राहुल बेदी, द ट्रिब्यून के सीनियर एडिटर हैं इनका एक लेख 6 दिसबंर के दिन द टिब्यून में आया था जिसे हर तर्कशील, विचारशील व्यक्ति को ज़रूर पढ़ना चाहिये। राहुल बेदी अपने आंखों देखा अनुभव से लिखते हैं कि 01 और 02 नवंबर 1984 के दिन, कुल मिलाकर 48 घंटों तक यमुना पार दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके में खासकर इसके 32 ब्लॉक में सिख विरोधी कत्लेआम के दौरान दंगाइयों ने मौत का ज़िंदा नाच किया था।
एक अनुमान के मुताबिक यहां इन दो दिनों में कुल 350 सिख समुदाय के लोगों का कत्ल कर दिया गया था। चश्मदीदों के अनुसार सिख कत्लेआम में मारे गये सिख नागरिकों की संख्या इस आंकड़े से बहुत ज़्यादा है।
पत्रकारों का समूह जब इन इलाकों में मुआयना करने गया तब इनका अनुभव यकीनन झकझोड़ देने वाला था। यहां एक पोलियो से ग्रस्त मां अपनी दूध पीती बच्ची को अपनी गोद में लेकर उस घर के दरवाज़े पर एक ज़िंदा लाश बनकर खड़ी थी। जो कुछ समय पहले एक हंसते खेलते परिवार का घर था, जहां आम भारतीय परिवार की तरह छोटी-छोटी खुशियां मायने रखती होंगी लेकिन अब यहां दंगाई आकर चले गये थे और जो बच गई थी वह बस लाशें ही थीं।
अमूमन घर के हर पुरुष को दंगाइयों द्वारा मार दिया गया था और जब इस मां के पास पत्रकारों का समूह पहुंचा तो इस मां ने अपनी बेटी को बिना किसी एक शब्द कहे इन पत्रकारों के हवाले कर दिया। किस तरह के ये हालात थे जहां घर के लोगों की लाशें सामने थीं और एक बच्ची को अब आगे की ज़िन्दगी देने से उसकी ही मां को डर लग रहा था।
उसे इस बात का शायद यकीन हो गया था कि इस बच्ची का भविष्य एक सिख के रूप में इस देश में, इस देश के नागरिकों के बीच अब सुरक्षित नहीं है। शायद यही वजह होगी कि एक सिख मां अपनी ही बच्ची को एक गैर सिख पत्रकारों के समूह को देकर, बच्ची के प्रति ज़्यादा सुरक्षित भावना महसूस कर रही थी। वास्तव में 1984 का कत्लेआम सिख पहचान का भी कत्ल था।
जिस तरह इस मां की आंखों में अब नाउम्मीद, निराशा देखी जा सकती थी वही इस बात को समझने की ज़रूरत है कि हज़ारों सिख तो इस सिख कत्लेआम में मारे गये लेकिन जो ज़िन्दा थे उनके सामने भी कई सवाल थे अपने वजूद, रोज़गार, इज्ज़त को बचाने के। उनके लिये अगर सबसे ज़्यादा कोई डर और भय का चिन्ह था तो वह था सरकारी वर्दी, सरकारी व्यवस्था।
मसलन, एक नागरिक अपने मत द्वारा लोकतंत्र के माध्यम से चुनी गई सरकार से ही डर रहा था, उसे अब इस लोकतंत्र में कोई विश्वास नहीं था, उसे अब अपनी सुरक्षा के प्रति सरकार से कोई आश्वासन नहीं था। मतलब वह अपनी सुरक्षा के लिये खुद ज़िम्मेदार था। अचानक से अपने ही देश में वह अब खुद को द्वितीय श्रेणी का नागरिक समझ रहा था। एक नागरिक के लिये, एक समुदाय के लिये इससे ज़्यादा भयावह हालात और क्या हो सकते हैं।
