- बुलंदशहर में अवैध बूचड़खानों (गौहत्या) को लेकर हुए बवाल के दौरान चली गोली से स्याना के पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की मौत हो गई। दरअसल, हिंसक भीड़ अवैध बूचड़खानों को लेकर गिरफ्तारी की मांग कर रही थी।
- जून 2018 को कर्नाटक में बीदर ज़िले के मुरकी में व्हाट्सऐप पर फैली बच्चा चोरी की अफवाह के कारण, भीड़ ने कथित तौर पर एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर की पीट-पीटकर हत्या कर दी।
- 2017 में 16 साल के जुनैद की हत्या ट्रेन में सीट को लेकर हुए एक मामूली विवाद में कर दी गई।
- जाट आंदोलन की हिंसक तस्वीर कितनी भयावह थी।
ऐसी खबरों की सूची तो और भी है पर इन खबरों की जड़ है, उन्मादी भीड़ द्वारा किसी पर हमला। लोगों का ऐसा समूह, जो हिंसक है, जिसे अब माॅब लिंचिंग की संज्ञा दे दी गई है, कभी गाय को बचाने के नाम पर, तो कभी लव-जिहाद के नाम पर, तो कभी अफवाह के नाम पर ऑन द स्पॉट न्याय करने पर उतारू हो जाता है।
भीड़ लोगों का समूह है, जो नेतृत्व के बल पर कभी विध्वंसकारी है तो कभी सृजनकर्ता पर अब लोगों के अंदर अधीरता, आक्रामकता और हिंसक प्रवृति बढ़ने के कारण उनका प्रदर्शन उग्र हो जाता है। नतीजतन, कई मासूम और निर्दोषों की जान चली जाती है। रोते-बिलखते चेहरों को देखकर कौन-सा न्याय होता है? देखा जाए, इस तरह की घटनाओं की नींव अफवाह या झूठी खबर फैलाकर रखी जाती है। कभी व्हाट्सऐप, सोशल मीडिया पर अफवाह फैलती है, तो कभी लोग हिंसक भीड़ को इकट्ठा कर ‘न्याय’ करने पर उतारू हो जाते हैं।
भीड़ की हिंसक घटनाओं को रोकने के लिए मानव सुरक्षा कानून का भी गठन हुआ है पर यह कानून तब तक अधूरा है, जब तक लोग खुद सजग नहीं होंगे। आम-नागरिक के सहयोग के बिना कोई भी कानून अधूरा है। लोगों को समझना होगा कि बिना पूरी जांच-पड़ताल किये, किसी भी नतीजे पर पहुंचना कितना घातक हो सकता है। हिंसा किसी भी चीज़ का समाधान नहीं है। ऐसे में इन बातों पर गौर करना ज़रूरी है-
- अफवाहों को बेवजह तूल ना दें।
- बिना सोचे-समझे किसी भी मैसेज को फॉरवर्ड ना करें।
- सोशल मीडिया का इस्तेमाल सही तरीके से हो, ना कि किसी की जान लेने के लिए।
- किसी को भी हिंसा के लिए भड़काना गलत है।
ये तो भीड़ के हिंसात्मक चेहरे की बात हुई। हिंसा के और भी कई प्रकार हैं। घरेलू हिंसा, जिसका शिकार अधिकांश महिलाएं होती हैं। घरेलू कामगारों के खिलाफ हिंसा जिसमें शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ना करना शामिल है। कई घरेलू कामगार लापता हो जाते हैं और उनके परिवार वालों को इसकी खबर तक नहीं होती है। यह लोग जब छुट्टी या एडवांस मांगते हैं, तो कई लोगों की भौंहे तन जाती हैं। अपने से कमज़ोर तबके के लोगों से कुछ लोग बेहद अमर्यादित व्यवहार करते हैं। उन्हें नीचा दिखाने और कमतर महसूस कराने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते हैं।
मुझे समझ नहीं आता कि लोगों के अंदर इतनी आक्रामकता, अधीरता और हिंसक प्रवृति क्यों बढ़ रही है? लोग ही लोगों के बीच फर्क कर रहे हैं। जबकि कोई भी व्यक्ति अपने साथ जाति-धर्म या कोई निश्चित काम की मुहर लेकर नहीं आता। यह तो हमारा समाज है, जो इसे बंदिशे देता है, इसलिए ज़रूरी है, अपने विवेक का उपयोग करें। साथ ही यह याद रखें किसी भी प्रकार की हिंसा को सहना भी गलत है।