंथन का दौर भी शुरू हो गया।
7 दिसंबर को राजस्थान व तेलंगाना में क्रमशः 199 और 119 सीटों पर लोगों ने अपने वोट डाले तो वही धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ में प्रथम चरण में 12 नवंबर को 18 विधानसभा क्षेत्रों में और दूसरे चरण में 20 नवंबर को 72 विधानसभा क्षेत्रों में वोटिंग संपन्न हुई।
28 नवंबर को मिजोरम और मध्यप्रदेश के क्रमशः 40 व 230 सीटों पर मतदान कर जनता ने सत्तातिलक का फैसला ईवीएम में कैद कर दिया, जिसकी गिनती तय तारीख 11 दिसंबर को चढ़ते सूरज की लाली के साथ शुरू हुई। काँग्रेस दो राज्य छत्तीसगढ़ और राजस्थान में अपने विरोधी दल भाजपा को धुल चटाते हुए अपने पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने जा रही है।
काँग्रेस पार्टी को छत्तीसगढ़ में 67 सीटें मिली तो वही भाजपा को महज़ 15 सीटों के साथ ही उल्टे पांव लौटना पड़ा, क्योंकि इस राज्य में रमन सिंह की 15 वर्षों से सरकार थी। वही मध्यप्रदेश में काँग्रेस 115 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनते हुए बहुमत की कुंजी से एक कदम दूर रह गई जिसको बसपा अपने मिले दो सीटों का समर्थन देते हुए पूरा कर दिया।
मध्यप्रदेश में मोदी लहर व योगी आदित्यनाथ का राम धून, नाम बदलने की रणनीति, हनुमान को जातिगत आधार पर बांटने का राग जनता को राज़ी नहीं कर पाई। क्योंकि, मध्य प्रदेश में काँग्रेस को 115 सीटें मिली तो वही बीजेपी को 109 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। जबकि बसपा के खाते में 2 सीटें गई। जिस अलवर के जनसभा में योगी ने हनुमान की जाति तय की, वहां भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा।
दूसरी तरफ से लगातार दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत में अपनी पैठ जमाने के लिए जद्दोजहद में लगी भाजपा को फिर से उल्टे पांव लौटना पड़ा क्योंकि 40 सीटों वाली मिजोरम और 119 सीटों वाली तेलंगाना में भाजपा को महज़ 1-1 सीट से ही संतोष करना पड़ा। जबकि काँग्रेस को मिजोरम में पांच और तेलंगाना में 19 सीटें मिली ।
मिजोरम में काँग्रेस के 10 साल के शासन को ‘मिजो नेशनल फ्रंट’ ने छीनते हुए काँग्रेस का ऐसा हाल कर दिया कि दो बार मुख्यमंत्री बनने वाले ललथनहवला को अपनी दोनों सीटें गंवानी पड़ी। राजस्थान में कुछ अलग ही माजरा नज़र आया। ‘मोदी से बैर नहीं, पर वसुंधरा की खैर नहीं’ आवाज़ ने राजस्थान में हर 5 वर्ष पर बदलते सिंहासन की परंपरा को बरकरार रखा व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के दावों की हवा खोल दी।
इस चुनाव में ध्यान देने व चाणक्य की चाणक्यगिरी को धत्ता बताने वाली बात यह रही कि एक तरफ लगातार हारती काँग्रेस इन पांच राज्यों के चुनाव में जोरदार वापसी करते हुए तीनों बड़े राज्य में सत्ता की स्थिति में रही। वही 2019 लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल कहे जाने वाले चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के हाथ एक भी गद्दी नहीं लगी। 2019 के लोकसभा चुनाव में भी यदि जनता इसी आधार पर वोट करती है तब भाजपा के लिए परेशानी का सबब बन सकती है।
काँग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी द्वारा हर जनसभा में किसानों की कर्ज़ माफी युवाओं को रोज़गार और किसानों को धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2300 रुपये देने का वादा काँग्रेस की शानदार जीत के पीछे की वजह रही।
भाजपा सरकार द्वारा लगातार ‘उज्जवला योजना’ का ढोल पीटने के बावजूद एलपीजी गैस सिलेंडर का मूल्य 1000 रुपये तक पहुंचना, रोज़गार व युवाओं के मुद्दे पर दो-दो हाथ होना, नोटबंदी व जीएसटी का छोटे मंझोले उद्योगों पर नकारात्मक असर पड़ना और किसानों की आत्महत्या व दुर्दशा जैसे मुद्दों की आंच से भाजपा व उसके घटक दल को झूलसते हुए मैदान से लौटना पड़ा, जिसका अच्छा खासा असर 2019 के लोकसभा चुनाव में देखने को मिलेगा।