यहां यह समझने की ज़रूरत है कि 1984 का घाव, पूरे सिख समाज के हर नागरिक ने झेला है और हमारी आने वाली पीढ़ी भी इस घाव से खुद को कभी सुरक्षित नहीं समझ पाई, जिसमें मैं खुद को भी व्यक्तिगत रूप से शामिल करना चाहता हूं। हालात समस्याओं से बनते हैं और समस्या हालात पर निर्भर हैं, मसलन एक व्यक्ति, एक समाज उसके हर फैसले में भूतकाल के हालात और समस्याओं का समावेश होता है।
आज अमूमन सिख और पंजाबी घर के लोग या तो विदेश जा चुके हैं अथवा विदेश जाने की सोच रहे हैं। 1984 के बाद सिख समाज में पलायन का आंकड़ा बहुत बढ़ गया है। इस पलायन की वजह और भी हो सकती है लेकिन सुरक्षा के मद्देनज़र आज भी 1984 इस पलायन के लिए बहुत हद तक ज़िम्मेदार है।
वहीं समय-समय पर पंजाब और भारत सरकार विदेश में रह रहे सिख समुदाय को खालिस्तान की भावना से जोड़कर सिख सुमदाय की हर समस्या से खुद को मुक्त करने की कोशिश में रहती है। वास्तव में शब्द खालिस्तान 1984 के पहले, 1984 के समय और बाद में इस तरह से उछाला गया कि भारतीय समाज में सिख कत्लेआम को स्वीकृति दिलवाई जा सके।
हम इस बात का अनुमान लगा सकते हैं कि जो सिख 1984 में मारे गये वह अपनी निजी ज़िन्दगी में खुश थे, उन्होंने कभी भी खालिस्तान के प्रति कोई भावना नहीं रखी होगी। शायद उन्होंने यह शब्द खालिस्तान सुना भी नहीं होगा लेकिन चिन्हों के माध्यम से शब्द खालिस्तान के शक की बिनाह पर सिख कत्लेआम में सिख समुदाय को मारा गया। हमें सोचने की ज़रूरत है कि जब मैं यहां सिख कत्लेआम पर अपने विचार लिख रहा हूं तो मुझे खालिस्तान शब्द को भी इसमें शामिल करना क्यों पड़ रहा है? इस सवाल पर भी विचार करने की बहुत ज़्यादा ज़रूरत है।
वहीं आज माननीय दिल्ली उच्चतम न्यायालय ने सज्जन कुमार को 1984 के सिख कत्लेआम में दोषी माना है और कोर्ट ने 1984 के कत्लेआम को जेनोसाइड माना है, वहीं सज्जन कुमार को 34 साल तक सज़ा ना मिलने का कारण सरकारी संरक्षण की ओर भी इशारा किया गया। जहां कॉंग्रेस सरकार का सिख कत्लेआम पीड़ितों को न्याय दिलाने में जानते हुए अंजान बनना और अपराधियों को संरक्षण देने की बात को माना गया है। वहीं पुलिस की कार्यवाही पर भी प्रश्न उठाये गए हैं। अब जब कोर्ट का इतना कठोर फैसला आया है, जहां जज साहब फैसला सुनाकर दोनों हाथ जोड़कर, आंखों को नम करके कोर्ट रूम से विदा हुए इसके क्या मायने हैं?
इन हालात में खालिस्तान के संदर्भ में व्यक्तिगत विश्लेषण ज़रूर होना चाहिए कि शब्द खालिस्तान के पीछे किसकी साज़िश है? क्या इसमें सरकारी साज़िश शामिल नहीं है, जो चुनाव के इर्द गिर्द घूमती है? सरकारी व्यवस्था जिसके पास हर तरह के पर्याप्त साधन हैं, वह किसी भी साज़िश को हकीकत का लिबाज़ पहनाने में बहुत सक्षम है लेकिन यह ज़मीनी सच्चाई है कि शब्द खालिस्तान के कारण ही सिख समुदाय का बहुत ज़्यादा जान माल का नुकसान हुआ है। समझने की ज़रूरत है कि खालिस्तान शब्द को ज़ोर-ज़ोर से कहकर एक सिख को गद्दार, देशद्रोही, देश के प्रति खतरा बताने में 1984 के दंगाई सफल हो रहे थे लेकिन क्यों?
राहुल बेदी के लेख में उनके अनुभव के आधार पर इस बात का उल्लेख है कि वह और उनके पत्रकार दोस्त त्रिलोकपुरी के इस ब्लॉक की गलियों से चलने में असहज महसूस कर रहे थे, इस तरह दंगाइयों द्वारा लहू की बौछार की गई थी, जहां सिख समुदाय से जुड़े व्यक्तियों की लाशें, शरीर के अंग, लहू और बाल गलियों में बिखरे पड़े थे। राहुल अपने आंखों देखा अनुभव से यह लिखते हैं कि इन्हीं लाशों के दरम्यान एक तीन साल की बच्ची अपने पिता और भाइयों की तलाश में वही उन्हीं गलियों में, घर में चल रही थी और उसके कदमों के पास ही उसके पिता और तीन भाइयों की लाशें गिरी हुई थीं। वह बच्ची अपने घर को ढूंढ रही थी लेकिन उसे इस बात का पता नहीं था कि वह अपने घर में ही है जहां घर के सारे व्यक्ति दंगाइयों द्वारा मार दिये गये हैं।
राहुल बेदी अपने लेख में लिखते हैं कि दंगाइयों ने वोटर लिस्ट के आधार पर सिख घरों की पहचान की थी और दंगाई दिन में खाने के लिये थोड़ा सा समय भी लेते थे लेकिन राहुल जो सबसे ज़्यादा भयावह सच लिखते हैं जो व्यक्तिगत रूप से मैं भी कहना चाहता हूं कि दंगाइयों द्वारा दो दिन, 48 घंटे इस इलाके में कत्लेआम किया गया। लूट पाट की गई पुलिस और कॉंग्रेस सरकार की भूमिका तो हम सब जानते हैं कि यह कत्लेआम ही सरकारी व्यवस्था की उपज है। वह अपने ही नागरिकों की मौत पर आंख मींचकर गहरी नींद में सो रही थी।
इस माहौल में जहां एक मां अपनी बच्ची को किसी अंजान को देने से भी नहीं सहम रही क्योंकि उसके दर्द झेलने की सीमा का अब अंत हो चुका है और एक बच्ची लाशों की ढेर में अपने परिजनों को ढूंढ रही है, वहां इस मोहल्ले का कोई भी व्यक्ति किसी भी दंगाई को रोकने के लिये सामने नहीं आया। इसके विपरीत वह सड़क पर गिरी लाशों से भी मुंह फेर रहा है।
अगर इसकी वजह डर है तो इस कत्लेआम के तुरंत पश्चात हुए आम चुनाव में कॉंग्रेस के रूप में राजीव गांधी की ऐतिहासिक जीत समाज के किस सच की ओर इशारा करती है? यह हकीकत है कि 1984 का बहुताय समाज सिख समुदाय को एक देशद्रोही, राष्ट्रद्रोही और आंतकवाद के रूप में देख रहा था लेकिन इस मानसिकता की वजह क्या थी? इसको समझने की बहुत ज़रूरत है।
जिस बेरहमी से सिख समुदाय का कत्ल किया गया, जहां गले में टायर डालकर जलाने में भी किसी दंगाई की मानसिकता पर कोई असर नहीं पड़ रहा था इसके विपरीत जलाये जा रहे सिख के चारों ओर दंगाई नाच गाना कर रहे थे। इतनी नफरत, इसकी मानसिकता का जन्म कैसे और कब हुआ लेकिन सबसे ज़रूर सवाल है कि क्यों हुआ?
वास्तव में ऐसा क्या था जो एक आम नागरिक की मानसिकता को सिख समुदाय से जुड़ने में अवरोध बन रही थी? इन कारणों को समझने की ज़रूरत है क्योंकि आज भी राष्ट्रवाद, आंतकवाद, देशद्रोह, गद्दार जैसे शब्द सिर्फ अल्पसंख्यक समुदाय के लिये ही इस्तेमाल किये जाते हैं। जहां इस तरह का माहौल बनाया जाता है कि पीड़ित अल्पसंख्यक समुदाय का कत्लेआम में जान माल का नुकसान भी होता है और उसे ही इस कत्लेआम का कारण बताया जाता है।
मसलन 1984 के सिख कत्लेआम में हर वक्त इंदिरा गांधी की हत्या का विशेष तौर पर समावेश किया जाता है। जब तक हमारा देश का नागरिक कत्लेआम के प्रति संजीदगी से विचार विमर्श नहीं करेगा तब तक अल्पसंख्यक समुदाय के विरोध में हो रही हिंसा रुक जायेगी ऐसा संभव होना मुश्किल ही प्रतीत हो रहा है। अगर हालात इस तरह के हैं तो फिर लोकतंत्र को किस तरह से परिभाषित किया जा सकता है? क्या भारत का लोकतंत्र एक चुनावी और सत्ता का लोकतंत्र है? इस पर हम सबको बहुत गहराई से सोचने की ज़रूरत है।